November 24, 2024
अमेरिका में कैसे चुना जाता है नया राष्ट्रपति, क्या है 'इलेक्टोरल कॉलेज' सिस्टम, आसान भाषा में समझिए

अमेरिका में कैसे चुना जाता है नया राष्ट्रपति, क्या है ‘इलेक्टोरल कॉलेज’ सिस्टम, आसान भाषा में समझिए​

इस बार सीधे टक्कर पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप और उप राष्ट्रपति कमला हैरिस के बीच है. बेशक, अमेरिका एक लोकतांत्रिक देश है और वहां की जनता राष्ट्रपति को मतदान के जरिए चुनती है, मगर भारत की तरह यहां मामला नहीं है. अगर आप सोचते हैं कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव लोगों द्वारा सीधी वोटिंग के जरिए होता है तो ऐसा नहीं है.

इस बार सीधे टक्कर पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप और उप राष्ट्रपति कमला हैरिस के बीच है. बेशक, अमेरिका एक लोकतांत्रिक देश है और वहां की जनता राष्ट्रपति को मतदान के जरिए चुनती है, मगर भारत की तरह यहां मामला नहीं है. अगर आप सोचते हैं कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव लोगों द्वारा सीधी वोटिंग के जरिए होता है तो ऐसा नहीं है.

पूरी दुनिया की निगाह अमेरिका में 5 नवंबर को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव पर टिकी है. वजह ये है कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा है. इस बार सीधे टक्कर पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप और उप राष्ट्रपति कमला हैरिस के बीच है. बेशक, अमेरिका एक लोकतांत्रिक देश है और वहां की जनता राष्ट्रपति को मतदान के जरिए चुनती है, मगर भारत की तरह यहां मामला नहीं है. अगर आप सोचते हैं कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव लोगों द्वारा सीधी वोटिंग के जरिए होता है तो ऐसा नहीं है.

2016 में, हिलेरी क्लिंटन ने अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप से करीब 28,00,000 अधिक डायरेक्ट पापुलर वोट हासिल किए थे लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 2000 में, जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अल गोर को हराया. हालांकि डेमोक्रेटिक उम्मीदवार गोर ने पांच लाख से अधिक मतों से पापुलर वोट जीता था.

ऐसा इलेक्टोरल कॉलेज की वजह से हुआ था – यह यूएस प्रेसिडेंट चुनाव की एक अनूठी प्रणाली है जिसकी वजह से नतीजे सीधे पापुलर वोट से तय नहीं होते हैं.पापुलर वोट देश भर के नागरिकों द्वारा डाले गए व्यक्तिगत वोटों की कुल संख्या को कहते हैं. यह लोगों की प्रत्यक्ष पसंद को दर्शाता है, जहां हर वोट को समान रूप से गिना जाता है. अब बात करते हैं इलेक्टोरल कॉलेज की.5 नवंबर को अमेरिकी वोटर्स डेमोक्रेट कमला हैरिस या रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप के लिए वोट करेंगे. लेकिन वे वोट सीधे तौर पर यह निर्धारित नहीं करेंगे की कौन जीतेगा.अमेरिकी जब वोट देते हैं, तो वे वास्तव में उन इलेक्टर के ग्रुप के लिए वोट कर रहे होते हैं जो उनकी पसंद का प्रतिनिधित्व करेंगे. ये इलेक्टर फिर अपने राज्य के भीतर लोकप्रिय वोट के आधार पर राष्ट्रपति के लिए वोट करते हैं. दरअसल यूएस प्रेसिडेंशियल चुनाव राष्ट्रीय मुकाबले की जगह पर राज्य-दर-राज्य मुकाबला है.50 राज्यों में से किसी एक में जीत का मतलब है कि उम्मीदवार को सभी तथाकथित इलेक्टोरल कॉलेज वोट मिल गए. कुल 538 इलेक्टोरल कॉलेज वोट हैं.राष्ट्रपति पद जीतने के लिए उम्मीदवार को बहुमत – 270 या उससे ज़्यादा – हासिल करने की ज़रूरत होती है. उनका साथी उप-राष्ट्रपति बनता है. यही वजह है कि किसी उम्मीदवार के लिए पूरे देश में कम वोट हासिल होने पर भी राष्ट्रपति बनना संभव है, अगर वहु इलेक्टोरल कॉलेज बहुमत हासिल कर ले.प्रत्येक राज्य को एक निश्चित संख्या में इलेक्टर मिलते हैं. इलेक्टर यानी वो लोग जो इलेक्टोरल कॉलेज में वोट करते हैं. प्रत्येक राज्य में इलेक्टर संख्या, मोटे तौर पर उसकी जनसंख्या के आधार के अनुरूप होती है.

