January 31, 2025
नाजायज होने का दावा कर मांगी थी असली पिता से मेंटेनेंस, Sc ने 20 साल पुराने केस में दिया अहम फैसला

नाजायज होने का दावा कर मांगी थी असली पिता से मेंटेनेंस, SC ने 20 साल पुराने केस में दिया अहम फैसला​

अदालत ने कहा कि जबरन DNA टेस्ट करवाने से व्यक्ति के निजी जीवन पर बाहरी दुनिया की नज़र पड़ सकती है. उन्होंने कहा, "वह जांच, विशेष रूप से जब बेवफाई के मामलों से संबंधित हो, कठोर हो सकती है और समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नष्ट कर सकती है."

अदालत ने कहा कि जबरन DNA टेस्ट करवाने से व्यक्ति के निजी जीवन पर बाहरी दुनिया की नज़र पड़ सकती है. उन्होंने कहा, “वह जांच, विशेष रूप से जब बेवफाई के मामलों से संबंधित हो, कठोर हो सकती है और समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नष्ट कर सकती है.”

पितृत्व और वैधता की धारणा से निपटने वाले करीब 2 दशक पुराने केस में सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अहम फैसला सुनाया. इस मामले में एक 23 साल के लड़के ने अपनी मां के विवाह से इतर संबंध का हवाला देते हुए अपने कथित बायोलॉजिकल पिता से DNA टेस्ट की मांग की थी. हालांकि, अदालत ने याचिकाकर्ता की इस मांग को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि दूसरे व्यक्ति का भी निजता का अधिकार है. शीर्ष अदालत ने कहा कि असली माता-पिता को जानने के अधिकार और उस व्यक्ति की निजता के अधिकार के बीच बैलेंस बनाने की जरूरत है.

क्या है पूरा मामला?
23 वर्षीय युवक की मां ने 1989 में शादी की थी. 1991 में उसे एक बेटी हुई. बेटे का जन्म 2001 में हुआ. उसकी मां 2003 में अपने पति से अलग हो गई. 2006 में दंपति का तलाक हो गया.
-इसके तुरंत बाद, महिला ने जन्म रिकॉर्ड में अपने बेटे के पिता का नाम बदलवाने के लिए कोचीन नगर निगम से संपर्क किया.
-जब अधिकारियों ने कहा कि वे अदालत के आदेश के बिना जन्म रिकॉर्ड नहीं बदल सकते, तो महिला और उसके बेटे ने लंबी कानूनी लड़ाई शुरू कर दी.
-2007 में, अदालत ने कथित बायोलॉजिकल पिता को DNA टेस्ट से गुजरने का आदेश दिया. व्यक्ति ने 2008 में हाईकोर्ट में आदेश को चुनौती दी और राहत प्राप्त की.
-हाईकोर्ट ने कहा कि पितृत्व परीक्षण यानी DNA टेस्ट का आदेश तभी दिया जा सकता है, जब पक्षकार पति-पत्नी के बीच गैर-पहुंच साबित कर सकें.

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लंबी चली कानूनी लड़ाई
– स्थानीय अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 का हवाला दिया, जो यह स्थापित करता है कि वैध विवाह के दौरान या विवाह समाप्त होने के 280 दिनों के भीतर पैदा हुआ बच्चा पति का वैध बच्चा है.
– बाद के फैसलों ने मां और बेटे के लिए और भी झटके लाए. एक निचली अदालत ने माना कि पक्षकारों को DNA टेस्ट के लिए संदर्भित करने की कोई जरूरत नहीं थी.
-उन्होंने कहा कि वह कई स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं और उनकी कई सर्जरी हो चुकी हैं, जिनका खर्च वह और उनकी मां वहन करने में असमर्थ हैं.
– उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें अपने कानूनी पिता से उनके मेडिकल या शैक्षिक खर्चों के लिए कोई भरण-पोषण नहीं मिल रहा है.
– अदालत ने भरण-पोषण याचिका को पुनर्जीवित किया. इसके बाद कथित बायोलॉजिकल पिता ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी.
– 2018 में हाईकोर्ट ने बेटे के पक्ष में फैसला सुनाया. इसने कहा कि बच्चे के अपने बायोलॉजिकल पिता से मेनटेनेंस प्राप्त करने के अधिकार पर विचार करते समय जन्म की वैधता अप्रासंगिक है.
-अदालत ने यह भी माना कि वैधता का अनुमान बच्चे के वास्तविक पितृत्व की जांच को नहीं रोकता है. इसके बाद कथित बायोलॉजिकल पिता ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. आदेश में कहा गया है कि यह एक तथ्य है कि जब बेटे का जन्म हुआ, तब उसकी मां की उसके पति से शादी हो चुकी थी.

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सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की बेंच नेबेटे की कथित बायोलॉजिकल पिता से DNA टेस्ट कराने की मांग को नकार दिया. अदालत ने कहा कि ये व्यक्ति के निजता का अधिकार का उल्लंघन है. कोर्ट ने बेटे को उसकी मां के पूर्व पति और उसके कानूनी पिता का वैध संतान माना है. इस तरह अदालत ने दो दशक से चल रहे मामले को बंद कर दिया.

