PM मोदी जन्मदिन विशेष: जब नरेंद्र मोदी ने मां से नजदीकियों और अपने बचपन को याद कर सबको कर दिया था भावुक
September 17, 2024
पीएम मोदी बचपन से ही अपनी मां के बेहद करीब रहे हैं. उन्हें अपनी मां से इतना लगवा था कि वो जब भी कुछ बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य करने से पहले मां का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते थे. हालांकि, अब उनकी मां हीरा बेन इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन ऐसा शायद ही कोई दिन बीतता होगा जब वह उन्हें याद ना करते हों. यही वजह है कि वह समय-समय पर मां हीरा बेन से अपने जुड़ाव का जिक्र भी करते हैं. वो मां के साथ बचपन में बिताए गए दिनों को हमेशा याद करते हैं. वो जब भी अपने बचपन और वडनगर में बिताए गए दिनों की बात करते हैं तो उसमें मां और पिता का जिक्र जरूर आता है.पीएम मोदी ने अपने संघर्ष के दिनों से लेकर राजनीति के शिखर तक पहुचने की अपनी कहानी को कुछ वर्ष पहले ब्लॉग की शक्ल में साझा किया था. आज हम इसी ब्लॉग के कुछ अंशों के जरिए पीएम मोदी के बचपन के मजेदार और प्रेरणादायी किस्सों को आपसे साझा करने जा रहे हैं.
पीएम मोदी बचपन से ही अपनी मां के बेहद करीब रहे हैं. उन्हें अपनी मां से इतना लगवा था कि वो जब भी कुछ बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य करने से पहले मां का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते थे. हालांकि, अब उनकी मां हीरा बेन इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन ऐसा शायद ही कोई दिन बीतता होगा जब वह उन्हें याद ना करते हों. यही वजह है कि वह समय-समय पर मां हीरा बेन से अपने जुड़ाव का जिक्र भी करते हैं. वो मां के साथ बचपन में बिताए गए दिनों को हमेशा याद करते हैं. वो जब भी अपने बचपन और वडनगर में बिताए गए दिनों की बात करते हैं तो उसमें मां और पिता का जिक्र जरूर आता है.पीएम मोदी ने अपने संघर्ष के दिनों से लेकर राजनीति के शिखर तक पहुचने की अपनी कहानी को कुछ वर्ष पहले ब्लॉग की शक्ल में साझा किया था. आज हम इसी ब्लॉग के कुछ अंशों के जरिए पीएम मोदी के बचपन के मजेदार और प्रेरणादायी किस्सों को आपसे साझा करने जा रहे हैं.
पीएम मोदी ने अपने ब्लॉग में पुराने दिनों को याद करते हुए लिखा था कि आज मेरे जीवन में जो कुछ भी अच्छा है, मेरे व्यक्तित्व में जो कुछ भी अच्छा है, वो मां और पिताजी की ही देन है. आज जब मैं यहां दिल्ली में बैठा हूं, तो कितना कुछ पुराना याद आ रहा है.मेरी मां जितनी सामान्य हैं, उतनी ही असाधारण भी. ठीक वैसे ही, जैसे हर मां होती है। आज जब मैं अपनी मां के बारे में लिख रहा हूं, तो पढ़ते हुए आपको भी ये लग सकता है कि अरे, मेरी मां भी तो ऐसी ही हैं, मेरी मां भी तो ऐसा ही किया करती हैं. ये पढ़ते हुए आपके मन में अपनी मां की छवि उभरेगी. मां की तपस्या, उसकी संतान को,सही इंसान बनाती है. मां की ममता, उसकी संतान को मानवीय संवेदनाओं से भरती है. मां एक व्यक्ति नहीं है,एक व्यक्तित्व नहीं है,मां एक स्वरूप है. हमारे यहां कहते हैं,जैसा भक्त वैसा भगवान. वैसे ही अपने मन के भाव के अनुसार,हम मां के स्वरूप को अनुभव कर सकते हैं.