लापता लेडीज, गांव की पृष्ठभूमि पर बनी ऐसी फिल्म जिसने समाज के ताने-बाने को एक बार फिर से उजागर कर दिया. डायलॉग तो बेहतरीन थे ही, कलाकारों ने भी शानदार अभिनय कर फिल्म में जान फूंक दी. अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से फिल्म को ऑस्कर में भेजने का फैसला लिया गया है.
किरण राव ने साल 2010 में फ़िल्म धोबी घाट का निर्देशन किया था, तब उनके काम को काफी तारीफ मिली थी. लेकिन शायद ही किसी ने सोचा हो कि तेरह साल बाद वह एक ऐसी फिल्म बना देंगी, जिसका हर एक दृश्य जरूरी लगता हो. लापता लेडीज़ को भारत की ओर से ऑस्कर में भेजने की घोषणा की गई है, नेटफ्लिक्स पर यह फ़िल्म काफी लोकप्रिय हो रही है. फ़िल्म में शानदार संवादों के साथ सटीक हावभावों को दिखाया गया है.
हिंदी फिल्म में हमने अक्सर देखा है कि बड़े सितारों के आने पर ही सीटियां बजती हैं, लेकिन इस फिल्म की शुरुआत में निर्देशक ने जिस तरीके से नए सितारों का चयन कर उन्हें पेश किया है, वही इस फिल्म को खास बनाता है और वहीं से पता चल जाता है कि यह फिल्म निर्देशक के एंगल से बनाई गई एक बेहतरीन फिल्म होगी. लड़की की बैचैन और डरी हुई आंखों को दिखाते उसके चेहरे को घूंघट से ढक दिया जाता है, वहीं दर्शक समझ जाते हैं कि यह फ़िल्म महिलाओं की स्वतंत्रता से जुड़े विषय पर होगी.
बिप्लब गोस्वामी की लिखी कहानी और स्नेहा देसाई की लिखी स्क्रिप्ट शानदार
फ़िल्म की कहानी एक नए शादीशुदा जोड़े से शुरू होती है, जो ट्रेन में एक दूसरे से अलग हो जाते हैं. इसके बाद एक छूट गई दुल्हन के साथ फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ती है और इसी के साथ शुरू हुए घटनाक्रमों में भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को दिखाया गया है. साथ ही भारतीय पुलिस की कार्यशैली और राजनीति में आम आदमी के साथ होने वाले खेल पर निर्देशक ने दर्शकों की आंखे खोली हैं.
कहने को तो फ़िल्म ग्रामीण भारत की महिलाओं के ऊपर समाज और खुद उनके द्वारा लगाई गई बंदिशों को फिल्माया गया है. पर आधुनिक भारत भी उन सब से अछूता नहीं है, क्योंकि उसकी जड़ें भी गांव में ही हैं. स्नेहा देसाई न होतीं तो इतनी शानदार कहानी पर शायद कभी इतनी अच्छी फ़िल्म न बन पाती. उन्होंने इसकी स्क्रिप्ट को शानदार तरीके से पूरा किया है, अब्दुल का अब्दुल नाम पड़ने की कहानी और मंजू माई का मिठाई खिलाना इसका उदाहरण हैं. स्क्रिप्ट पर शानदार काम हमें तब भी दिखता है जब दो अलग धर्मों में बड़े ही रचनात्मक ढंग से चेहरा ढक लेने को पहचान ढक लेने से जोड़ा गया है.
पात्रों का चयन बिल्कुल सोच समझकर
भ्रष्ट पर दिल से भले बने पुलिस अधिकारी के रूप में रवि किशन ने बेहतरीन अभिनय किया है और शायद उनसे अच्छा इस किरदार पर कोई फिट भी नहीं बैठ सकता है. फूल सी भोली भाली लड़की, फूल बनी नितांशी गोयल गांव से पहली बार बाहर आकर खोई हुई लड़की के किरदार में फिट बैठी हैं और फ़िल्म आगे बढ़ते ही जिस तरह उनका किरदार निखरता रहता है, वह उसमें जमती रही.
फूल को पूरी फिल्म में तलाशते रहने वाले दीपक बने स्पर्श श्रीवास्तव में भविष्य के लिए काफी संभावना दिखी हैं और कहीं कहीं पर उन्होंने जबरदस्त अभिनय किया है. फूल का सहारा बनी मंजू माई के किरदार में दिखी छाया कदम एक अकेली आत्मनिर्भर महिला के रूप में बिल्कुल फिट लगती हैं.