निजता का अधिकार
जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, “बेटे के अपने असली माता-पिता को जानने के अधिकार और उस व्यक्ति की निजता के अधिकार के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है, जिसके बारे में वह दावा करता है कि वह उसका पिता है.”

जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, “एक ओर, अदालतों को पक्षों के निजता और सम्मान के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए, यह मूल्यांकन करके कि उनमें से एक के सामाजिक कलंक का कोई मतलब है या नहीं. ‘अवैध’ घोषित किए जाने से उन्हें असंगत नुकसान होगा. दूसरी ओर, अदालतों को बायोलॉजिकल पिता को जानने में बच्चे की वैध रुचि का आकलन करना चाहिए. यह भी देखना चाहिए कि क्या DNA टेस्ट की कोई महत्वपूर्ण जरूरत है?”

अदालत ने कहा कि जबरन DNA टेस्ट करवाने से व्यक्ति के निजी जीवन पर बाहरी दुनिया की नज़र पड़ सकती है. उन्होंने कहा, “वह जांच, विशेष रूप से जब बेवफाई के मामलों से संबंधित हो, कठोर हो सकती है और समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नष्ट कर सकती है.”

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कोर्ट ने कहा, “यह व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ उसके सामाजिक और पेशेवर जीवन को भी अपरिवर्तनीय रूप से प्रभावित कर सकता है. इस कारण से, उसे अपनी गरिमा और निजता की रक्षा के लिए कुछ कार्रवाई करने का अधिकार है, जिसमें DNA टेस्ट से इनकार करना भी शामिल है.”

महिला की प्रतिष्ठा का पहलू
अदालत ने कहा कि इस मामले में, बच्चे की मां मुकदमेबाजी से सक्रिय रूप से जुड़ी हुई है, लेकिन कोई भी ऐसे मामलों में नतीजों की कल्पना कर सकता है; जहां बच्चा अपनी मां की भावनाओं की अवहेलना करते हुए पितृत्व की घोषणा चाहता है.

कोर्ट ने कहा, “इस तरह के अधिकार के प्रावधान से कमज़ोर महिलाओं के खिलाफ इसके संभावित दुरुपयोग की संभावना हो सकती है. उन्हें कानून की अदालत और जनता की राय की अदालत में मुकदमे का सामना करना पड़ेगा, जिससे उन्हें अन्य मुद्दों के अलावा काफी मानसिक परेशानी होगी. यह इस क्षेत्र में है कि उनकी गरिमा और निजता का अधिकार विशेष विचार का पात्र है.”

कोर्ट ने कहा, “यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कानून किसी व्यक्ति के निजी जीवन में केवल प्रारंभिक जांच की अनुमति देता है, जिससे पक्षकारों को वैधता की धारणा को खत्म करने के लिए गैर-पहुंच साबित करने के लिए रिकॉर्ड पर सबूत लाने की अनुमति मिलती है. जब कानून किसी विशेष उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एक तरीका प्रदान करता है, तो उस तरीके को संतुष्ट किया जाना चाहिए. जब प्रस्तुत साक्ष्य इस अनुमान का खंडन नहीं करते हैं, तो न्यायालय किसी व्यक्ति के निजी जीवन में DNA टेस्ट के माध्यम से जांच की अनुमति देकर किसी विशेष उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कानून को नष्ट नहीं कर सकता है.”

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भले ही यह मान लिया जाए कि मां का विवाहेतर संबंध था और उसी के कारण उसका जन्म हुआ फिर भी ये वैधता की धारणा को खत्म करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा. कोर्ट ने कहा, “वास्तव में, उनकी शादी 1989 से हुई थी. अदालत ने कहा कि यह स्पष्ट है कि मां और उसके पति की शादी के दौरान एक-दूसरे तक पहुंच थी.”

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निर्देश
बेंच ने कहा कि दो दशकों से अधिक समय तक फैले इस जटिल मामले ने इसमें शामिल पक्षों पर अपना प्रभाव डाला है और इसे सभी उद्देश्यों और लक्ष्यों के लिए बंद कर दिया जाना चाहिए. अदालत ने फैसला सुनाया कि वैधता भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के तहत पितृत्व का निर्धारण करती है, जब तक कि ‘गैर-पहुंच’ साबित करके अनुमान का खंडन नहीं किया जाता है.

कोर्ट ने कहा कि इस तरह के आरोप से केवल एक ही बात पर प्रकाश पड़ता है, वह यह कि ऐसा लगता है कि अपीलकर्ता और (पति) की प्रतिवादी की मां तक ​​एक साथ पहुंच थी. हालांकि, यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि ‘अतिरिक्त’ पहुंच या ‘एकाधिक’ पहुंच स्वचालित रूप से पति-पत्नी के बीच पहुंच को नकारती नहीं है और यह साबित नहीं करती है कि दोनों के बीच कोई पहुंच नहीं है. ये वैधानिक आदेश है कि 23 वर्षीय व्यक्ति को अपने कानूनी पिता का बेटा माना जाना चाहिए.

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