आसान भाषा में समझिए

उदाहरण के लिए, सबसे अधिक आबादी वाले राज्य कैलिफोर्निया में 55 इलेक्टोरल वोट हैं, जबकि व्योमिंग जैसे छोटे राज्य में केवल 3 हैं.

अगर कोई उम्मीदवार किसी राज्य में पापुरल वोट जीतता है, तो उसे आमतौर पर सभी इलेक्टोरल वोट भी मिल जाते हैं. उदाहरण के लिए, 2020 में, जो बाइडेन ने कैलिफोर्निया जीता, इसलिए कैलिफोर्निया के सभी 55 इलेक्टोरल वोट उनके खाते में गए.हालांकि हर बार ऐसा नहीं होता. यदि कोई इलेक्टर अपने राज्य के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के खिलाफ वोट करता है, तो उसे ‘विश्वासघाती या फेथलेस’ कहा जाता है. कुछ राज्यों में, ‘फेथलेस इलेक्टर’ पर जुर्माना लगाया जा सकता है या उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है.अगर कोई भी उम्मीदवार बहुमत हासिल नहीं कर पाता तो हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव, अमेरिकी सांसद का निचला सदन, राष्ट्रपति का चुनाव करने के लिए वोट करता है.ऐसा सिर्फ़ एक बार हुआ है, 1824 में, जब चार उम्मीदवारों में इलेक्टोरल कॉलेज वोट बंट गए जिससे उनमें से किसी एक को भी बहुमत नहीं मिल पाया था.रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों के मौजूदा प्रभुत्व को देखते हुए, आज ऐसा होने की संभावना बहुत कम है.

इलेक्टोरल कॉलेज सिस्टम अमेरिकी चुनाव की सबसे विवादास्पद व्यवस्था है. हालांकि इसके समर्थक इसके कुछ फायदे गिनाते हैं जैसे छोटे राज्य उम्मीदवारों के लिए महत्वपूर्ण बने रहते हैं, उम्मीदवारों को पूरे देश की यात्रा करने की ज़रूरत नहीं होती है, और प्रमुख राज्यों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं आदि.

जबकि इलेक्टोरल कॉलेज सिस्टम के विरोधी तर्क देते हैं कि इस व्यवस्था के तहत लोकप्रिय वोट जीतने वाला चुनाव हार सकता है, कुछ मतदाताओं को लगता है कि उनके व्यक्तिगत वोट का कोई महत्व नहीं है. बहुत ज़्यादा शक्ति तथाकथित ‘स्विंग स्टेट्स’ में रहती है. स्विंग स्टेट उन राज्यों को कहा जाता है जहां चुनाव किसी भी पक्ष में जा सकता है. प्रेसिडेंशियल इलेक्शन में पूरा जोर इन्हीं ‘स्विंग स्टेट्स’ पर होता है.

अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मंगलवार यानी 5 नवंबर को वोटिंग होनी है. अमेरिका के अलग-अलग राज्यों में वहां के स्थानीय समय के मुताबिक, सुबह 6 बजे से रात 8 बजे तक वोटिंग होगी. भारत जैसे बड़े देशों के लिए अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव बहुत मायने रखता है. सवाल ये है कि डोनाल्ड ट्रंप या कमला हैरिस… किसके जीतने में भारत का ज्यादा हित है.

