February 21, 2025
प्रधान न्यायाधीश शीर्ष स्तर की नियुक्तियों में कैसे शामिल हो सकते हैं : उपराष्ट्रपति धनखड़

प्रधान न्यायाधीश शीर्ष स्तर की नियुक्तियों में कैसे शामिल हो सकते हैं : उपराष्ट्रपति धनखड़​

न्यायिक समीक्षा की शक्ति पर धनखड़ ने कहा कि यह एक ‘‘अच्छी बात’’ है, क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि कानून संविधान के अनुरूप हों. उन्होंने कहा, ‘‘न्यायपालिका की सार्वजनिक उपस्थिति मुख्य रूप से निर्णयों के माध्यम से होनी चाहिए. निर्णय स्वयं बोलते हैं... अभिव्यक्ति का कोई अन्य तरीका... संस्थागत गरिमा को कमजोर करता है.’’

न्यायिक समीक्षा की शक्ति पर धनखड़ ने कहा कि यह एक ‘‘अच्छी बात’’ है, क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि कानून संविधान के अनुरूप हों. उन्होंने कहा, ‘‘न्यायपालिका की सार्वजनिक उपस्थिति मुख्य रूप से निर्णयों के माध्यम से होनी चाहिए. निर्णय स्वयं बोलते हैं… अभिव्यक्ति का कोई अन्य तरीका… संस्थागत गरिमा को कमजोर करता है.’’

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शुक्रवार को आश्चर्य जताते हुए कहा कि भारत के प्रधान न्यायाधीश, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक जैसे शीर्ष पदों पर नियुक्तियों में कैसे शामिल हो सकते हैं? उपराष्ट्रपति ने यह भी कहा कि ऐसे मानदंडों पर ‘‘पुनर्विचार” करने का समय आ गया है. धनखड़ ने भोपाल स्थित राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी में कहा कि उनके विचार में, ‘‘मूल संरचना के सिद्धांत” का ‘‘न्यायशास्त्रीय आधार बहस योग्य” है.

उन्होंने वहां मौजूद लोगों से सवाल किया, ‘‘हमारे जैसे देश में या किसी भी लोकतंत्र में, वैधानिक निर्देश के जरिये प्रधान न्यायाधीश सीबीआई निदेशक की नियुक्ति में कैसे शामिल हो सकते हैं?”

उपराष्ट्रपति ने कहा, ‘‘क्या इसके लिए कोई कानूनी दलील हो सकती है? मैं इस बात की सराहना कर सकता हूं कि वैधानिक निर्देश इसलिए बने, क्योंकि उस समय की कार्यपालिका ने न्यायिक फैसले के आगे घुटने टेक दिए थे. लेकिन अब इस पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है. यह निश्चित रूप से लोकतंत्र के साथ मेल नहीं खाता. हम भारत के प्रधान न्यायाधीश को किसी शीर्ष स्तर की नियुक्ति में कैसे शामिल कर सकते हैं!”

उन्होंने कहा कि न्यायिक आदेश के जरिये कार्यकारी शासन एक ‘‘संवैधानिक विरोधाभास है, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता.” धनखड़ ने कहा कि सभी संस्थानों को अपनी संवैधानिक सीमा के भीतर काम करना चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘‘सरकारें विधायिका के प्रति जवाबदेह होती हैं. वे समय-समय पर मतदाताओं के प्रति भी जवाबदेह होती हैं. लेकिन अगर कार्यकारी शासन अहंकारी हो या आउटसोर्स किया गया है, तो जवाबदेही नहीं रहेगी.” उपराष्ट्रपति ने कहा कि विधायिका या न्यायपालिका की ओर से शासन में कोई भी हस्तक्षेप ‘‘संविधानवाद के विपरीत” है. उन्होंने कहा, ‘‘लोकतंत्र संस्थागत अलगाव पर नहीं, बल्कि समन्वित स्वायत्तता पर चलता है. निस्संदेह, संस्थाएं अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करते हुए उत्पादक एवं इष्टतम योगदान देती हैं.”

न्यायिक समीक्षा की शक्ति पर धनखड़ ने कहा कि यह एक ‘‘अच्छी बात” है, क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि कानून संविधान के अनुरूप हों. उन्होंने कहा, ‘‘न्यायपालिका की सार्वजनिक उपस्थिति मुख्य रूप से निर्णयों के माध्यम से होनी चाहिए. निर्णय स्वयं बोलते हैं… अभिव्यक्ति का कोई अन्य तरीका… संस्थागत गरिमा को कमजोर करता है.”

धनखड़ ने कहा, ‘‘मैं वर्तमान स्थिति पर पुनर्विचार करना चाहता हूं, ताकि हम फिर से उसी प्रणाली में आ सकें, एक ऐसी प्रणाली जो हमारी न्यायपालिका को उत्कृष्टता दे सके. जब हम दुनिया भर में देखते हैं, तो हमें कभी भी न्यायाधीशों का वह रूप नहीं मिलता, जैसा हम सभी मुद्दों पर यहां देखते हैं.”

इसके बाद उन्होंने मूल संरचना सिद्धांत पर चल रही बहस पर बात की, जिसके अनुसार संसद भारतीय संविधान की कुछ बुनियादी विशेषताओं में संशोधन नहीं कर सकती.

केशवानंद भारती मामले पर पूर्व सॉलिसिटर जनरल अंध्या अर्जुन की पुस्तक (जिसमें यह सिद्धांत स्पष्ट किया गया था) का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘पुस्तक पढ़ने के बाद, मेरा विचार है कि संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत का एक बहस योग्य, न्यायशास्त्रीय आधार है.”

NDTV India – Latest

Copyright © asianownews.com | Newsever by AF themes.