May 29, 2025

एक्टर इमोशनल लेबर करने वाला श्रमिक- पंकज त्रिपाठी:ओटीटी vs थियेटर पर क्रिमिनल जस्टिस की स्टारकास्ट बोली- OTT पर दर्शकों को कंटेंट चुनने की आजादी

एक्टर पंकज त्रिपाठी, एक्ट्रेस श्वेता बसु और सुरवीन चावला तीनों ही बड़े पर्दे के अलावा ओटीटी के लिए काम कर चुके हैं। तीनों ओटीटी प्लेटफॉर्म का जाना माना चेहरा हैं। जल्द ही इनकी वेब सीरीज ‘क्रिमिनल जस्टिस 4’ आने वाली है। दैनिक भास्कर के साथ बातचीत में इन्होंने पीआर इमेज, ओटीटी बनाम थियेटर जैसे मुद्दों पर अपनी राय रखी। इनका मानना है कि दोनों की अपनी पहचान है। हालांकि, ओटीटी थियेटर के मुकाबले ज्यादा डेमोक्रेटिक प्लेटफॉर्म है। पढ़िए इंटरव्यू के प्रमुख अंश… एक्टर का मीडिया के सामने जो एक पीआर इमेज बनाई जाती है, इसका प्रेशर महसूस होता है? सुरवीन- इमेज बनाना उनका काम है। मेरा काम है, मैं जो हूं वो रहूं। बतौर एक्टर मेरा काम होना चाहिए कि मैं जो भी किरदार निभाती हूं उसकी एक इमेज बना सकूं। अगर मैंने ये कर लिया तो मैं सही रास्ते पर हूं। बाकी इसके अलावा इमेज बनाना अपने हाथ में नहीं है। मेरा मानना है कि इमेज के पीछे अपना टाइम बर्बाद करने के बजाए अपने काम पर फोकस करूं। मेरा काम बात करे, मेरी इमेज नहीं। श्वेता- मैं तो सुरवीन की बातों से सहमत हूं। मेरा तो पीआर ही तभी होता है, जब मैं शो या कोई फिल्म प्रमोट कर रही होती हूं। उसी के आसपास मेरे इंटरव्यू आते हैं। बाकी टाइम में गायब रहती हूं। सोशल मीडिया में जब पोस्ट करना होता है, तब एक्टिव होती हूं फिर गायब हो जाती हूं। मेरा फोकस काम पर होता है। जब घर पर होती हूं तो फोकस घर पर और जब दोस्तों के साथ होती हूं तो सारा फोकस उन पर होता है। ये सारे ही मेरे अलग-अलग किरदार हैं, जिन्हें मैं असल जीवन में निभा रही होती हूं। ऐसे में जिसको जो दिखा जाए, उसका वो जो भी मतलब निकाले, मेरे लिए वो ओके है। क्रिमिनल जस्टिस के नए सीजन में फैमिली मैटर मुद्दा है। आप सबके पार्टनर या घरवालों का कितना सहयोग रहता है? पंकज- मृदुला हमेशा सपोर्ट में खड़ी रही हैं। अभिनय काम वैसे भी नाजुक काम है। हम तो किरदारों की नाराजगी लेकर घर चले जाते हैं और अपनी खुशी किरदारों के दे देते हैं। एक्टर एकलौता वर्कर है दुनिया का, जो इमोशनल लेबर करता है। बाकी लोग मेंटल और फिजिकल लेबर करते हैं। जिंदगी में दुख है लेकिन उसी दिन हमें शूटिंग में स्क्रीन पर खुश दिखाना होता है। जिंदगी में खुशी का माहौल होता है, तब कई बार हमें स्क्रीन पर दुख दिखाना होता है। ऐसे में संभव होता है कि आप किरदार का गुस्सा, दर्द घर लेकर चले जाओ। ऐसे में घर में बीवी बच्चे भी समझने लगते हैं कि इनके दिमाग पर अभी किरदार हावी है। हमारे भारतीय समाज में तो फैमिली बहुत मैटर करती है। वेस्टर्न समाज में ये होता है कि बच्चा 18 साल का हुआ तो उसे उसकी जिम्मेदारी दे दी जाती है। मेरी मां टीवी पर मेरी एक्टिंग नहीं देखती है। मैं पतला हूं या मोटा ये देखती है। अगर पतला लगा तो कॉल करेगी कि टीवी पर देखा तुम बहुत पतले लग रहे हो यानी कि ध्यान नहीं रख रहे हो। श्वेता- मेरे लिए मेरा फैमिली बहुत ज्यादा मायने रखती है। फैमिली नब्ज की तरह होती है। अगर परिवार में सब कुछ सही होता है तो आप ठीक से सांस ले पाते हैं। मेरे लिए ये सीजन कोर्ट रूम से परे है। शो देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि कैसे छोटी-छोटी चीजें लीगल केस कैसे बन सकता है। लाइफ में भी छोटी चीजें ही मैटर करती हैं। सिर्फ फैमिली ही एक-दूसरे के बारे में अच्छे से जानती हैं। मुझे लगता है कि फैमिली बहुत मैटर करती है। काम लाइफ का हिस्सा है लेकिन फैमिली हिस्सा नहीं होती। फैमिली वो बेस है, जिसके