आम तौर पर पहले फिल्मों की कमाई थिएटर रिलीज, म्यूजिक और सैटेलाइट राइट्स से होती थी। अब ओटीटी प्लेटफार्म के आने से यह पूरा सिस्टम बदल चुका है। डिजिटल राइट्स ने न सिर्फ दर्शकों की फिल्में देखने की आदतें बदली हैं, बल्कि थिएटर बिजनेस को भी नई चुनौती दी है। अब सवाल यह है उठाता है कि क्या ओटीटी ने फिल्म इंडस्ट्री के लिए नए मौके बनाए हैं, या इससे थिएटर बिजनेस को नुकसान हुआ है? अब फिल्में सिर्फ सिनेमाघरों के लिए बनती हैं, या ओटीटी के लिए? प्रोड्यूसर्स के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद मॉडल कौन सा है? क्या अब फिल्मों की सफलता सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर निर्भर नहीं रही? आज के रील टु रियल में इसी बिजनेस मॉडल को समझने की कोशिश करेंगे। इसके लिए हमने फिल्ममेकर प्रांजल खंधाड़िया, शब्बीर बॉक्सवाला और फिल्म एनालिस्ट-डिस्ट्रीब्यूटर राज बंसल से खास बातचीत की। इस बातचीत के दौरान जानेंगे कि फिल्म इंडस्ट्री अब किस दिशा में जा रही है और इसमें आगे क्या नए बदलाव हो सकते हैं। अब की रणनीति: ओटीटी और थिएट्रिकल बिजनेस पर निर्भरता आज फिल्में थिएट्रिकल रिलीज के बजाय ओटीटी रिलीज पर ज्यादा निर्भर हो गई हैं। ओटीटी प्लेटफार्म फिल्मों के राइट्स खरीदकर डायरेक्ट डिजिटल रिलीज कर रहे हैं, जिससे प्रोड्यूसर्स का फोकस बदला है। कोरोना के दौरान दर्शकों को ओटीटी पर मुफ्त में फिल्में देखने का मौका मिला। थिएटर में फिल्में रिलीज नहीं हो रही थीं। जो फिल्में रिलीज हो रही थीं, वो ओटीटी पर ही उपलब्ध हो रही थीं। इससे दर्शकों की आदत बदल गई। वे धीरे-धीरे ओटीटी के आदी हो गए। ओटीटी पर 15 रुपए से लेकर 2000 रुपए तक के पैकेज में साल भर का मनोरंजन मिलता है। थिएटर में 600 रुपए का टिकट, कैंटीन, पार्किंग और ट्रैवलिंग जोड़कर 3000 से 3500 तक खर्च हो जाता है। इसके बावजूद यह गारंटी नहीं कि फिल्म अच्छी होगी। ऐसा भी दौर रहा जब हिंदी फिल्में थिएटर में नहीं चल रही थी और साउथ की फिल्मों ने थिएटर पर कब्जा कर लिया। हिंदी सिनेमा का क्यों बुरा दौर शुरू हुआ? जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री संघर्ष कर रही है, तभी साउथ की फिल्में लगातार सफलता हासिल कर रही हैं। साउथ सिनेमा की सफलता के पीछे बेहतरीन म्यूजिक, दमदार कहानियां और अच्छे डायरेक्टर्स हैं। इसके अलावा, वहां टिकट की कीमतें भी नॉर्मल होती हैं, जिससे दर्शकों की बड़ी संख्या थिएटर्स में आती है। साउथ के बड़े स्टार्स जैसे एनटीआर, चिरंजीवी, महेश बाबू, रजनीकांत और कमल हासन के लॉयल फैन क्लब्स हैं, जो उनकी हर फिल्म को बड़ा बिजनेस दिलाने में मदद करते हैं। ये एक्टर्स सुनिश्चित करते हैं कि उनके दर्शकों को कम कीमत में बेहतरीन मनोरंजन मिले, जिससे दर्शक