मेरी मां का बचपन मां के बिना ही बीता,वो अपनी मां से जिद नहीं कर पाईं,उनके आंचल में सिर नहीं छिपा पाईं. मां को अक्षर ज्ञान भी नसीब नहीं हुआ,उन्होंने स्कूल का दरवाजा भी नहीं देखा. उन्होंने देखी तो सिर्फ गरीबी और घर में हर तरफ अभाव.बचपन के संघर्षों ने मेरी मां को उम्र से बहुत पहले बड़ा कर दिया था. वो अपने परिवार में सबसे बड़ी थीं और जब शादी हुई तो भी सबसे बड़ी बहू बनीं. बचपन में जिस तरह वो अपने घर में सभी की चिंता करती थीं, सभी का ध्यान रखती थीं, सारे कामकाज की जिम्मेदारी उठाती थीं, वैसे ही जिम्मेदारियां उन्हें ससुराल में उठानी पड़ीं. इन जिम्मेदारियों के बीच, इन परेशानियों के बीच,मां हमेशा शांत मन से, हर स्थिति में परिवार को संभाले रहीं.छोटे से घर में मां को खाना बनाने में कुछ सहूलियत रहे इसलिए पिताजी ने घर में बांस की फट्टी और लकड़ी के पटरों की मदद से एक मचान जैसी बनवा दी थी. वही मचान हमारे घर की रसोई थी. मां उसी पर चढ़कर खाना बनाया करती थीं और हम लोग उसी पर बैठकर खाना खाया करते थे.सामान्य रूप से जहां अभाव रहता है,वहां तनाव भी रहता है. मेरे माता-पिता की विशेषता रही कि अभाव के बीच भी उन्होंने घर में कभी तनाव को हावी नहीं होने दिया. दोनों ने ही अपनी-अपनी जिम्मेदारियां साझा की हुईं थीं.कोई भी मौसम हो,गर्मी हो,बारिश हो,पिताजी चार बजे भोर में घर से निकल जाया करते थे. आसपास के लोग पिताजी के कदमों की आवाज से जान जाते थे कि 4 बज गए हैं,दामोदर काका जा रहे हैं. घर से निकलकर मंदिर जाना,प्रभु दर्शन करना और फिर चाय की दुकान पर पहुंच जाना उनका नित्य कर्म रहता था.मां भी समय की उतनी ही पाबंद थीं. उन्हें भी सुबह 4 बजे उठने की आदत थी. सुबह-सुबह ही वो बहुत सारे काम निपटा लिया करती थीं. गेहूं पीसना हो,बाजरा पीसना हो, चावल या दाल बीनना हो,सारे काम वो खुद करती थीं. काम करते हुए मां अपने कुछ पसंदीदा भजन या प्रभातियां गुनगुनाती रहती थीं. नरसी मेहता जी का एक प्रसिद्ध भजन है “जलकमल छांडी जाने बाला, स्वामी अमारो जागशे” वो उन्हें बहुत पसंद है। एक लोरी भी है, “शिवाजी नु हालरडु”, मां ये भी बहुत गुनगुनाती थीं.मां कभी अपेक्षा नहीं करती थीं कि हम भाई-बहन अपनी पढ़ाई छोड़कर उनकी मदद करें. वो कभी मदद के लिए,उनका हाथ बंटाने के लिए नहीं कहती थीं. मां को लगातार काम करते देखकर हम भाई-बहनों को खुद ही लगता था कि काम में उनका हाथ बंटाएं.मुझे तालाब में नहाने का,तालाब में तैरने का बड़ा शौक था इसलिए मैं भी घर के कपड़े लेकर उन्हें तालाब में धोने के लिए निकल जाता था. कपड़े भी धुल जाते थे और मेरा खेल भी हो जाता था.