March 22, 2025
बिहार दिवस के मायने : कितना बदला बिहार, कितने बदले बिहारी?

बिहार दिवस के मायने : कितना बदला बिहार, कितने बदले बिहारी?​

बिहार बदला है, पर जितना बदलना चाहिए था, उतना नहीं. बिहारी भी बदले हैं, पर उसकी तकदीर नहीं बदली. सड़कें बनीं, पर नौकरियां नहीं. बिजली आई, पर उद्योग नहीं. बिहार दिवस के मौके पर सरकार अपनी तारीफ करती है. लेकिन कब तक हम बिहार दिवस सिर्फ उत्सव की तरह मनाते रहेंगे?

बिहार बदला है, पर जितना बदलना चाहिए था, उतना नहीं. बिहारी भी बदले हैं, पर उसकी तकदीर नहीं बदली. सड़कें बनीं, पर नौकरियां नहीं. बिजली आई, पर उद्योग नहीं. बिहार दिवस के मौके पर सरकार अपनी तारीफ करती है. लेकिन कब तक हम बिहार दिवस सिर्फ उत्सव की तरह मनाते रहेंगे?

कभी-कभी मन में एक सवाल उठता है हमारी पहचान क्या है? क्या वो मिट्टी, वो गंगा का किनारा, वो खेतों की हरियाली, वो मिथिला की संस्कृति? नहीं! दुनिया के लिए बिहार की पहचान कुछ और है. एक ठप्पा, एक लेबल, एक स्टीरियोटाइप ‘बिहारी’और उस शब्द के साथ जुड़ जाता है ढेर सारा तंज, ढेर सारी हंसी, और न जाने कितने पूर्वाग्रह. अरे, बिहार से हो? लगते तो नहीं! एक बार फिर बिहार दिवस आ गया है. बिहार दिवस की शान में कई कार्यक्रम होंगे लेकिन सवाल आज भी वही जिंदा है कितना बदला बिहार, कितने बदले बिहारी?

कभी सोचा है कि मिट्टी में इतना दम कहां से आता है कि वह सभ्यताओं को जन्म दे, ज्ञान की ज्योति जला सके और इतिहास के पन्नों को सुनहरे अक्षरों से भर दे? बिहार की मिट्टी ऐसी ही है. गंगा की गोद में बसी, मगध की शान से सजी, मिथिला की कला से रंगी और बुद्ध की शांति से पुनीत. हर साल 22 मार्च को जब बिहार दिवस आता है, तो यह सिर्फ एक तारीख नहीं होता. यह उस धड़कन का उत्सव होता है जो बिहार के कण-कण में बसती है. लेकिन इसके साथ एक सवाल भी उठता है, जो सीने में चुभता है. कितना बदला बिहार? कितने बदले बिहारी?

22 मार्च 1912 को बिहार को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग कर एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया था. तब से हर साल 22 मार्च को बिहार दिवस के रूप में मनाया जाता है. लेकिन सवाल यह है कि क्या बिहार विकास की दौड़ में देश के अन्य राज्यों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल पा रहा है?

कितना विकास किसका विकास?
बिहार का विकास एक पहेली की तरह है. एक ओर, पिछले दो दशकों में सड़कों का जाल बिछा है, बिजली गांव-गांव तक पहुंची है, और साक्षरता दर में उल्लेखनीय सुधार हुआ है. 2001 में जहां यह 47% थी, वहीं 2021 तक यह 79.7% तक पहुंच गई. बिहार की अर्थव्यवस्था भी तेजी से बढ़ रही है. 2022-23 में इसकी विकास दर 10.43% रही, जो राष्ट्रीय औसत 7.2% से कहीं अधिक है. लेकिन बिहार की जरूरत अब रोटी कपड़ा और आवास से आगे की है.

महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्य औद्योगिक विकास और शहरीकरण में बिहार से मीलों आगे हैं. जहां इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय 2 लाख रुपये से ऊपर है, वहीं बिहार में यह अभी भी लगभग 66,828 रुपये सालाना है. गरीबी का आलम यह है कि राष्ट्रीय औसत 21.9% के मुकाबले बिहार में 33.7% लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. यह अंतर सिर्फ आंकड़ों का नहीं, बल्कि उस सपने का भी है जिसकी तलाश में बिहार के लोग हजारों किलोमीटर दूर जाकर मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं.

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सदियों की भूख और बेकारी क्या इक दिन में जाएगी?
बिहार का पिछड़ापन एक रात की कहानी नहीं, बल्कि सदियों की उपेक्षा और गलत नीतियों का परिणाम है. औपनिवेशिक काल में जमींदारी व्यवस्था ने यहां की अर्थव्यवस्था को तोड़ दिया. आजादी के बाद भी बिहार को वह ध्यान नहीं मिला, जो उसे मिलना चाहिए था. 2000 में झारखंड के अलग होने से बिहार ने अपनी खनिज संपदा और औद्योगिक आधार खो दिया. इसके बाद भ्रष्टाचार, राजनीतिक अस्थिरता और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में निवेश की कमी ने बिहार को और पीछे धकेल दिया.