सिनेमाघरों की ओर आकर्षित होते हैं। साउथ सिनेमा ने और क्या नया स्ट्रेटेजी अपनाई? साउथ सिनेमा को पैन इंडिया स्तर पर पहचान दिलाने के लिए उन्होंने एक और स्मार्ट स्ट्रेटेजी अपनाई। उन्होंने नॉर्थ इंडिया के बड़े एक्टर्स को अपनी फिल्मों में छोटे, लेकिन महत्वपूर्ण रोल देने शुरू किए। अजय देवगन, आलिया भट्ट, अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण और संजय दत्त जैसे एक्टर्स को साउथ की फिल्मों में कास्ट किया गया, जिससे उन फिल्मों का नॉर्थ इंडिया मार्केट में भी प्रभाव बढ़ा। बाहुबली के बाद केजीएफ, आरआरआर और दूसरी कई साउथ फिल्में नॉर्थ में भी बड़े पैमाने पर हिट हुईं। साउथ के डायरेक्टर्स अपनी फिल्मों पर 2-3 साल लगाकर प्लानिंग करते हैं। सेट्स पर ध्यान देते हैं, और पूरे डेडिकेशन के साथ फिल्में बनाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के मेकर स्टूडियो सिस्टम आने से थोड़े से थोड़े से लापरवाह हो गए। स्टूडियो सिस्टम आने से क्या बदलाव आया? फिल्म मेकर प्रांजल खंडरिया ने कहा- पहले प्रोड्यूसर अपनी कन्विक्शन के साथ फिल्में बनाता था। उसी कन्विक्शन से वह फिल्में रिलीज करता था, लेकिन पिछले 20 वर्षों में स्टूडियो सिस्टम आने से फायदा-नुकसान दोनों हुआ है। कॉर्पोरेट से पैसा आना शुरू हुआ और चीजें बदली। प्रोड्यूसर सिर्फ फिल्म की मेकिंग पर फोकस करता था। बाकी सारी चीजें स्टूडियो हैंडल करता हे। अब प्रोड्यूसर का रिस्क नहीं रहा। इस दौरान हिंदी फिल्मों का बहुत ग्रोथ हुआ और आज हम 15 हजार करोड़ की सालाना टर्न ओवर की बात कर रहे हैं। जबकि अस्सी और नब्बे के दशक के प्रोड्यूसर मोटे ब्याज दर पर पैसे लेकर फिल्म बनाते थे। यहां तक जमीन-जायदाद गिरवी रखकर फिल्म की शूटिंग पूरी करते थे। अब कई स्टूडियोज ने हिंदी फिल्मों को फंड करना बंद कर दिया है स्टूडियो सिस्टम आने से कई प्रोड्यूसर अपनी फिल्मों को बहुत सीरियसली नहीं लेते। प्रोड्यूसर्स को अक्सर स्टूडियो सपोर्ट मिल जाता है, जिससे उनका ध्यान फिल्म की क्वालिटी से हट जाता है। राज बंसल ने बताया- कई स्टूडियोज ने हिंदी फिल्मों को फंड करना बंद कर दिया है, क्योंकि उन्हें सही रिटर्न नहीं मिल रहा। हालांकि नए प्रोड्यूसर्स के लिए अवसर बहुत हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें कहानी, म्यूजिक और डायरेक्शन पर खास ध्यान देना होगा। प्रोड्यूसर्स का डायरेक्टर्स की अनदेखी करना भी एक बड़ी समस्या है। इंडस्ट्री में कई अनुभवी डायरेक्टर हैं, जो आज बेरोजगार बैठे हैं। क्योंकि नए प्रोड्यूसर्स और स्टूडियोज उन्हें काम नहीं दे रहे हैं। एक समय ऐसा भी आया जब हिंदी सिनेमा का बुरा दौर शुरू हो गया। स्टार्स प्रोड्यूसर्स और डिस्ट्रीब्यूटर्स की परेशानी समझते हैं सलमान और शाहरुख खान जैसे कई स्टार्स