सुप्रीम कोर्ट में वक्फ एक्ट के खिलाफ एक दो नहीं बल्कि कई पिटीशंस लगाई गई हैं. एक्ट का विरोध करने वालों को उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इसे खारिज कर सकता है. ऐसे में हम जानने की कोशिश करेंगे कि जिस एक्ट को संसद बनाती है क्या सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर सकता है?
रूल ऑफ लॉ with Sana Raees Khan, NDTV का एक ब्रांड न्यू शो है. ये एक ऐसा शो जो रूल ऑफ लॉ की बात करता है. रूल ऑफ लॉ तभी संभव है, जब हर आदमी को कानून की बेसिक जानकारी हो. कहते हैं कि कोर्ट कचहरी के चक्कर से भगवान बचाए, ऐसा इसलिए क्योंकि आम आदमी के लिए ये कानून की दुनिया किसी भूल भुलैया से कम नहीं है. जानी मानी सुप्रीम कोर्ट लॉयर सना रईस खान इस शो के जरिए लोगों को आसान शब्दों में देश का कानून समझाने की कोशिश करेंगी. रूल ऑफ लॉ के पहले एपिसोड में बात की जाएगी नए वक्फ एक्ट के बारे में.

वक्फ एक्ट के खिलाफ कई याचिकाएं
जब से वक्फ एक्ट में बदलाव की बात शुरू हुई थी तब से ही इसका विरोध हो रहा था और अब भी हो रहा है. इस एक्ट को देश की संसद ने बनाया है. लेकिन अब इस एक्ट का विरोध देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंच गया है. सुप्रीम कोर्ट में वक्फ एक्ट के खिलाफ एक दो नहीं बल्कि कई पिटिशंस लगाई गई हैं. वक्फ एक्ट का विरोध करने वालों को उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इस एक्ट को खारिज कर सकता है. तो आज हम जानने की कोशिश करेंगे कि जिस एक्ट को संसद बनाती है क्या सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर सकता है?
भारत में सुप्रीम कोर्ट सबसे बड़ी अदालत है. सुप्रीम कोर्ट को संविधान का रखवाला माना जाता है. यानी सुप्रीम कोर्ट तय करता है कि देश के संविधान में जो प्रावधान हैं उसका कहीं भी किसी भी हाल में उल्लंघन ना हो. लिहाजा सुप्रीम कोर्ट के पास यह अधिकार है कि वह किसी भी कानून को असंवैधानिक घोषित करके उसे खत्म कर सकता है. इसके लिए कुछ नियम लागू होते हैं और एक प्रक्रिया होती है. इस प्रक्रिया के तहत ही सुप्रीम कोर्ट किसी कानून को खत्म कर सकता है.

मतलब ये कि देश की सबसे बड़ी अदालत में वक्फ जैसे एक्ट को रद्द तो किया जा सकता है, लेकिन किन हालात में? ये तभी मुमकिन होता है जब कोई कानून भारत के संविधान के तहत दिए गए मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है. साथ ही अगर कोई कानून संविधान की मूल भावना के खिलाफ होता है, तब भी सुप्रीम कोर्ट उस कानून को खत्म कर सकता है.

वक्फ एक्ट को आखिर किस आधार पर SC में चुनौती दी गई
यह कानून संविधान के आर्टिकल 25 यानी धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है. आर्टिकल 25 भारतीय नागरिकों को अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार संपत्ति और संस्थानों का प्रबंध करने का अधिकार देता है. ऐसे में अगर वक्फ संपत्तियों का प्रबंध बदलता है या इसमें गैर-मुस्लिमों को शामिल किया जाता है तो यह धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन हो सकता है.
दलील ये भी है कि ये एक्ट संविधान के आर्टिकल 26 का उल्लंघन है. यह आर्टिकल धार्मिक समुदाय को अपनी धार्मिक संगठनों के रखरखाव यानी मैनेज करने का अधिकार देता है, लेकिन नया एक्ट धार्मिक संस्थाओं के मैनेजमेंट का हक छीनता है. संविधान के आर्टिकल 29 और 30 का उल्लंघन यानी अल्पसंख्यक अधिकार की सुरक्षा छीनता है.