घर चलाने के लिए दो चार पैसे ज्यादा मिल जाएं,इसके लिए मां दूसरों के घर के बर्तन भी मांजा करती थीं. समय निकालकर चरखा भी चलाया करती थीं क्योंकि उससे भी कुछ पैसे जुट जाते थे. कपास के छिलके से रूई निकालने का काम,रुई से धागे बनाने का काम,ये सब कुछ मां खुद ही करती थीं. उन्हें डर रहता था कि कपास के छिलकों के कांटें हमें चुभ ना जाएं.बारिश में हमारे घर में कभी पानी यहां से टकपता था,कभी वहां से. पूरे घर में पानी ना भर जाए,घर की दीवारों को नुकसान ना पहुंचे,इसलिए मां जमीन पर बर्तन रख दिया करती थीं. छत से टपकता हुआ पानी उसमें इकट्ठा होता रहता था. उन पलों में भी मैंने मां को कभी परेशान नहीं देखा,खुद को कोसते नहीं देखा. उनका एक और बड़ा ही निराला और अनोखा तरीका मुझे याद है. वो अक्सर पुराने कागजों को भिगोकर,उसके साथ इमली के बीज पीसकर एक पेस्ट जैसा बना लेती थीं, बिल्कुल गोंद की तरह. फिर इस पेस्ट की मदद से वो दीवारों पर शीशे के टुकड़े चिपकाकर बहुत सुंदर चित्र बनाया करती थीं. बाजार से कुछ-कुछ सामान लाकर वो घर के दरवाजे को भी सजाया करती थीं.मेरी मां की एक और अच्छी आदत रही है जो मुझे हमेशा याद रही. जीव पर दया करना उनके संस्कारों में झलकता रहा है. गर्मी के दिनों में पक्षियों के लिए वो मिट्टी के बर्तनों में दाना और पानी जरूर रखा करती थीं. जो हमारे घर के आसपास स्ट्रीट डॉग्स रहते थे,वो भूखे ना रहें,मां इसका भी खयाल रखती थीं. पीएम मोदी ने उस दौरान लिखा था कि मां आज भी जितना खाना हो उतना ही भोजन अपनी थाली में लेती हैं. आज भी अपनी थाली में वो अन्न का एक दाना नहीं छोड़तीं. नियम से खाना, तय समय पर खाना, बहुत चबा-चबा के खाना इस उम्र में भी उनकी आदत में बना हुआ है.एक बार मैं जब एकता यात्रा के बाद श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहरा कर लौटा था, तो अमदाबाद में हुए नागरिक सम्मान कार्यक्रम में मां ने मंच पर आकर मेरा टीका किया था. मां के लिए वो बहुत भावुक पल इसलिए भी था क्योंकि एकता यात्रा के दौरान फगवाड़ा में एक हमला हुआ था,उसमें कुछ लोग मारे भी गए थे. उस समय मां मुझे लेकर बहुत चिंता में थीं. हमारे शास्त्रो में कहा भी गया है माता से बड़ा कोई गुरु नहीं है- ‘नास्ति मातृ समो गुरुः’. इसलिए मैंने मां से भी कहा था कि आप भी मंच पर आइएगा. लेकिन उन्होंने कहा कि “देख भाई, मैं तो निमित्त मात्र हूं. तुम्हारा मेरी कोख से जन्म लेना लिखा हुआ था. तुम्हें मैंने नहीं भगवान ने गढ़ा है. ये कहकर मां उस कार्यक्रम में नहीं आई थीं. मेरे सभी शिक्षक आए थे,लेकिन मां उस कार्यक्रम से दूर ही रहीं.वडनगर के जिस घर में हम लोग रहा करते थे वो बहुत ही छोटा था.उस घर में कोई खिड़की नहीं थी,कोई बाथरूम नहीं था, कोई शौचालय नहीं था.कुल मिलाकर मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छत से बना वो एक-डेढ़ कमरे का ढांचा ही हमारा घर था,उसी में मां-पिताजी,हम सब भाई-बहन रहा करते थे.
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