प्रोड्यूसर्स और डिस्ट्रीब्यूटर्स की परेशानी समझते हुए पैसे लौटाए हैं। सलमान खान ने ‘ट्यूबलाइट’ के बॉक्स ऑफिस पर न चलने के बाद डिस्ट्रिब्यूटर्स के तकरीबन 35 करोड़ रुपए लौटाए हैं। वहीं, जब शाहरुख खान की फिल्म ‘जब हैरी मेट सेजल’ नहीं चली तब उन्होंने एमएच स्टूडियोज को उनकी रकम का करीब 15 फीसदी और बाकी अन्य डिस्ट्रिब्यूटर्स की करीब 30 फीसदी रकम वापस कर दी थी। इससे पहले भी शाहरुख फिल्म ‘अशोका’, ‘पहेली’ जैसी फिल्मों के पिटने पर पैसा वापस कर चुके हैं। क्या है डिस्ट्रीब्यूटर्स और एक्जीबिटर्स की भूमिका? डिस्ट्रीब्यूटर्स और एक्जीबिटर्स का रोल भी महत्वपूर्ण है। 90 के दशक के आखिरी दौर और 2000 के शुरुआती सालों में हर टेरिटरी में 50 से 100 डिस्ट्रीब्यूटर्स होते थे, लेकिन अब वो संख्या घटकर 5 प्रतिशत रह गई है। अब डिस्ट्रीब्यूशन का काम लिमिटेड डिस्ट्रीब्यूटर्स के हाथ में आ गया है। पहले सिनेमा चेन नहीं होती थी, लेकिन अब पीवीआर, इनॉक्स, गोल्ड और मिराज जैसी बड़ी सिनेमा चेन हैं। आमतौर पर नई फिल्म रिलीज के दौरान 50-50 फॉर्मूला होता है। जिसमें 50 प्रतिशत सिनेमा चेन को और 50 प्रतिशत डिस्ट्रीब्यूटर को मिलता है। जब एक ही दिन पर कई फिल्में रिलीज होती हैं, तब डिस्ट्रीब्यूटर्स और एक्जीबिटर्स के बीच टकराव शुरू हो जाता है। ऐसे में बड़ा विवाद शुरू हो जाता है। जिससे सिनेमा चेन और डिस्ट्रीब्यूटर के बीच कई बार क्लैश हो जाता है। फिल्म बिजनेस में अब One Time Investment नहीं, बल्कि Multi-Stage Revenue Plan जरूरी है- शब्बीर बॉक्सवाला (प्रोड्यूसर) फिल्म इंडस्ट्री का बिजनेस अब सिर्फ थिएटर कलेक्शन तक सीमित नहीं है। सैटेलाइट, म्यूजिक, डिजिटल राइट्स और री-रिलीज जैसे फैक्टर्स अब कमाई के नए रास्ते खोल रहे हैं। 1. सैटेलाइट और म्यूजिक राइट्स: क्या अब भी फिल्मों की बैकअप इनकम हैं? पहले सैटेलाइट और म्यूजिक राइट्स किसी भी फिल्म की ‘प्री-सोल्ड revenue’ हुआ करते थे। फिल्म रिलीज होने से पहले ही टीवी चैनल्स और म्यूजिक लेबल्स करोड़ों में डील कर लेते थे, जिससे प्रोड्यूसर्स को थिएटर रिस्क से बचने का मौका मिलता था। अब यह बिजनेस मॉडल बदल गया है। अब OTT और टीवी चैनल्स अब ‘Wait and Watch’ स्ट्रैटेजी अपना रहे हैं। पहले वे फिल्में रिलीज से पहले खरीदते थे, अब वे बॉक्स ऑफिस पर फिल्म की परफॉर्मेंस देखने के बाद कीमत तय करते हैं। म्यूजिक इंडस्ट्री में भी ‘Only Hit Works’ फॉर्मूला आ गया है। अगर गाने हिट होते हैं, तो फिल्म को एक्स्ट्रा लाइफ मिलती है, वरना म्यूजिक राइट्स से बहुत बड़ा रिटर्न नहीं आता। नया बिजनेस मॉडल: अब फिल्में थिएटर के बाद डिजिटल प्लेटफॉर्म पर कब आएंगी, इसकी प्लानिंग बहुत जरूरी है। 