जानकारी के मुताबिक महाकुंभ के पहले ही पवित्र स्नान में क़रीब डेढ़ करोड़ श्रद्धालुओं ने प्रयागराज में गंगा, यमुना और मिथकीय नदी सरस्वती के संगम पर पवित्र डुबकी लगाई और ये सिलसिला अनवरत जारी है. संगम का घाट श्रद्धालुओं की पवित्र आस्था का जीता जागता प्रमाण है.
दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक आयोजन महाकुंभ प्रयागराज में शुरू हो चुका है. देश और दुनिया से करोड़ों श्रद्धालु मोक्ष प्राप्ति की कामना लिए प्रयागराज में मौजूद हैं या फिर प्रयागराज की ओर चल पड़े हैं. करोड़ों लोग आने वाले दिनों में प्रयागराज पहुंचने की तैयारी कर रहे हैं. 13 जनवरी से शुरू हुआ महाकुंभ 26 फरवरी तक चलेगा. इस दौरान कुल छह बड़े स्नान होंगे और अनुमान है कि क़रीब 40 करोड़ श्रद्धालु 45 दिन चलने वाले इस धार्मिक-आध्यात्मिक समागम में हिस्सा लेंगे.
जानकारी के मुताबिक महाकुंभ के पहले ही पवित्र स्नान में क़रीब डेढ़ करोड़ श्रद्धालुओं ने प्रयागराज में गंगा, यमुना और मिथकीय नदी सरस्वती के संगम पर पवित्र डुबकी लगाई और ये सिलसिला अनवरत जारी है. संगम का घाट श्रद्धालुओं की पवित्र आस्था का जीता जागता प्रमाण है. संगम तट पर एक पल के लिए भी श्रद्धालुओं की तादाद कम नहीं हो रही और ये सिलसिला आने वाले डेढ़ महीने तक चलता ही रहेगा. कुंभ मेले का ये अद्भुत आकर्षण पूरी दुनिया को अपने सम्मोहन में ले चुका है. यही वजह है कि साल 2017 में यूनेक्को ने कुंभ मेले को ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’ की सूची में शामिल किया था. ये सूची दुनिया भर में अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों को बेहतर तरीके से संरक्षित करने और उनके महत्व के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए बनाई गई है.
मानवता की इस अमूर्त विरासत महाकुंभ के तहत इस बार छह मुख्य स्नान हैं. इनमें से तीन अमृत स्नान हैं जो साधु-संन्यासियों के अखाड़ों के शाही स्नान के साथ शुरू होते हैं. इसके अलावा तीन कुंभ स्नान हैं.
अब सवाल ये है कि आख़िर इन कुछ दिनों में ऐसा क्या है कि करोड़ों श्रद्धालु पवित्र स्नान के लिए उमड़ पड़ते हैं और महाकुंभ या कुंभ पर ही ऐसा क्यों होता है. इसके लिए हमें हिंदू पौराणिक मान्यताओं की ओर जाना होगा.
सबसे पहले तो ये जान लें कि कुंभ मेला भारत में चार जगहों पर होता है. हर बारह साल पर प्रयागराज में संगम तट, हरिद्वार में गंगा तट, नासिक में गोदावरी के तट और उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर कुंभ का आयोजन होता है.. इस तरह से हर तीन साल में इन चार में से किसी एक जगह पर कुंभ का आयोजन होता है. प्रयागराज और हरिद्वार में हर छह साल पर अर्द्ध कुंभ भी होता है. अब सवाल ये कि कुंभ इन चार स्थानों पर ही क्यों होता है.
क्या है पूरी कहानी?
इसके लिए हमें समुद्र मंथन के पौराणिक आख्यान को जानना होगा. कुंभ का संस्कृत में अर्थ हैै घड़ा. हिंदू पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक धन धान्य की देवी श्रीलक्ष्मी की प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया गया. महर्षि दुर्वासा के एक शाप के कारण देवताओं के राजा इंद्र का धन धान्य, ऐश्वर्य समाप्त हो चुका था. ऐसे में भगवान विष्णु ने उन्हें देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र मंथन की सलाह दी. इस समुद्र मंथन से देवी श्रीलक्ष्मी समेत 14 वस्तुएं निकलीं. जैसे कामधेनु, कल्पवृक्ष, हलाहल और अमृत… जैसे ही अमृत निकला उसे पाने के लिए देवताओं और असुरों में होड़ मच गई.
