सिनेमाघरों के प्रोजेक्शन रूम में पहले फिल्म की भारी-भरकम रील प्रोजेक्टर पर लगाई जाती थीं, जिन्हें हर 15-20 मिनट में बदलना पड़ता था। जरा सी चूक होती, तो फिल्म बीच में रुक जाती या रील जल जाती। कभी सिनेमाघरों में रील समय पर नहीं पहुंचती, तो कभी चोरी हो जाती या खराब निकलती, जिससे ऑडियंस को काफी परेशानी होती थी। लेकिन अब सब बदल चुका है। डिजिटल प्रोजेक्शन ने थिएटर मालिकों और ऑपरेटरों का काम आसान कर दिया है और ऑडियंस के सिनेमा अनुभव को पहले से ज्यादा बेहतर बना दिया। अब फिल्मों को बस एक क्लिक से चलाया जाता है। न रील बदलने की झंझट, न किसी तरह की खराबी का डर। आज ‘रील टु रियल’ के इस एपिसोड में हम समझेंगे कि सिनेमाघरों में यह बदलाव कैसे हुआ? थिएटर मालिकों और प्रोजेक्शनिस्ट पर इसका क्या असर पड़ा और डिजिटल टेक्नोलॉजी ने ऑडियंस के एक्सपीरियंस को किस तरह बदला। इस पूरे प्रोसेस को समझने के लिए हमने गेयटी-गैलेक्सी थिएटर के मालिक मनोज देसाई, प्रोजेक्शनिस्ट पी.ए. सलाम और मोहम्मद असलम, डिस्ट्रीब्यूटर दिलीप धनवानी और डायरेक्टर विवेक शर्मा से बात की। पहले सिनेमाघरों में दो प्रोजेक्टर होते थे पुणे के NFAI (National Film Archive of India) में सालों तक फिल्म प्रोजेक्शनिस्ट रहे पी.ए.सलाम ने बताया- हर फिल्म को दो प्रोजेक्टर से चलाना पड़ता था। जैसे ही पहली रील खत्म होती, दूसरी रील चालू करनी पड़ती थी। ये सब एकदम सही टाइमिंग के साथ करना जरूरी था, वर्ना स्क्रीन पर ब्लैक आउट हो जाता। पूरा प्रोसेस मैनुअल था। यानी हर चीज खुद करनी पड़ती थी। रील बदलना, प्रोजेक्टर सेट करना और यहां तक कि रील को हाथ से रिवाइंड भी करना पड़ता था। प्रोजेक्शन के लिए आर्क लैंप यूज होता था, जो वेल्डिंग रॉड जैसा होता था। इसे लगातार एडजस्ट करना पड़ता था, वरना स्क्रीन पर लाइट कम-ज्यादा हो जाती। प्रोजेक्शनिस्ट को लगातार खड़े रहना पड़ता था, हिल भी नहीं सकते थे। अगर थोड़ा भी ध्यान हटा, तो फिल्म देखने वालों का एक्सपीरियंस खराब हो सकता था। ढाई घंटे की फिल्म के लिए 40 किलो की रील संभालनी पड़ती थी उस समय सिनेमा पूरी तरह 35mm फिल्म रील्स पर निर्भर था। एक फिल्म के लिए 10-15 रील्स लगती थीं। हर रील करीब 15-20 मिनट की होती थी और एक-एक रील का वजन लगभग ढाई किलो होता था। मतलब, ढाई घंटे की फिल्म दिखाने के लिए लगभग 40 किलो की रील्स संभालनी पड़ती थी। प्रोजेक्टर में रील टूट भी जाती थी। कई बार ऐसा होता था कि फिल्म चलते समय प्रोजेक्टर में रील टूट जाती थी। फिल्म तुरंत रोकनी पड़ती थी। फिर उसे जोड़कर आगे चलाया जाता था। ऑडियंस के लिए यह बड़ा इंटरेस्टिंग मोमेंट होता था। कुछ लोग चिल्लाने लगते थे, तो कुछ मजाक करने लगते थे। हम जल्दी से इसे ठीक करके फिल्म फिर से चालू कर देते थे। इस दौरान थोड़ा सा सीन मिस हो जाता था, लेकिन पब्लिक नहीं समझ पाती थी। पब्लिक को पता नहीं चलता था कि रील बदली जा रही है पिछले 55 वर्षों से मुंबई के रीगल सिनेमा में प्रोजेक्शनिस्ट रहे मोहम्मद असलम ने कहा- रील को इतनी सावधानी से बदलना पड़ता था कि पब्लिक को पता नहीं चलता था कि रील बदली जा रही है। उस समय एक शिफ्ट में तीन आदमी काम करते थे। दो आदमी दो अलग-अलग दो प्रोजेक्टर पर खड़े होते थे और तीसरा आदमी रील को हाथ से रिवाइंड करता था। डिजिटल के आने से अभी एक आदमी से ही काम हो जाता है। उस समय प्रोजेक्टर में कॉर्बन यूज करते थे। यह ध्यान रखना पड़ता था कि कॉर्बन बुझने ना पाए, अगर बुझ गया तो फिल्म परदे पर नहीं दिखती थी। उसके बाद लैंप आया, वह नहीं बुझता था और फिल्म परदे पर चलती