ग्राउंड जीरो और देव माणूस के रिलीज पर बोले तेजस:बोले- लग रहा दो अलग सब्जेक्ट का इम्तिहान दे रहा हूं

निर्देशक तेजस प्रभा विजय देओस्कर की दो फिल्में ‘ग्राउंड जीरो’ और ‘देव माणूस’ एक साथ 25 अप्रैल को रिलीज हो गई हैं। इस बातचीत में तेजस ने इन दोनों फिल्मों और कलाकारों के साथ तालमेल समेत शूटिंग को लेकर खास जानकारी दी… आपकी दो फिल्में, ‘ग्राउंड जीरो’और ‘देव माणूस’ एक साथ रिलीज हो रही हैं। क्या कहना चाहेंगे? यह सच है कि मेरी दो अलग-अलग फिल्में, ‘ग्राउंड जीरो’ और ‘देव माणूस’, एक ही दिन दर्शकों के सामने आई हैं। इसे लेकर मैं कई तरह की भावनाओं से भरा हुआ हूं। मुख्य रूप से तो उत्साह है, क्योंकि एक निर्देशक के तौर पर यह मेरे लिए एक खास पल है। दोनों ही फिल्में मेरे लिए बहुत मायने रखती हैं। दिलचस्प बात यह है कि वे एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। ‘ग्राउंड जीरो’ एक ऐसी कहानी है, जो कश्मीर की संवेदनशील पृष्ठभूमि पर आधारित है और इसमें एक्शन और थ्रिल है। वहीं, ‘देव माणूस’ एक अधिक व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो मानवीय स्वभाव के जटिल पहलुओं को छूती है। इनकी विषयवस्तु अलग है, इनकी भाषाएं अलग हैं। ‘ग्राउंड जीरो’ मुख्य रूप से हिंदी में है जबकि ‘देव माणूस’ मराठी में है। मैं इस स्थिति को ऐसे देख रहा हूं जैसे मैं एक साथ दो अलग-अलग विषयों की परीक्षाएं दे रहा हूं। ‘ग्राउंड जीरो’ कश्मीर में शूट हुई। वहां आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा? कश्मीर में शूटिंग करना कई मायनों में चुनौतीपूर्ण था। मुंबई या दिल्ली की तुलना में वहां शूटिंग के लिए आवश्यक चीजें आसानी से उपलब्ध नहीं थीं। इसके अलावा, फिल्म 2001-2003 की पृष्ठभूमि पर आधारित है, इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना पड़ा कि आधुनिक चीजें दृश्यों में न दिखें, जैसे कि एलईडी स्ट्रीट लैंप को हटाना या अपनी खुद की लाइटिंग का उपयोग करना। सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों और उनके प्रोटोकॉल से निपटना था। मुझे जानकारी मिली कि लगभग 27 अलग-अलग एजेंसियां वहां काम करती हैं और इन सभी के अपने-अपने नियम और प्रोटोकॉल हैं। हालांकि, मैं जम्मू-कश्मीर के माननीय उपराज्यपाल मनोज सिन्हा जी का आभारी हूं, जिन्होंने हमें आवश्यक अनुमतियां प्राप्त करने में बहुत मदद की। कश्मीर में शूटिंग के दौरान आपने वहां की जमीनी हकीकत को किस तरह महसूस किया? जब हम ‘ग्राउंड जीरो’ की शूटिंग के लिए कश्मीर गए, तो हमारा मुख्य उद्देश्य फिल्म बनाना था, इसलिए हम एक तरह से पर्यटक की तरह ही थे। हमारा कोई राजनीतिक या अन्य विशेष उद्देश्य नहीं था। मेरा अनुभव कश्मीर में बहुत ही सकारात्मक रहा। इसके अलावा, स्थानीय लोगों का समर्थन और प्रेम भी हमारे लिए एक बड़ी राहत थी। उन्होंने हमें हमेशा खुले दिल से स्वीकार किया। इसलिए, भले ही चुनौतियां थीं लेकिन वहां काम करने का अनुभव भी बहुत यादगार और संतोषजनक रहा। हमने कुल मिलाकर लगभग 35-40 दिन वहां शूटिंग की। जब हम वापस लौट रहे थे, तो हमें लग रहा था जैसे हम अपने किसी प्रिय स्थान को छोड़कर जा रहे