आखिर वक्फ है क्या?
इस्लाम में पवित्र और धार्मिक माने गए मक़सद के लिए, किसी चल-अचल संपत्ति को स्थायी तौर पर दान करना वक्फ कहा जाता है. वक्फ अरबी भाषा से निकला शब्द है, जिसका मूल ‘वकुफा’ शब्द से हुआ है.. वकुफा का अर्थ होता है ठहरना या रोकना. इसी से बना है वक्फ शब्द जिसका अर्थ होता है संरक्षित करना. इस्लाम में वक्फ का अर्थ उस संपत्ति से है, जो जन-कल्याण के लिए हो. जन कल्याण के लिए जो भी दान कर दिया जाए, उसे संरक्षित करना ही वक्फ है. जो ये दान देते हैं, ऐसे दानदाता को ‘वाकिफ’ कहा जाता है. वाकिफ ये भी तय कर सकता है कि जो दान दिया गया है, उसका या उससे होने वाली आमदनी का इस्तेमाल कैसे किया जाएगा.
विरोध करने वालों का दावा है कि यह एक्ट अल्पसंख्यकों को कमजोर कर सकता है और उनकी संपत्तियों को सरकारी कंट्रोल में ले सकता है. अगर ये साबित हो जाता है कि ये एक्ट मुस्लिमों की धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है. अगर ये साबित हो जाता है कि गैर मुस्लिमों की बोर्ड में एंट्री होने से उनका अधिकार छिन जाएगा तो शायद सरकार की मुश्किलें बढ़ जाएं.
1.अब सवाल ये कि क्या कोई और कानून है जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई हो. जी हां, ऐसे कई मामले हैं. संसद में पास किए गए ‘CAA’ को लेकर भी सरकार के खिलाफ विपक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए CAA पर रोक लगाने से इंकार कर दिया था. अदालत ने 4-1 के फैसले से CITIZENSHIP ACT की धारा 6A की वैधता को भी बरकरार रखा था.
2.जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल-370 हटाने का ऐतिहासिक कदम मोदी सरकार ने कानून में बदलाव कर उठाया था. इसके विरोध में भी विपक्षी, सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे. सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर से ARTICLE 370 को निरस्त करने के केंद्र सरकार के फैसले को बरकरार रखा. और ऐतिहासिक फैसले में कहा कि जम्मू कश्मीर को स्पेशल दर्जा देने वाला अनुच्छेद-370 TEMPRORY प्रावधान है.
3. चुनावी बॉन्ड का मुद्दा ऐसा रहा, जहां केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पीछे हटना पड़ा था. सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड के जरिए राजनीतिक चंदा जुटाने पर तुरंत रोक लगा दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए कहा था कि चुनावी बॉन्ड को गुप्त रखना ARTICLE 19 (1) (A) का उल्लंघन है यानी ‘सूचना के अधिकार का उल्लंघन.
अब देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट में ये बात साबित हो पाती है कि नहीं कि वक्फ कानून में किसी भी तरह से संविधान की मूल भावना को तोड़ा गया है. अगर ये बात साबित हो जाती है तो हो सकता है कानून रद्द हो जाए.