दीपक की मां यशोदा बनी गीता अग्रवाल शर्मा ने अपनी जगह सिर्फ यह कहते ही सही साबित की है कि ‘दिक्कत तो ई है कि हमको अब उ भी याद नहीं कि हमको का पसन्द है.’ प्रतिभा रांटा को देखकर कहा जा सकता है कि वह फ़िल्म की खोज हैं, उनके किरदार ने दर्शकों को अपने गुपचुप कार्यों के चलते सोचने पर मजबूर रखा है. स्क्रीन पर वह बड़ी खूबसूरत भी लगती हैं.
फ़िल्म के संवाद जो दिला सकते हैं इसे ऑस्कर
निर्देशक को स्नेहा देसाई ने ‘थाने में समस्या बताओ, हैसियत नहीं’ जैसे कई शानदार संवाद दिए हैं, जिनका फ़िल्म में बखूबी इस्तेमाल किया गया है. संवादों के साथ कलाकारों द्वारा किए गए इशारों, हावभावों को देखते दर्शक भी फ़िल्म के हर दृश्य से खुद को जुड़ा महसूस करते हैं.
फिल्म के शुरुआती मिनट में दहेज पर दृश्य है, ट्रेन में एक अनजान महिला दो तीन दूल्हों में बैठे एक दूल्हे दीपक से पूछती है शादी में का मिला? सभी इस विषय में अपनी बात रखते हैं. अंत में दीपक से फिर सवाल होता है कि तुमको का मिला बताए नहीं. दीपक को सवाल से बचते देख उससे कहते हैं ‘जरूर लड़का में कोनहू खोट होगा’. यहां हमें हमारे समाज में कभी न कटने वाली दहेज की गहरी जड़ दिखती है, जहां दहेज लेने को लड़के की सामाजिक छवि से जोड़ दिया जाता है.
हमारे समाज में किस तरह महिलाएं ही महिलाओं की स्वतंत्रता में बाधक हैं, इसका भी फ़िल्म में शानदार चित्रण किया गया है. खुद को किसी दूसरे दूल्हे के साथ जाते देखने के बाद भी खामोश रही जया जब दीपक के पिता की बात का विरोध करते हुए कहती है ‘ठीक ही तो कह रहे हैं’ तो उसकी इस बात पर सबसे ज्यादा आश्चर्य वहां खड़ी महिलाएं ही जताती हैं और उनका आश्चर्य इस बात पर होता है कि कैसे एक महिला पुरुष की बात का जवाब दे सकती है.
पति का नाम लेने पर महिलाएं जया को कैसे देखती हैं
फूल और मंजू माई के बीच फ़िल्म में लगभग हर दृश्य शानदार है. फूल के सीधे साधे किरदार को सशक्त रूप में एक अभिभावक के तौर मंजू माई ही पहुंचाती हैं. ‘बुड़बक होना शर्म की बात नहीं है, बुड़बक होने पर गर्व करना, ई शर्म का बात है’ मंजू माई का बोला यह संवाद फूल की आंखें तो खोलता ही है, साथ में फूल जैसी कई लड़कियों को भी आईना दिखाता है.
फूल का कहा संवाद ‘ पराया रसोई को अपना बनाना, यही तो सिखाई है हमरी अम्मा’ भारत की अधिकतर लड़कियों की कहानी है. निर्देशक ने एक तरफ तो सीधी साधी दुल्हन बनी फूल का किरदार गढ़ा है, वहीं दूसरी तरफ पढ़ी-लिखी जया है. फ़िल्म में दो अलग बैकग्राउंड की दुल्हनों को दिखा निर्देशक यह संदेश देना चाहती है कि अगर बच्चों के माता-पिता लड़कियों को रसोई से बाहर भी काफी कुछ सिखाएंगे तो वह आगे बढ़ सकती हैं.
फूल का मंजू माई से सवाल है कि ‘हम लड़कियों को काहे मौका नहीं देते हैं, दादी काहे हमको इतना लाचार बना देते हैं, ब्रेड पकोड़ा बनाते मंजू माई से जो सवाल फूल ने किया है, उसे सुनने के लिए यह फ़िल्म बार बार देखी जानी चाहिए और इस सवाल का जवाब दूसरी तरह से देती फिल्मों की भी हमारे समाज को बेहद आवश्यता है.
पायल दिल्ली से हैं और जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता रिसर्च स्कॉलर हैं. वह कई समाचार पत्र- पत्रिकाओं से जुड़ी रही हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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