आदमी सोच सकता है इसलिए उसका अस्तित्व है. जो जितना बड़ा सोच सकता है उसका उतना बड़ा अस्तित्व है. भौतिक अस्तित्व हमेशा चेतना या विचार के अस्तित्व के सामने छोटी सिद्ध होती दिखाई पड़ती है.
“पुष्पा को नेशनल खिलाडी समझे क्या, इंटरनेशनल खिलाडी है मैं”. दर्शकों के बीच धमाल मचा देने वाले इस संवाद पर एक पुराने हिंदी फिल्म के गीत के एक बोल याद आ गए- “आदमी चाहे तो तकदीर बदल सकता है/ पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है/ आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है!” विख्यात कवि रामअवतार त्यागी का यह अमर गीत अगर “पुष्पा-2” फिल्म के हिंदी डबिंग में जोड़ दिया जाता तो फिल्म के मूल दर्शन की सबसे बेहतरीन संगीतमय प्रस्तुति होती. रामवतार त्यागी के गीत की यह पंक्ति जिस अस्तित्ववादी दर्शन का बेमिशाल चित्रण है ठीक वही चित्रण इस फिल्म में पुष्पा ने अपने अभिनय और संवादों से किया है. अगर अस्तित्ववाद के सन्दर्भ में देखें तो यह भारत की किसी भी भाषा में बनी सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक मानी जा सकती है, जिसमें नायक जो पाना चाहता है, जो करना चाहता है, अपनी इच्छाशक्ति के बलबूते पा लेता है, कर लेता है.
आदमी सोच सकता है इसलिए उसका अस्तित्व है. जो जितना बड़ा सोच सकता है उसका उतना बड़ा अस्तित्व है. भौतिक अस्तित्व हमेशा चेतना या विचार के अस्तित्व के सामने छोटी सिद्ध होती दिखाई पड़ती है. जानवर में अस्तित्वबोध नहीं, इसलिए आदमी उसपर शासन करता है. सबसे छोटा आदमी ऊँचाइयों के शीर्ष तक पहुँच सकता है- कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके पास पर्याप्त संसाधन है या नहीं. पुष्पा अपने अस्तित्व को लेकर बेहद स्पष्ट है, और यही पुष्पा के चरित्र को तमाम विरोधाभाषों के बावजूद कालजयी बनाती है. फिल्म के मुख्य पक्षों को अगर देखें तो कुछ मुख्य बातें इसमें दिखाई देती है, जैसे एक मजदूर के ऊँचाइयों तक पहुँचने की कहानी, पुलिस और राजनीति का भ्रष्ट स्वरूप, परिवार और अन्य सामाजिक संबंधों का महत्व, महिला मुद्दे के प्रति संवेदनशीलता, सांस्कृतिक प्रतीकों का सकारात्मक प्रयोग आदि.
मुद्दे के तौर पर कुछ भी नया नहीं, लेकिन पुरानी बातों का ही जोरदार प्रदर्शन है. आम आदमी आज भी इन्हीं पुराने मुद्दों में फंसा हुआ है. ये सारे मुद्दे आदमी के दैनिक जीवन से आज भी सीधे जुड़े हैं, इसलिए भी यह फिल्म दर्शकों को अपनी तरफ लगातार खींच रही है. शायद अमिताभ के बाद पुष्पा के रूप में दूसरा “एंग्री यंग मैन” मिला है भारतीय दर्शकों को. उपरोक्त बातों के आलावा फिल्म में एक कमजोर पक्ष भी है जिसपर शायद ध्यान दिया जाना चाहिए था.
पुलिस अधिकारी शेखावत के किरदार को उसकी मृत्यु के बाद बड़ी लापरवाही से कहानी से गायब किया गया, जबकि पहले और दूसरे दोनों ही भागों में वह एक समान्तर का अभिनेता है, पुष्पा उसके बिना अधूरा है. निदेशक ने उसकी मृत्यु को सामान्य मृत्यु दी. उसकी भूमिका असामान्य थी, इसलिए उसकी मृत्यु के बाद भी उसका प्रभाव फिल्म पर दिखाया जाना चाहिए था. एक तरह से देखें तो जो नायक और प्रतिनायक का संतुलन प्रथम भाग में था वह दूसरे भाग में पुष्पा के इर्द-गिर्द घूम रहा है. फिल्म के लोकतान्त्रिक चरित्र में एक पतन दिखता है पुष्पा-2 में. एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमता हुआ सबकुछ. फिल्म में केवल नेक रास्ते पर चलने वाला कोई नैतिक-नायक नहीं है,बल्कि अपने संघर्षों में उलझा हुआ आम आदमी है जो उससे निकलने के लिए अच्छे-बुरे सभी कार्यों को करने को मजबूर है.