आइए समझते हैं अमेरिकी चुनाव 2024 में डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस में किसके जीतने की ज्यादा संभावना है? अगर ट्रंप जीते तो भारत को क्या नफा-नुकसान हो सकता है? अगर कमला हैरिस जीतीं, तो भारत पर क्या फर्क पड़ सकता है. आखिर दोनों में से भारत के लिए बेहतर कौन है:-

भारत के चुनावों की तरह अमेरिका में भी राष्ट्रपति पद के चुनाव के कई रंग देखने को मिलते हैं. भारत में रंग कई तरह के हो सकते हैं, लेकिन अमेरिका में लाल और नीला रंग सबसे ज़्यादा छाया रहता है. लाल रंग रिपब्लिकन पार्टी के लिए इस्तेमाल होता है. डोनाल्ड ट्रंप इसी पार्टी से कैंडिडेट हैं. नीला रंग डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए इस्तेमाल होता है. कमला हैरिस इस पार्टी से चुनाव लड़ रही हैं.

भारत के लिए कमला हैरिस की जीत के मायने?

कमला हैरिस भारतीय मूल की हैं. उनकी मां श्यामला गोपालन तमिलनाडु की हैं और पिता जमैका के रहने वाले हैं. अमेरिका में उनके माता-पिता की मुलाकात हुई. जिसके बाद उनकी शादी हो गई. बाद में दोनों ने तलाक ले लिया. कमला हैरिस कई बार अपनी मां के साथ चेन्नई में नाना के घर जा चुकी हैं. ऐसे में सवाल ये है कि क्या कमला को भारत पसंद है?

कश्मीर को लेकर रुख स्पष्ट नहीं

कमला हैरिस के हालिया बयानों और पिछले मुद्दों पर उनके रुख को देखते हुए यह कहना मुश्किल होगा कि वह वास्तव में भारत में समर्थक हैं या नहीं. दरअसल, भारत ने अगस्त 2019 में जब जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले आर्टिकल 370 को निरस्त किया, तो हैरिस ने इसके खिलाफ बयान दिया था. कमला हैरिस ने कहा था, “हमें कश्मीरियों को याद दिलाना होगा कि वे दुनिया में अकेले नहीं हैं. हम इस स्थिति पर नजर रख रहे हैं. अगर स्थिति की मांग होती है, तो हमें दखल देने की जरूरत है.”

भारत के मुद्दों पर चुप ही रही हैं कमला हैरिस

दूसरी ओर, बतौर अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस भारत के मुद्दों पर कमोबेश चुप ही रही हैं. PM मोदी जब अमेरिका के स्टेट विजिट पर गए थे, तब उनकी कमला हैरिस के साथ भी मुलाकात हुई थी. लेकिन मुलाकात की तस्वीरों में दोनों के बीच कोई केमेस्ट्री नहीं देखने को मिली थी. वहीं, बाइडेन प्रशासन ने भारत के कई घरेलू मुद्दे पर बयानबाजी की है. अल्पसंख्यकों और मानवाधिकारों के मुद्दे पर वहां के मंत्रियों ने भारत में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर सवाल भी उठाए हैं.

चीन को लेकर सॉफ्ट रवैया रखते हैं टिम वॉल्ज

एक्सपर्ट ने कहा, “कमला हैरिस का राष्ट्रपति बनना भारत के लिए समस्या खड़ी कर सकता है, क्योंकि उनके उपराष्ट्रपति उम्मीदवार टिम वॉल्ज के चीन के साथ संबंध हैं. हालांकि, इमीग्रेशन के मामलों पर कमला हैरिस का जीतना भारत के हित में होगा. कमला हैरिस H-1B जैसे स्किल्ड वर्कर वीजा का एक्सटेंशन करने के पक्ष में हैं. इससे भारत के आईटी क्षेत्र में फायदा होगा. बता दें कि अमेरिका में डेमोक्रेटिक सरकारें H-1B वीजा के लिए बेहतर रही हैं.”

रिन्यूएबल एनर्जी को बढ़ावा देने के पक्ष में हैं हैरिस

हैरिस ऊर्जा के गैर परंपरागत स्रोतों यानी रिन्यूएबल एनर्जी को बढ़ावा देने के पक्ष में हैं, जिसके लिए भारत ने भी एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है. भारत को उम्मीद है कि इस दिशा में उसे अमेरिका से अत्याधुनिक तकनीक मिल सकती है. अगर कारोबारी लिहाज़ से देखें, तो कमला हैरिस की जीत से भारतीय बाज़ार में मोटे तौर पर स्थिरता बने रहने की उम्मीद है.