रहती थी। अभी डिजिटल में पेन ड्राइव में पूरी फिल्म आ जाती है। उसे लोड करके चलाना है, अब पहले जैसी मेहनत नहीं है। डिस्ट्रीब्यूटर के पास से फिल्म का डिब्बा एक दिन पहले ही पहुंच जाता था डिस्ट्रीब्यूटर के पास से एक दिन पहले ही फिल्म के डिब्बे थिएटर में पहुंच जाते थे। अगर बहुत लेट हुआ तो जिस दिन फिल्म रिलीज हो रही है उस दिन सुबह ही आ जाते थे। मुंबई के अलावा दूसरे शहरों में फिल्म के डिब्बे ट्रांसपोर्ट से पहुंचाए जाते थे। ऐसा कम ही होता था कि फिल्म के डिब्बे थिएटर तक सही समय से ना पहुंचे। बहुत ही भरोसे के आदमी को यह काम सौपा जाता था ताकि डिब्बे चोरी ना होने पाएं। अमूमन ट्रांसपोर्टेशन के दौरान कई बार रील्स गुम हो जाती थीं। एक बार भोपाल भेजी गई फिल्म की दो रील गायब हो गईं। फिर हमें तुरंत दूसरी कॉपी मंगानी पड़ी। एक बार प्रोजेक्टर का मोटर जल गया एक बार प्रोजेक्टर का मोटर जल गया। पूरे केबिन में धुआं-धुआं हो गया। उस प्रोजेक्टर से रील निकालकर दूसरे प्रोजेक्टर में लगा दिया। पब्लिक को सिर्फ इतना पता चला कि फिल्म बंद हुई है, लेकिन प्रोजेक्टर का मोटर जल गया। इस बारे में नहीं पता चला। हमारी कोशिश यही रहती थी कि फिल्म हर हालत में चलनी चाहिए। प्रोजेक्टर सीखने में दो महीने का समय लगता था प्रोजेक्टर पर रील को कैसे अपलोड करना है। उस दौरान क्या- क्या सावधानियां बरतनी पड़ती थीं। यह सब सीखने में दो महीने का समय लगता था। डिजिटल के आने के बाद कम्यूटर सीखना पड़ा। फिर लोग 2-4 दिन में ही सीखने लगे कि प्रोग्रामिंग कैसे करनी है। जो कंप्यूटर नहीं सीख पाए उनकी नौकरी चली गई। अभी तो पहले के सारे प्रोजेक्टर भंगार में बिक गए हैं। डिजिटल प्रोजेक्शन आने से क्या बदलाव आया? नया सिस्टम आसान है, लेकिन उस पुराने जमाने की बात ही कुछ और थी। पहले एक फिल्म को दिखाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी, अब बस एक बटन दबाने से फिल्म चल जाती है। पहले हमें पूरे तीन घंटे तक खड़ा रहना पड़ता था, अब तो फिल्म शुरू करके खाना खाने भी जा सकते हैं, लेकिन हां, कुछ लोगों को अब भी 35mm प्रिंट ही पसंद आता है, क्योंकि डिजिटल में वो ओरिजिनल फीलिंग नहीं आती। पुराने जमाने में फिल्म दिखाने का जो रोमांच था, वो अब नहीं रहा। मेहनत भले ही कम हो गई हो, लेकिन उस दौर की बातें और यादें हमेशा दिल के करीब रहेंगी। यह अलग बात है कि अभी पिक्चर और साउंड की क्वालिटी पहले से बहुत अच्छी हो गई है। हर हाल में स्क्रीनिंग पर समय से पहुंचना पड़ता था प्रोजेक्शनिस्ट पी.ए. सलाम अपने करियर की एक घटना का जिक्र करते हुए बताते हैं- एक बार हमें मुंबई के NCPA (नेशनल सेंटर फॉर द परफॉर्मिंग आर्ट्स) में एक फिल्म की स्क्रीनिंग करनी थी। हम फिल्म के प्रिंट लेकर ट्रेन से जा रहे थे, लेकिन बच्चों की हड़ताल के कारण ट्रेन रुक गई। उस वक्त मोबाइल नहीं होते थे, सिर्फ लैंडलाइन था। किसी तरह फोन करके बताया कि हम लेट हो रहे हैं। फिर कुली बुलाकर फिल्म के डिब्बे उठवाए और बस पकड़कर कर्जत पहुंचे। वहां से दादर के लिए टैक्सी ली और किसी तरह स्क्रीनिंग के समय पर पहुंचे। वो दिन बहुत टेंशन भरा था। शाहरुख की फिल्म के ट्रायल में प्रोजेक्शनिस्ट ने लगा दी गलत रील डायरेक्टर विवेक शर्मा ने शाहरुख खान की फिल्म ‘चाहत’ से जुड़ा एक किस्सा शेयर किया। उन्होंने कहा- प्रोजेक्शनिस्ट को अपने काम में बहुत महारत हासिल होती थी। उन्हें पता होता था कि पहले रील खत्म होने से पहले दूसरी रील प्रोजेक्टर पर कब लगानी है, लेकिन कभी-कभी गलतियां भी हो जाती थीं। जब ‘चाहत’ फिल्म का