बिहार में एक कहावत है, ‘जब ले ऊंच होइए, तब ले नीच देखिए’ (जब ऊंचाई पर पहुंचो, तभी नीचे की गहराई समझ आती है.) बिहार की ऊंचाई उसके अतीत में थी, लेकिन आज वह नीचे की गहराई में खड़ा है. फिर भी, यह गिरावट स्थायी नहीं है; यह एक चुनौती है, जिसे जज्बे से पार किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए समय सीमा क्या है?

बिहार में क्यों नहीं लग रहे हैं बड़े उद्योग
बिहार में बड़े उद्योगों की कमी का कारण उसकी भौगोलिक और नीतिगत सीमाएं हैं. यहां समुद्र तट नहीं है, जिससे निर्यात-आयात महंगा पड़ता है. झारखंड के अलग होने से खनिज संसाधन चले गए, और बचे हुए संसाधनों का सही उपयोग नहीं हो पाया. बुनियादी ढांचे की कमी, बिजली की अनियमित आपूर्ति (हालांकि अब सुधार हुआ है), और निवेशकों का भरोसा न होना भी बड़े कारण हैं.

फिर भी, यह असंभव नहीं है. अगर बिहार अपनी औद्योगिक नीति को निवेशक-अनुकूल बनाए, तो बड़े उद्योग यहां आ सकते हैं. लेकिन इसके लिए जमीन अधिग्रहण, कर छूट और बुनियादी सुविधाओं पर काम करना होगा. बिहार के ग्रामीण इलाकों में जमीन की कीमत दिल्ली एनसीआर के जमीन की कीमत को टक्कर देती है. पटना के किसी इलाके में फ्लैट खरीदना नोएडा में फ्लैट खरीदने से महंगा साबित होता है.

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घर छोड़ना किसके लिए आसान होता है?
बिहार में बेरोजगारी एक ऐसी सच्चाई है, जो हर बिहारी के सीने में चुभती है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) के अनुसार, मार्च 2025 तक बिहार की बेरोजगारी दर 13.5% के आसपास है, जो राष्ट्रीय औसत 7.8% से लगभग दोगुनी है. ग्रामीण क्षेत्रों में यह स्थिति और भी भयावह है, जहां युवाओं के पास खेतों के अलावा कोई रोजगार नहीं. हर साल लाखों बिहारी मजदूरी और बेहतर अवसरों की तलाश में दिल्ली, मुंबई और पंजाब जैसे राज्यों की ओर पलायन करते हैं. ये आंकड़े सिर्फ संख्याएं नहीं, बल्कि उन माओं की आंखों के आंसू हैं, जो अपने बेटों को ट्रेन में चढ़ते देखती हैं, और उन युवाओं की बेचैनी हैं, जो अपने गांव में सम्मान की जिंदगी चाहते हैं.

बिहार का इतिहास गौरवशाली नहीं, बल्कि विश्व इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है. यह वह धरती है, जहां चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक ने मौर्य साम्राज्य की नींव रखी, जिसने भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाया. नालंदा विश्वविद्यालय, जो 5वीं से 12वीं शताब्दी तक ज्ञान का केंद्र था, दुनिया भर से विद्वानों को आकर्षित करता था. बोधगया में बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई, और वैशाली में लोकतंत्र की पहली नींव पड़ी. यह गर्व की बात है कि सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह का जन्म भी पटना में हुआ. लेकिन यह गौरव सिर्फ किताबों में सिमट कर रह गया है. आज जब हम बिहार को देखते हैं, तो वह अतीत की छाया में खड़ा दिखता है, जहां उसकी चमक धुंधली पड़ गई है.

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बिहार का नाम सुनते ही लोगों के दिमाग में क्या आता है? गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी. टीवी पर दिखते हैं कुछ चेहरे, कुछ खबरें, और बस उसी से बन जाती है हमारी तस्वीर. कोई नहीं पूछता कि उस गरीबी के पीछे क्या वजह है. वजह क्या है यह शायद सरकारों को भी नहीं मालूम है. बदलाव का रास्ता क्या है इसका रोडमैप शायद नहीं है. बिहार बदला है, पर जितना बदलना चाहिए था, उतना नहीं. बिहारी भी बदला है, पर उसकी तकदीर नहीं बदली. सड़कें बनीं, पर नौकरियां नहीं. बिजली आई, पर उद्योग नहीं बिहार दिवस के मौके पर सरकार अपनी तारीफ करती है. लेकिन कब तक हम बिहार दिवस सिर्फ उत्सव की तरह मनाते रहेंगे?

(सचिन झा शेखर NDTV में कार्यरत हैं. राजनीति और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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