ऊपर लाइफ की सारी चीजें निर्भर करती हैं। सुरवीन- हाल ही में मैंने बच्चों की एक फिल्म को दो-तीन बार देखी है। उसमें आपके माइंड को हेडक्वार्टर दिखाया गया है। उस हेडक्वार्टर में हर एक किरदार आपका एक-एक इमोशन है। जैसे जॉय, सैडनेस, हैप्पीनेस, एंगर, फ्रस्ट्रेशन है। जैसे एडिटिंग टेबल पर कब कौन सा स्विच ऑन करना होता है, ठीक वैसे ही इन इमोशन के साथ होता है। फिल्म में दिखाया गया है कि हेडक्वार्टर के बेसिस पर दिमाग ने कुछ-कुछ आईलैंड बनाए हुए हैं। छोटी बच्ची कहानी है, ऐसे में स्कूल, दोस्ती, फेवरेट जगह, खुशी, मस्ती के साथ फैमिली का भी आईलैंड होता है। पिक्चर में दिखाया गया है कि कैसे सारे आइलैंड गिरते और टूटते हैं। लेकिन जब फैमिली का आईलैंड टूटता है, तब वो बच्ची भी टूट जाती है। उस बात का जो प्रभाव उस बच्ची पर होता है, मुझे लगता है कि हम सब वो ही बच्ची हैं। हम सबके लिए फैमिली से बढ़कर कुछ नहीं है, जब फैमिली टूटेगी तब हम भी टूटेंगे। मेरे लिए मेरी जिंदगी में फैमिली के मायने यही हैं। आप तीनों ने सिनेमा के सभी मीडियम पर काम किया है। क्या लगता है कि ओटीटी की वजह से सिनेमा का चार्म कम हो रहा है? पंकज- ओटीटी के साथ स्क्रीन की दिक्कत नहीं और 24 घंटे की मौजूदगी है। नई टेक्नोलॉजी है। ग्रोथ के तौर पर भी देखा जाए तो पांच साल में थियेटर की संख्या नहीं बढ़ी है, जिस हिसाब से ओटीटी के सब्सक्रिप्शन बढ़े हैं। एक्सपीरियंस दोनों का अलग है। ओटीटी आप अकेले देखते हैं और थियेटर में कम्यूनिटी के साथ देखने का आनंद है। मेरे ख्याल में दोनों रहेंगे और दोनों की अपनी पहचान है। दोनों की ग्रोथ मुकम्मल है। ओटीटी थोड़ा ज्यादा डेमोक्रेटिक रीच, नंबर्स और नए टैलेंट को मौका देने के मामले में। यहां जितना आसान इन करना है, उतना ही आसान एग्जिट करना भी है। सुरवीन- मुझे नहीं लगता कि ओटीटी की वजह से सिनेमा का चार्म कम हुआ है। हां, ओटीटी पर रिस्ट्रिक्शन फिलहाल कम है, कंटेंट चुनने की आजादी है, क्रिएटिव लिबर्टी थोड़ी ज्यादा है। मेरा मानना है कि इन सारी आजादी की वजह से मेकर्स अपने हिसाब से कहानी को दिखा पाते हैं। बाकी अगर कंटेंट अच्छा हो तो वो कहीं भी चलेगा। कंटेंट की जगह से ज्यादा कंटेंट का अच्छा या बुरा होना मायने रखता है। प्लेटफॉर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं है। श्वेता- कोई भी नई चीज आती है तो लोगों को लगता है कि पुराने को खा जाएगा। हालांकि, ऐसा होता नहीं है। आज कार्गो शिप भी चलती हैं और हवाई जहाज भी चल रहे हैं। आज भी फॉर्मल मैसेज के लिए ईमेल को चुना जाता है और कम्युनिकेशन के लिए बाकी प्लेटफॉर्म भी हैं। अभी के समय में भी थियेटर भी है, यूट्यूब और ओटीटी भी है। कोई किसी के बनाम नहीं है। सब अच्छी कहानियां बताना चाहते हैं,अच्छे लोगों के साथ काम करना चाहते हैं। सिंपल सी बात है कि बिजनेस में हर कोई पैसा भी बनाना चाहता है। हर 15-20 साल बाद एक ऐसा फेज आता है, जब देखा जाता है कि ऑडियंस को क्या पसंद आ रहा है। जेनरेशन बदल रही है, ऐसे में ये वाला फेज हर जेनेरशन और कुछ सालों में आता ही है। मैं सुरवीन की बातों से भी सहमत हूं, अगर स्टोरी दिलचस्प होगी तो लोग टिकट खरीदकर थियेटर जाएंगे। ओटीटी काफी डेमोक्रेटिक प्लेटफॉर्म है। मान लीजिए अगर हमने कोई छोटी बजट की फिल्म बनाई तो उसे थियेटर में सुबह 11 और रात 11 का टाइम स्लॉट मिलेगा। लेकिन जब वो फिल्म ओटीटी पर जाएगी तो वो 24 घंटे बाकी शो के साथ मौजूद रहेगी। ऐसे में ऑडियंस की च्वाइस है कि वो उसे कब देखना चाहती है। ओटीटी पर आपको एग्जीबिटर्स नहीं बता रहे हैं कि आप 11 बजे फिल्म देखो।बॉलीवुड | दैनिक भास्कर

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