हालांकि, अभी नहीं कहा जा सकता कि कमला हैरिस पूरी तरह बाइडेन की राह पर चलेंगी. वो एक इंटरव्यू में कह भी चुकी हैं कि उनका दौर बाइडेन से अलग होगा. ये दौर उनके अपने निजी और पेशेवर अनुभवों पर आधारित होगा.

डोनाल्ड ट्रंप जीतते हैं, तो भारत को क्या होगा फायदा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप के रिश्ते काफी गर्मजोशी भरे रहे हैं. ट्रंप के दौर में प्रधानमंत्री मोदी की उनसे जितनी मुलाकात हुई, वो जोश से भरी रही. चाहे वो अमेरिका में हुई हों या फिर भारत में… ट्रंप कई बार प्रधानमंत्री मोदी की सार्वजनिक तौर पर तारीफ कर चुके हैं और उन्हें अपना अच्छा दोस्त बता चुके हैं. उधर, 2020 के अमेरिकी चुनावों से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने स्लोगन दिया था ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’. ये अलग बात है कि ट्रंप वो चुनाव हार गए, लेकिन दोनों नेताओं की दोस्ती बनी रही. अब देखना है कि ये दोस्ती क्या भारत के लिए भी मुफीद साबित होगी.

आईटी कंपनियों के लिए खुलेंगे नए रास्ते

व्यापार के लिहाज से देखें, तो डोनाल्ड ट्रंप अगर चुनाव जीतते हैं, तो भारतीय मंझोली आईटी कंपनियों के लिए नए रास्ते खुल सकते हैं. खासतौर पर अगर ट्रंप व्यापार के मामले में चीन के Most Favored Nation का दर्जा खत्म कर दें. ट्रंप व्यापार के मामले में चीन के साथ सख्त नीतियों के हिमायती रहते हैं. वो चीन पर अमेरिका की आर्थिक निर्भरता को कम करेंगे, जिसका सीधा फायदा भारत को होगा. अमेरिका की और कंपनियां भारत का रुख करेंगी.

भारत के अंदरूनी मामलों में कम होगा दखल

कई जानकार मानते हैं कि जो बाइडेन के दौर के मुकाबले ट्रंप के दौर में भारत के अंदरूनी मामलों में दखल कम रहेगा. बाइडेन सरकार में हमने देखा था कि भ्रष्टाचार के आरोप में अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर अमेरिका के विदेश विभाग ने टिप्पणी की थी. भारत ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था. ट्रंप के दौर में ऐसा होने की संभावना काफी कम दिखती है.

टैरिफ के मामले में भारत की आलोचना करते रहे हैं ट्रंप

कुछ जानकार मानते हैं कि इस मामले में इतनी उम्मीद भी ठीक नहीं है. ट्रंप टैरिफ के मामले में कई बार भारत की आलोचना कर चुके हैं. मई 2019 में वो भारत को टैरिफ किंग बता चुके हैं. उन्होंने कहा है कि भारत अमेरिकी कंपनियों को अपने मार्केट में उचित पहुंच नहीं देता. इस सिलसिले में कई बार वो हार्ले डेविडसन का हवाला दे चुके हैं. राष्ट्रपति रहते उन्होंने भारतीय स्टील और एल्युमिनियम प्रोडक्ट पर इंपोर्ट ड्यूटी भी बढ़ा दिया था.

ब्लैक कम्युनिटी की चुनाव में बड़ी भूमिका

अमेरिका की ब्लैक कम्युनिटी व्हाइट हाउस के सबसे अहम चुनाव में बड़ी भूमिका निभा सकती है. ऐसे में चर्चा इस बात को लेकर भी हो रही है कि अमेरिका की ब्लैक कम्युनिटी कमला हैरिस पर दांव लगाती है या ट्रंप के साथ खड़ी होती है? अमेरिका के इन चुनावों में करीब 24 करोड़ 40 लाख मतदाता हैं. खास बात ये है कि करीब एक-तिहाई से कुछ कम यानी 7 करोड़ 40 लाख मतदाता अर्ली या एडवांस वोटिंग के तहत पहले ही मतदान कर चुके हैं. 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिका के मतदाताओं में से दो-तिहाई ने ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था. इस बार एक-तिहाई मतदाता अर्ली वोटिंग में ही अपने वोट डाल चुके हैं.

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