इंटरनेशनल स्मगलिंग सिंडिकेट से जुड़े रन्या के तार!
अब हम आपको बताने जा रहे हैं एक और दिलचस्प केस की. इस केस में तस्करी करने का आरोप है एक महिला पर जो कन्नड़ फिल्मों की अभिनेत्री है. उस अभिनेत्री के पिता राज्य के सीनियर IPS हैं. अब तक आप समझ गए होंगे कि किस केस की बात कर रहे हैं. जी हां, कर्नाटक के रन्या राव केस की. केस की जांच चल रही है और हर रोज नए खुलासे हो रहे हैं.
रन्या राव को 3 मार्च को बेंगलुरु के केम्पेगौड़ा हवाई अड्डा पर तब गिरफ्तार किया गया था, जब वो दुबई से लौट रही थीं. रन्या राव के पास से DRI यानी राजस्व खुफिया विभाग ने 14 किलो सोना बरामद किया था. रन्या के खिलाफ तीन एजेंसी DRI, CBI और ED जांच कर रही है, जांच एंजेसी ने पूछताछ की तो कई दिलचस्प खुलासे हुए. रन्या ने बताया कि सोने को अपने शरीर से चिपकाने के लिए उसने एयरपोर्ट पर ही क्रैप बैंडेज और कैंची खरीदी थी. सोना प्लास्टिक चढ़े दो पैकेट्स में था. उसे छिपाने के लिए टॉयलेट में जाकर सोने के बिस्किट शरीर से चिपकाए थे. जांच में ये बात भी सामने आ रही है कि रन्या राव के तार इंटरनेशनल स्मगलिंग सिंडिकेट से जुड़े हैं.
इस मामले में गिरफ्तार तीसरे आरोपी साहिल जैन ने दावा किया कि उसने रन्या द्वारा स्मगलिंग कर लाए गए करीब 50 किलो सोने को ठिकाने लगाया, वो भी सिर्फ तीन से चार महीने में. ये तो हुई कन्नड़ अभिनेत्री रन्या राव की गिरफ्तारी और उनसे पकड़े गए सोने की बात. लेकिन इस केस से जुड़े कई कानूनी पहलू हैं जिनके बारे में जानना जरूरी है.

जानें कस्टम एक्ट से जुड़ी जरूर बातें
आखिर रन्या राव सोने की SMUGGLING कैसे करती रही. कस्टम विभाग को इसके बारे में कैसे पता नहीं चला? सवाल ये भी है कि स्मगलिंग किसको कहा जाएगा. मतलब ये है कि विदेश से कितना सोना आप ला सकते हैं या विदेश ले जा सकते हैं. कस्टम एक्ट के मुताबिक एक खास मात्रा में सोना लाने की छूट मिलती है और उसपर कोई डयूटी नहीं देनी होती है.
- विदेश से कोई भी पुरुष 20 ग्राम और महिला 40 ग्राम सोना ला सकती है.
- इतने पर आपको कोई भी कस्टम ड्यूटी नहीं देनी होगी.
- 15 साल से कम उम्र के बच्चों को भी 40 ग्राम सोना लाने की छूट मिलती है. इसके लिए गार्डियन के साथ रिलेशनशिप प्रूव करना होगा.
- पासपोर्ट एक्ट 1967 के अनुसार इंडियन सिटिजेन सभी प्रकार का सोना ला सकते हैं. चाहे वो गहने हों या सिक्के हों या फिर बार.
आप सोच रहे होंगे कि अगर लिमिट से ज्यादा सोना लाया तो कितनी ड्यूटी देनी होगी. CBIC यानी सेंट्रल बोर्ड ऑफ indirect taxes और कस्टम एक्ट के मुताबिक पुरुष यात्री यानी विदेश से आ रहा कोई भी पुरुष 20 से 50 ग्राम सोना लाता हो तो 3% कस्टम ड्यूटी देनी होगी. 50 से 100 ग्राम सोने पर 6% और 100 ग्राम से ज्यादा पर 10% कस्टम ड्यूटी देनी होगी. वहीं कोई महिला पैसेंजर 40 से 100 ग्राम तक सोना लाती है तो 3% कस्टम ड्यूटी चुकानी होगी. वहीं 200 ग्राम तक 6% और 200 ग्राम से ज्यादा पर 10% कस्ट्म ड्यूटी देनी होगी. अगर कोई भी शख्स जायज़ मात्रा से ज्यादा सोना लेकर आता है और कस्टम ड्यूटी नहीं देता है तो उसे स्मगलिंग माना जाएगा.
भारत में सोने की तस्करी ज्यादातर गल्फ देशों से होती है. क्योंकि गल्फ कंट्रीज में इसकी क़ीमत कम है. यहां सरकार सोने पर टैक्स नहीं लेती है. जिससे इसकी क़ीमत कम हो जाती है. वहीं भारत में सोने पर टैक्स बहुत ज़्यादा है. इसके कारण सोने की क़ीमत वास्तविक क़ीमत से काफी ज़्यादा हो जाती है. UAE की बात करें तो 5 मार्च 2025 को 24 कैरेट गोल्ड के 10 ग्राम की कीमत 83 हजार 670 रुपए थी. वहीं भारत में उसी दिन सोने की कीमत 87 हजार 980 रुपए थी. सस्ते सोने को खरीदकर भारत में बेचने के लालच में सोने की तस्करी की जाती है, सोना तस्करी करते हुए अगर कोई पकड़ा जाता है, तो उस पर कई धारा में मुकदमा होगा, सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 135 के मुताबिक 1 लाख से ज्यादा का सामान लाने पर सात साल की जेल और सामान की कीमत के बराबर जुर्माना लगता है.
अब बेबस नहीं हैं आप….आपका कानूनी हक बताएंगे हम
देखिए ‘RULE OF LAW ‘ सना रईस खान के साथ
⏱️ : रात 8 :27 बजे
? : NDTV इंडिया #RuleOfLaw pic.twitter.com/KJBZ2xXWDI— NDTV India (@ndtvindia) April 12, 2025
आपका कानूनी हक
आप पर कोई आरोप लगा और पुलिस आ गई गिरफ्तार करने, लेकिन क्या आपको मालूम है कि किन मामलों में आपको पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकती? non-cognizable offences यानी जिन मामलों में सजा 7 साल से कम हो. उनमें बिना section 41A of CRPC नोटिस और वारंट के आपको पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकती. अब CRPC के इस सेक्शन की जगह BNSS सेक्शन 35 (3) ने ले ली है. 41 A नोटिस का मतलब ये है कि गिरफ्तारी से पहले पुलिस आपको थाने में हाजिर होने का मौका देती है ताकि आप बता सकें कि आप क्यों बेगुनाह है और क्यों आपको अरेस्ट नहीं करना चाहिए. इस नोटिस के तहत आपको एक सूचना मिल जाती है कि आप पर आरोप लगा है कि इसी आधार पर आप कोर्ट जाकर अग्रिम जमानत मांग सकते हैं, आप कोर्ट में अपनी बेगुनाही का सबूत पेश कर सकते हैं. ये आपका हक है.