हों। ‘ग्राउंड जीरो’ में एक्शन दृश्यों के लिए क्या व्यवस्थाएं की गईं? क्या आपको सेना या अन्य एजेंसियों से कोई सहायता मिली? ‘ग्राउंड जीरो’ में एक्शन दृश्यों को वास्तविकता के करीब दिखाने के लिए हमने विशेष प्रयास किए। चूंकि फिल्म की कहानी बीएसएफ (सीमा सुरक्षा बल) के इर्द-गिर्द घूमती है, इसलिए हमने उनकी विशेषज्ञता और संसाधनों का लाभ उठाने की कोशिश की। बीएसएफ के अधिकारियों ने हमें हथियारों और अन्य आवश्यक उपकरणों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी और कुछ वास्तविक हथियार भी शूटिंग के लिए उपलब्ध कराए। हालांकि, सुरक्षा प्रोटोकॉल को ध्यान में रखते हुए, हमने कई डमी हथियार और अन्य प्रोप्स भी मुंबई से मंगवाए थे। इसके अतिरिक्त, हमें वहां बुलेटप्रूफ वाहनों की आवश्यकता थी, जो हमें बीएसएफ द्वारा ही उपलब्ध कराए गए। यह अपने आप में एक अनूठा अनुभव था क्योंकि ये वाहन आमतौर पर नागरिक उपयोग के लिए उपलब्ध नहीं होते हैं। बीएसएफ के अधिकारियों ने हमें ट्रेनिंग और तकनीकी पहलुओं को समझने में भी मदद की, ताकि अभिनेता अपने किरदारों को और अधिक प्रामाणिकता से निभा सकें। यह सहयोग फिल्म के एक्शन दृश्यों को विश्वसनीय बनाने में बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ। ‘ग्राउंड जीरो’ के लिए अभिनेताओं को किस प्रकार की ट्रेनिंग दी गई? ग्राउंड जीरो अभिनेताओं को उनके किरदारों को अधिक प्रामाणिक रूप से निभाने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया गया। हम शूटिंग शुरू करने से लगभग तीन-चार दिन पहले कश्मीर पहुंचे और वहां हमने बीएसएफ कैंप में काफी समय बिताया। मुंबई में भी हमने इस बारे में प्रारंभिक चर्चाएं की थीं। अभिनेताओं के लिए दो मुख्य पहलू थे जिन पर हमने ध्यान केंद्रित किया। पहला था उनकी शारीरिक मुद्रा और हावभाव। एक सैनिक का खड़े होने, चलने और बात करने का तरीका उनकी विशेष ट्रेनिंग के कारण आम लोगों से अलग होता है। हमने अभिनेताओं को यह बारीकी से समझाया और उन्हें बीएसएफ जवानों के तौर-तरीकों को अपनाने के लिए प्रेरित किया। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू था उनका अनुशासन और सम्मानजनक व्यवहार। सैनिकों में एक विशेष प्रकार का अदब और बातचीत का सलीका होता है, जो सीखने योग्य है। हमने अभिनेताओं को इन गुणों को आत्मसात करने के लिए प्रोत्साहित किया। बीएसएफ द्वारा हमें एक लाइसेंसिंग अधिकारी भी नियुक्त किया गया था, जिन्होंने अभिनेताओं और मेरे साथ मिलकर विस्तार से चर्चा की कि बीएसएफ का पूरा कामकाज और उनकी दुनिया कैसी होती है। इससे हमें उनके जीवन और जिम्मेदारियों को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली। इसके अलावा, स्क्रिप्ट पर काम करते समय, मैंने दुबे सर, जिनके अनुभवों पर यह कहानी आधारित है, उनसे कई बार बातचीत की और उनसे विभिन्न पहलुओं पर सवाल पूछे ताकि हम कहानी को सही ढंग से प्रस्तुत कर सकें। यह सब प्रशिक्षण अभिनेताओं के लिए बहुत उपयोगी साबित हुआ ताकि वे अपने किरदारों को सच्चाई और संवेदनशीलता के साथ निभा सकें। अपनी दूसरी फिल्म ‘देव माणूस’ के बारे में बताएं। यह किस प्रकार की कहानी है? ‘देव