ट्रायल चल रहा था तब प्रोजेक्शनिस्ट ने गलत रील लगा दी। उसे दूसरी रील के बाद तीसरी रील लगानी थी, लेकिन गलती से चौथी रील लगा दी। उस समय मैं महेश भट्ट को असिस्ट कर रहा था। भट्ट साहब सभी असिस्टेंट पर भड़क गए, लेकिन प्रोजेक्शनिस्ट ने प्रोजेक्शन रूम से उतर कर माफी मांगी और बताया कि गलती उसकी थी। लोकल डिस्ट्रीब्यूटर फिल्म के सीन काट देते थे प्रिंट बहुत महंगे बनते थे इसलिए 100-150 प्रिंट के साथ फिल्में रिलीज होती थीं। बड़े स्टार की फिल्में 200 प्रिंट के साथ रिलीज होती थीं। पहले बड़े शहरों में थिएटर में फिल्म रिलीज होती थी, उसके एक-दो महीने के बाद छोटे शहरों में रिलीज होती थी। उस समय लोकल डिस्ट्रीब्यूटर अपने हिसाब से फिल्म काट भी देते थे। अगर डिस्ट्रीब्यूटर को किसी फिल्म में गाने की जरूरत नहीं महसूस होती थी तो गाने हटा भी देते थे। अगर फिल्म लंबी लग रही, तो बीच के सीन काट देते थे। यह सारी चीजें अब डिजिटल में नहीं कर सकते हैं, क्योंकि पूरी DCP (डिजिटल सिनेमा पैकेज) बनती है और वह पासवर्ड प्रोटेक्टेड होती है। आज एक साथ हजारों स्क्रीन पर फिल्म रिलीज हो सकती है। फिल्म ‘शोले’ पहले चार प्रिंट के साथ रिलीज हुई थी डिस्ट्रीब्यूटर दिलीप धनवानी ने फिल्म ‘शोले’ से जुड़ा एक किस्सा शेयर किया। उन्होंने कहा- जब ‘शोले’ 15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई थी, तब सिर्फ चार प्रिंट बनाए गए थे। एक दिल्ली, एक यूपी और दो मुंबई के लिए। उस समय एक ही 70mm के प्रिंट को दिल्ली के दो अलग-अलग थिएटर में अलग-अलग शो टाइमिंग के हिसाब से चलाया जाता था। थिएटरों के बीच इन प्रिंट्स को फिजिकल ट्रांसपोर्ट के जरिए पहुंचाया जाता था। मुंबई में भी यही स्थिति थी। एक ही प्रिंट को बाइक पर रखकर अलग-अलग सिनेमाघरों के बीच शिफ्ट करते थे। शान सिनेमा (विले पार्ले) से चंदन (जुहू), मिनर्वा से मेट्रो और इरॉस थिएटर से सेंट्रल प्लाजा के बीच भागदौड़ मची रहती थी। यह काम काफी जोखिम भरा था, क्योंकि जरा सी देरी का मतलब होता था शो रुकना और थिएटर में ऑडियंस का हंगामा। अब प्रोजेक्शन रूम का पूरा सिस्टम बदल गया है मुंबई के गेयटी-गैलेक्सी सिनेमाहाल के मालिक मनोज देसाई ने भी रील से डिजिटल के बदलाव के बारे में बात की। उन्होंने कहा- पहले के प्रोजेक्टर में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी, उसमें फायदे कम और नुकसान ज्यादा थे। अब तो वो प्रोजेक्टर चलते भी नहीं, क्योंकि जो नई तकनीक आई है, वो सीधे डिजिटल फॉर्म में आती है। पहले साउंड और वीडियो अलग-अलग आते थे, लेकिन अब सैटेलाइट के जरिए सीधे डिजिटल फॉर्मेट में मिल जाता है। प्रोजेक्शन रूम का पूरा सिस्टम बदल गया है। पहले फिल्म को सही से प्रोजेक्ट करने के लिए कई तरह की सेटिंग्स करनी पड़ती थीं, साउंड को एडजस्ट करना पड़ता था। अब लेटेस्ट साउंड सिस्टम पूरी तरह ऑटोमेटिक हो गया है, पहले की तरह ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ती। ___________________________________________________________________ रील टु रियल की ये स्टोरी भी पढ़ें.. सेट्स पर कितनी जरूरी है सेफ्टी और सस्टेनेबिलिटी:शूटिंग के दौरान आग की लपटों से घिर गए थे शाहरुख, ट्रेन की चपेट में आने से बचे सलमान पहले सेट्स पर सेफ्टी के लिए ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था, लेकिन अब इंडस्ट्री प्रोफेशनल कंपनियों की हेल्प से इंटरनेशनल सेफ्टी स्टैंडर्ड्स फॉलो करने लगी है। पूरी स्टोरी पढ़ें..बॉलीवुड | दैनिक भास्कर
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