2. OTT और थिएटर बिजनेस: अब कौन किस पर डिपेंड कर रहा है? पहले OTT प्लेटफॉर्म फिल्मों के पीछे भागते थे,अब फिल्में OTT के पीछे दौड़ रही हैं। OTT प्लेटफॉर्म को हर महीने नया कंटेंट चाहिए होता था, इसलिए वे हाई प्राइस देकर फिल्में खरीदते थे। अब OTT प्लेटफार्म अब यह देख रहे हैं कि फिल्म की थिएटर परफॉर्मेंस कैसी है, उसके बाद ही सही कीमत लगाते हैं। नया बिजनेस मॉडल: अब फिल्म इंडस्ट्री को थिएटर और OTT दोनों को बैलेंस करने के लिए Hybrid Release Strategy अपनानी होगी। 3. छोटे बजट की फिल्मों का नया गेमप्लान: सिर्फ कंटेंट नहीं, सही मार्केटिंग जरूरी पहले 50-60 लाख में फिल्म बनाकर थिएटर में रिलीज करना आसान था। अब मार्केटिंग और डिजिटल प्रमोशन महत्वपूर्ण हो गया है। 4. छोटे बजट की फिल्में अब दो तरीकों से कमाई कर सकती हैं सीधे OTT पर बेचकर। छोटे शहरों या सिंगल स्क्रीन थिएटर्स पर रिलीज करके, फिर OTT पर जाने का प्लान बनाकर। नया बिजनेस मॉडल: अब छोटी फिल्मों को सही टारगेट ऑडियंस तक पहुंचाने की स्ट्रेटेजी बनानी होगी, सिर्फ थिएटर में फिल्म नहीं चलेगी। 5. पुरानी फिल्मों की री-रिलीज: क्या यह नई कमाई का तरीका बन सकता है? थिएटर इंडस्ट्री में कंटेंट की कमी की वजह से पुरानी हिट फिल्मों की मांग बढ़ रही है। जब नई बड़ी फिल्में नहीं आ रहीं, तो सिनेमाघरों को ‘Evergreen Content’ यानी पुरानी हिट फिल्मों को दोबारा रिलीज करके कमाई करनी पड़ रही है। सनम तेरी कसम, तुम्बाड, तुम बिन जैसी फिल्मों की री-रिलीज इसी मॉडल का हिस्सा हैं। नया बिजनेस मॉडल: अब फिल्ममेकर्स को अपनी पुरानी फिल्मों की ‘Re-Monetization Strategy’ बनानी होगी, जिससे पुराने कंटेंट से भी रेवेन्यू जेनरेट हो सके। 6.फिल्म बिजनेस में अब ‘One Time Investment’ नहीं, बल्कि ‘Multi-Stage Revenue Plan’ जरूरी अब फिल्मों की कमाई का गेम सिर्फ थिएटर कलेक्शन पर निर्भर नहीं है। हर प्रोड्यूसर को थिएटर, डिजिटल, सैटेलाइट, म्यूजिक, और री-रिलीज मॉडल को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी होगी। थिएटर + OTT = हाइब्रिड रिलीज मॉडल म्यूजिक + डिजिटल प्रमोशन = हिट फिल्म की पहचान री-रिलीज + पुरानी फिल्मों का सही इस्तेमाल = लॉन्ग-टर्म बिजनेस ______________________________________________________________ पिछले हफ्ते की रील टु रियल की यह स्टोरी भी पढ़ें.. सेंसर बोर्ड से कैसे पास होती हैं फिल्में:इसके पास बैन करने का अधिकार नहीं; क्या वाकई में सेंसर बोर्ड को किसी फिल्म को बैन करने का अधिकार है? ‘उड़ता पंजाब’ में बोर्ड ने करीब 89 सीन कट करने का निर्देश दिया था, लेकिन कोर्ट ने इस फिल्म को सिर्फ एक कट के साथ रिलीज करने की मंजूरी दे दी थी, जो कि ना के बराबर था। पूरी स्टोरी पढ़ें..बॉलीवुड | दैनिक भास्कर
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