इंद्र का बेटा जयंत असुरों से बचाकर अमृत कुंभ को ले भागा. जयंत की इस यात्रा के दौरान चार जगहों पर कुंभ से अमृत छलक गया… ये हैं प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन. तब से ही इन चार जगहों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है… और जिन जगहों पर नदियों में अमृत की बूंदें गिरीं वहां सूर्य, चंद्र और बृहस्पति के विशेष राशियों में आने के दौरान कुंभ स्नान किया जाता है… यहां इन मौकों पर स्नान को पापों से मुक्ति और पुण्य की प्राप्ति के तौर पर देखा जाता है.
मेले भारत की हज़ारों वर्ष की आध्यात्मिक यात्रा के साथ साथ चलते रहे हैं… लेकिन कुंभ मेला कब शुरू हुआ इसका ठीक-ठीक अनुमान नहीं है… ऋग्वेद और स्कंद पुराण में ऐसे ही बड़े मेलों का ज़िक्र मिलता है लेकिन वो कुंभ मेले थे या नहीं इसे लेकर इतिहासकार एक राय नहीं हैं…
इतिहास में कुंभ मेले का वर्णन सबसे पहले क़रीब 1400 साल पूर्व मिलता है. चीनी यात्री ह्वेनसांग की किताब शि-यू-की में कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण मिला… ह्वेनसांग 630 से 645 ईसवी में भारत आए थे..तब राजा हर्षवर्धन का दौर था… 644 ईसवी में ह्वेनसांग राजा हर्षवर्धन से मिलने गए तो उन्होंने एक ऐसा सांस्कृतिक आध्यात्मिक मेला देखा कि चकित रह गए… तब प्रयागराज में त्रिवेणी के संगम पर श्रद्धालुओं का मेला चल रहा था.. हालांकि कई इतिहासकार मानते हैं कि वो माघ मेला था… जो भी हो इस मेले में ह्वेनसांग को भारत के लोगों, उनकी मान्यताओं, उनकी संस्कृति को क़रीब से देखने समझने का मौका मिला. ह्वेनसांग के अनुमान के मुताबिक उस कुंभ में क़रीब पांच लाख श्रद्धालु आए थे जिनमें कई राजा और उनके परिवार भी शामिल थे. राजा हर्षवर्धन अपनी दानशीलता के लिए प्रसिद्ध थे… कुंभ के दौरान खुल कर धन-संपदा दान ग़रीबों को दान कर दिया करते थे… उसी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए इस बार के महाकुंभ में कई दानकेंद्र स्थापित किए गए हैं जहां श्रद्धालु समाज के हाशिए पर रह रहे लोगों के हित में दान कर सकते हैं.
कहा जाता है कि इसके बाद आठवीं सदी में महान हिंदू दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने चार स्थानों पर कुंभ मेले के आयोजन को औपचारिक रूप प्रदान किया… उनकी कोशिश रही कि ऐसे बड़े मेले दार्शनिक चर्चा और विचार विमर्श का केंद्र बनें… कुछ इतिहासकार कुंभ मेले को 12वीं सदी के भक्ति आंदोलन से भी जोड़ कर देखते हैं.