अपनी बेबसी और लाचारी के जीवन से मुक्ति की सजग चाह ने उसे इतना बड़ा बना दिया कि वह सत्ता बनाने और बिगाड़ने का “खिलाडी” बन जाता है. यह आम आदमी के जीवन के जटिल दर्शन और उसके भीतर मौजूद असीम संभावनाओं का भव्य फिल्मांकन है. फिल्म में जिन हास्यपूर्ण दृश्यों और संवादों का निर्माण किया गया वे वास्तव में बेहद गंभीर और यथार्थ किस्म के हैं, जो समाज और सत्ता को मुंह चिढ़ाते प्रतीत होते हैं. जैसे, पुलिस अधिकारी शेखावत के वस्त्र उतरवाने (प्रथम भाग) से लेकर मंत्री तक के कपडे उतरने का दृश्य और संवाद बेहद विचारणीय है. एक जगह मंत्री कहता है कि हम राजनीति में सबकुछ उतार कर ही आये हैं, इसलिए मुझे कपडे उतारने में कोई दिक्कत नहीं और झट से वह अपने कपडे उतार देता है, ताकि उसकी सत्ता कायम रहे. इसपर पुलिस अधिकारी शेखावत कहता है कि देखिये कि कैसे पुष्पा ने हम सबके कपडे उतार रखें हैं! राजनीति और पुलिस तंत्र पर यह संवाद लोकतंत्र के दो अहम् प्रहरियों की विफलता को दर्ज करती है. क्या यह विद्रूप लोकतंत्र की सबसे बड़ी सच्चाई नहीं है?
सामाजिक स्वीकृति आज भी अन्य प्रकार की स्वीकृति से बड़ी है. यही कारण है कि शक्ति की ऊँचाइयों पर पहुंचकर भी पुष्पा के जीवन का सबसे बड़ा दुःख है उसे उसके कुल-परिवार का नाम नहीं मिलना. जिस “ब्रांड” को उसने अपने बुद्धि और साहस से बनाया है, उस “ब्रांड” से वह खुश नहीं है, उसे अपने “खानदान” के “ब्रान्ड” का हिस्सा नहीं होने की गहन पीड़ा है. आधुनिकता ने परिवार की संरचना में बड़े बदलाव लाये हैं, लेकिन इसके बावजूद इसका मूल स्वरूप स्थिर है, यह ‘आइडेंटिटी’ के सबसे बड़े श्रोतों में से एक है. भौतिक उपस्थिति हो या न हो, लेकिन वैधानिकता का श्रोत संबंधों से ही है, इसलिए वह उस व्यक्ति के नाम से जुड़ने के लिए तड़प रहा होता है जिसका उसके जीवन में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं. कुल-मूल का प्रश्न आज भी व्यक्ति के जीवन का हिस्सा है जो मौके-बेमौके लोगों से पूछे ही जाते हैं. अतीत आज भी वर्तमान को तय कर रहा. यह आश्चर्यजनक है.
सांस्कृतिक प्रतीकों और परम्पराओं के इर्द-गिर्द घूमती कहानी दर्शकों को अपनी सी लगती है. आमतौर पर जहाँ संस्कृति और परम्पराओं को आधुनिकता के मार्ग में बाधा समझा जाता रहा है, वहीं फिल्म यह दिखाने में सफल रही कि परम्पराओं और संस्कृति के द्वारा भी उन लक्ष्यों को पाया जा सकता है जिसे हम आधुनिकता से नहीं पा रहें. पुष्पा की भतीजी का अपहरण हो जाता है, पुलिस तंत्र बेबस है, क्योंकि अपहर्ता राजनीति के शीर्ष व्यक्ति का सम्बन्धी है. यानि आधुनिकता के अभिकरण निष्क्रिय और निकम्मे हैं. फिर पुष्पा उस खालीपन में प्रवेश करता है- ‘काली-अवतार’ में. जहाँ आधुनिक तंत्र पुलिस प्रशासन नहीं वहां पारंपरिक “देवी शक्ति” है. व्यवस्था में अगर दुर्बलता होगी तो उस खालीपन को कोई न कोई पाटेगा ही! पुष्पा लोगों में एक आशा की किरण की तरह है जो सबको राज्य के अभिकरणों के “उत्पीडन” से मुक्त करने का सामर्थ्य रखता है. समाजशास्त्री मैक्स वेबर के चमत्कारिक-नेतृत्व का बेहतरीन उदाहरण है- पुष्पा-2.
केयूर पाठक हैदराबाद के CSD से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं… अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं… इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है…
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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