माणूस’ मेरे लिए एक बहुत ही निजी कहानी है। इसमें मानवीय स्वभाव के कुछ ऐसे सार्वभौमिक पहलुओं को छुआ गया है जिनसे हर दर्शक कहीं न कहीं जुड़ाव महसूस करेगा। यह फिल्म उन घटनाओं और परिस्थितियों को दर्शाती है जो किसी भी सामान्य व्यक्ति के जीवन में घट सकती हैं। यह किसी सच्ची घटना पर आधारित नहीं है लेकिन यह उन आम स्थितियों से प्रेरित है जो हमारे आस-पास अक्सर होती रहती हैं। फिल्म यह पता लगाने की कोशिश करती है कि कैसे एक साधारण जीवन जीने वाला व्यक्ति अचानक एक ऐसी स्थिति में फंस जाता है जहां उसे यह सोचना पड़ता है कि क्या वह जो करने जा रहा है वह सही है या गलत। यह फिल्म इसी नैतिक दुविधा और मनःस्थिति को दर्शाती है। फिल्म यह भी दिखाती है कि ऐसे समय में एक व्यक्ति कैसे प्रतिक्रिया करता है, वह अपनी आंतरिक संघर्षों से कैसे निपटता है और अंततः क्या निर्णय लेता है। हमने इसी मानवीय पहलू को गहराई से छूने की कोशिश की है। आपने ‘देव माणूस’ के लिए महेश मांजरेकर को ही क्यों चुना गया? महेश जी हमारी पहली पसंद थे। उन्होंने कई साक्षात्कारों में कहा है कि ‘देव माणूस’ के नाम से उनकी ऑन-स्क्रीन और ऑफ-स्क्रीन छवि विपरीत है। लेकिन एक अभिनेता के तौर पर उनकी क्षमता बहुत अधिक है और वह किसी भी किरदार को निभा सकते हैं। इसलिए, मैंने सोचा कि यह उनके लिए एक चुनौतीपूर्ण भूमिका होगी। उन्होंने कहानी सुनने के बाद तुरंत इसे करने की इच्छा जताई, जिससे मुझे बहुत खुशी हुई। क्या ‘देव माणूस’ की कहानी मूल रूप से मराठी में ही सोची गई थी? यह फिल्म ‘वध’ की रूपांतरण है। रीमेक के विपरीत, रूपांतरण में हम मूल अवधारणा लेते हैं और उस पर एक नई कहानी लिखते हैं। ‘वध’ की दुनिया और हमारी फिल्म की दुनिया में बहुत अंतर है। लगभग यह एक अलग ही कहानी है। भारतीय सिनेमा में रूपांतरण के कई बेहतरीन उदाहरण हैं, जैसे कि विशाल भारद्वाज की ‘मकबूल’ (मैकबेथ पर आधारित), ‘ओमकारा’ (ओथेलो पर आधारित) और ‘हैदर’ (हैमलेट पर आधारित)। ये फिल्में मूल कहानियों से प्रेरित थीं, लेकिन उन्होंने अपनी एक अलग दुनिया और कहानी बनाई। महेश का किरदार इसमें क्या है? क्या वह ‘वध’ की तरह एक स्कूल मास्टर हैं? महेश जी का किरदार स्कूल टीचर से परे है। महेश जी और रेणुका शहाणे दोनों इसमें वारकरी समुदाय से हैं। वारकरी महाराष्ट्र का एक प्रसिद्ध समुदाय है जो हर साल पंढरपुर की वारी (तीर्थयात्रा) में भाग लेता है। रेणुका जी पैठणी (एक प्रकार की साड़ी) बनाने वाली महिला का किरदार निभा रही हैं। इसलिए, हमने मूल कहानी से बहुत अलग दुनिया बनाई है। कई बार लोगों को लगता है कि बस कहानी के कुछ पात्रों के नाम बदल दिए जाएं, स्थान बदल दिए जाएं या कुछ घटनाओं को थोड़ा-बहुत बदल दिया जाए तो वह रूपांतरण हो गया। वास्तव में ऐसा नहीं है। यह सिर्फ सतही बदलाव नहीं है, बल्कि कहानी की गहराई में जाकर उसे फिर से कल्पना करने और उसे एक नया जीवन देने जैसा है। हमें खुशी है कि लव फिल्म्स, जो “वध’ के निर्माता भी हैं और “देव माणूस’ को भी प्रोड्यूस कर रहे हैं, उन्होंने हमें इस कहानी को अपने तरीके से प्रभावी ढंग से रूपांतरित करने की पूरी स्वतंत्रता दी।बॉलीवुड | दैनिक भास्कर