आज़ादी से पहले ब्रिटिश रिकॉर्ड्स में प्रयाग के कुंभ मेले का पहला ज़िक्र 1868 में मिलता है जिसमें कि श्रद्धालुओं की संख्या को देखते हुए साफ़-सफ़ाई के इंतज़ामों की ज़रूरत का ज़िक्र किया गया… 1838 से पहले ब्रिटिश अधिकारी श्रद्धालुओं से टैक्स वसूला करते थे लेकिन उनके लिए कोई इंतज़ाम नहीं करता था… लेकिन 1857 के गदर के बाद ये बदल गया… कुछ इतिहासकारों के मुताबिक कुंभ मेले लोगों को सामाजिक-राजनीतिक तौर पर भी जागरूक कर रहे थे… इसे देखते हुए ब्रिटिश अधिकारियों इन पर क़रीबी निगाह रखनी शुरू की… इसके साथ ही मेलों के प्रबंधन और साफ़-सफ़ाई पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया…
उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब तक कुंभ मेलों के इंतज़ामों को ब्रिटिश हुकूमत ने अपने हाथ में नहीं लिया तब तक कुंभ मेलों में श्रद्धालुओं के लिए इंतज़ामों का काम साधु-संन्यासियों के अखाड़ों के हाथ में होता था… साधु-संन्यासियों के ये अखाड़े कुंभ का सबसे बड़ा आकर्षण होते हैं… कुंभ के अमृत स्नानों में सबसे पहले इन अखाड़ों का ही शाही स्नान होता है… माना जाता है कि नागा साधुओं को उनकी धार्मिक निष्ठा के कारण सबसे पहले स्नान का मौका दिया जाता है… पूरे राजसी ठाठबाट के साथ हाथी, घोड़ों और रथों पर सवार अखाड़ों के साधु शाही स्नान के लिए आते हैं… ये भी माना जाता है कि पुराने दौर में राजा-महाराजा साधु संतों के साथ भव्य जुलूस में स्नान के लिए निकलते थे… साधु-संन्यासियों के शाही स्नान को देखने, उनका आशीर्वाद लेने के लिए करोड़ों श्रद्धालु कुंभ में पहुंचते हैं…
साधु-संन्यासियों के इन अखाड़ों का इतिहास भी बहुत दिलचस्प है… अखाड़ा शब्द का अर्थ है कुश्ती की जगह… ये भी मान्यता है कि अखाड़ा व्यवस्था आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने स्थापित की… उन्होंने साधु-संन्यासियों के बीच एक योद्धा वर्ग भी स्थापित किया जो विदेशी आंक्रांताओं से लोहा ले सके… शुरुआत में चार अखाड़े थे जिनकी संख्या समय के साथ-साथ अब 13 हो गई है.
इनमें सात अखाड़े संन्यासी संप्रदाय के हैं… ये हैं जूना अखाड़ा, आवाहन अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, निर्वाणी अखाड़ा और अटल अखाड़ा…
वैष्णव संप्रदाय के तीन अखाड़े हैं… निर्मोही अखाड़ा, दिगंबर अखाड़ा और निर्वाणी अणि अखाड़ा…
तीन अखाड़े ऐसे हैं जो गुरु नानक देव की आराधना करते हैं… ये हैं बड़ा उदासीन अखाड़ा, नया उदासीन अखाड़ा और निर्मल अखाड़ा…
इन सभी अखाड़ों के प्रबंधन, उनके बीच सामंजस्य बनाने और विवादों को हल करने का काम अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद करता है. जिसकी स्थापना 1954 में की गई. अखाड़ों के अध्यक्ष को सभी 13 अखाड़ों के बीच मतदान से चुना जाता है.
महाकुंभ में साधु-संन्यासियों ये अखाड़े महाकुंभ में जब प्रवेश करते हैं तो बड़ी ही शानो शौकत और शक्ति के प्रदर्शन के साथ… कुंभ क्षेत्र में जहां ये अखाड़े स्थापित होते हैं उन्हें छावनी कहा जाता है… कुंभ का धार्मिक-आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व तो है ही, आर्थिक महत्व भी कम नहीं… करोड़ों श्रद्धालुओं की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए व्यापार और कारोबार की दुनिया भी यहां मौजूद रहती है.
उत्तरप्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रयागराज महाकुंभ में श्रद्धालुओँ की सुविधाओं के लिए 549 परियोजनाओं को अंजाम दिया है जिनके तहत बुनियादी सुविधाओँ से लेकर साफ़-सफ़ाई तक की सुविधाएं हैं… इसके लिए 6990 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है… मेला अधिकारियों का अनुमान है कि महाकुंभ से राज्य सरकार को 25,000 करोड़ का राजस्व मिलेगा और उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर इसका कुल असर क़रीब 2 लाख करोड़ का पड़ेगा.
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