चमोली जल प्रलय की वजह सिर्फ एक है और वह है सरकारों की हठवादिता। केंद्र में सरकार चाहे कांग्रेसनीत रही हो या भाजपानीत। सभी ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ किया। वैज्ञानिकों के सुझाव तक को अमान्य कर दिया। इसका सबसे पहले प्रभाव 2013 में दिखा था जब पवित्र केदारनाथ में जल प्रलय आया था। वह प्रकृति की बड़ी चेतावनी थी। उस जल प्रलय में हजारों लोग मारे गए। तमाम लापता हो गए। यहां तक कि आदि शंकराचार्य भगवान की समाधि भी जल प्रवाह में बह गई। इतने सब के बाद भी हम सजग नहीं हुए।
विकास के नाम पर प्रकृति के दोहन में अब भी बेरहमी से लगे हैं। वृक्षों का काटना जारी है और नदियों के प्रवाह को रोककर बड़े-बड़े बांधों के निर्माण अनवरत जारी है। पहाड़ों पर नदियों के उद्गम स्थल पर बांध बनाए जाने का विरोध तो तभी से हो रहा है, जब इसकी शुरूआत हुई थी।
लेकिन वैज्ञानिकों की बातों को तनिक भी तरजीह नहीं दी गई। फिर साधु-संतों और नदी वैज्ञानिकों की पुरजोर मांग पर जब पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने मां गंगा की रक्षा के लिए पहल की तो चारों तरफ उसकी प्रशंसा हुई। डॉ सिंह ने जब मां गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया और गंगा के निर्मलीकरण और अविरलता के लिए गंगा बेसिन अथॉरिटी का गठन किया तो उसका एक स्वर से स्वागत किया गया। लेकिन उस गंगा बेसिन अथॉरिटी के सुझावों को भी लगातार अनदेखा किया जा रहा है। इस गंगा बेसिन अथॉरिटी के सदस्यों के हर सुझाव को अनदेखा किया गया। नतीजा सामने है।
वैज्ञानिकों की मानें तो अब भी वक्त है। किसी देश की नकल कर बड़े पैमाने पर जो बिजली उत्पादन के लिए जो जल विद्युत परियोजनाएं लागू की जा रही हैं। बडे-बड़े डैम बनाए जा रहे हैं उनका प्रभाव तो पड़ना ही है। वो भी तब जब इन जल विद्युत परियोजनाओं का हमें अपेक्षित परिणाम भी नहीं मिल रहा।
वैज्ञानिकों के मुताबिक इन बांधों का अपेक्षित लाभ भी हमें नहीं मिल रहा। आलम यह है कि चीन ने जो 175 मीटर ऊंचा टीजीपी डैम बनाया है उसके सापेक्ष भारत ने 206.5 मीटर ऊंचा डैम बनाया। लेकिन चीन के डैम से से वह 18 हजार मेगावाट बिजली उत्पादित कर रहा है जबकि भारत टिहरी डैम से महज 15 सौ मेगावाट। यानी लक्ष्य की प्राप्ति भी नहीं हो रही।
कुछ संवेदनशील मीडिया खबरों की मानें तो पहाड़ों पर चीन ने भी जल विद्युत परियोजना लांच की है और वह हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन कर रही है जबकि हम यानी भारत सैकड़ा में ही हैं। इसका परिणाम यह है कि चीन जहां काम कर रहा वहां पत्थर हैं जबकि भारत जहां काम कर रहा है वहां मिट्टी है। ऐसे में मिट्टी का ढूहा कितना शक्तिशाली हो सकता है यह सामने है।
वैज्ञानिकों की मानें तो जब हाइड्रोजन से बिजली बनाई जा सकती है तो जल विद्युत परियोजनाओं का क्या उपयोग? इस तथ्य से सभी वाकिफ हैं बावजूद इसके अपनी हठवादिता के चलते इन जल विद्युत परियोजनाओं को तरजीह दी जा रही है।
वर्ष 2009 से गंगा बेसिन अथॉरिटी के सलाहकार, बीएचयू के पर्यावरणविद् प्रो बीडी त्रिपाठी की मानें तो उत्तराखंड की पहाड़ियों में पॉवर प्रोजेक्ट के लिए बांध बनाने से आसन्न खतरों के प्रति लगातार आगाह कराया जा रहा है सरकारों को। उन्हें बताया जा रहा है कि भुरभुरी मिट्टी वाली हिमालय पर्वत शृंखला की पहाड़ियों में बनाए जा रहे बांध और कुछ नहीं “वॉटर बम” हैं। वही “वॉटर बम” रविवार को चमोली में फूटा।
प्रो त्रिपाठी बताते हैं कि टिहरी बांध परियोजना पूर्ण होने के पश्चात ऋषिकेश से गंगोत्री के बीच 63 छोटे-बड़े पॉवर प्रोजेक्ट स्थापित करने की योजना बनी जिसका लगातार पूरे देश से विरोध हो रहा था। लेकिन सरकारों ने उन विरोधों पर कोई ध्यान नहीं दिया। हिमालय पर्वत शृंखला के बीच बांध बनाने का काम निरंतर जारी रहा। बड़ी मात्रा में विस्ययफोट किए गए।
वह बताते हैं कि उत्तराखंड के पहाड़ों के बीच बांध बनाने के लिए किए जा रहे विस्फोट का दुःप्रभाव पड़ने लगा है। दरअसल भुरभुरी मिट्टी के चलते बांध के तीन ओर की पहाड़ियों के निचले हिस्से पानी सोख रहे हैं। वहां सीपेज हो रहा है। वह कहते हैं कि इसे रोका नहीं गया तो हालात और बदतर होंगे।
Note: यह लेख ‘sachhi batt’ ब्लॉग से लिया गया है।
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