एक उदाहरण अर्नेश कुमार Vs बिहार सरकार का एक केस था. जो कि साल 2014 का था.इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पुलिस को ये तय करना है कि क्या गिरफ्तारी जरूरी है. इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी के लिए 9 पैरामीटर बनाए थे. जो कि इस प्रकार थे.
- क्या अपराध रोकने के लिए गिरफ्तारी जरूरी है?
- क्या आरोपी सबूतों को टैंपर कर सकता है
- क्या आरोपी गवाहों को प्रभावित कर सकता है
- क्या वो फरार हो सकता है
- क्या सच disputed है या admitted है
- क्या आरोपी से पूछताछ की जरूरत है?
- अपराध की गंभीरता क्या है?
- क्या आरोपी फिर अपराध कर सकता है?
- क्या आरोपी ने जांच में cooperate किया है?
अगर इन पैरामीटर पर गिरफ्तारी औचित्य नहीं है तो फिर अरेस्ट गैरकानूनी है.
सबसे जरूरी बात. अगर आपको गिरफ्तारी के ग्राउंड नहीं समझाएं जाएं तो आपकी गिरफ्तारी गैरकानूनी और असंवैधानिक है.
डीके बसु Vs बंगाल सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकारों की बात की है. इसी साल विहान कुमार Vs हरियाणा सरकार के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिना कानूनी आधार के गिरफ्तारी गलत थी. कोर्ट ने कहा आर्टिकल 21 और 22 (1) के मुताबिक आरोपी को बताना जरूरी है कि उसे किस कानून के तहत गिरफ्तार किया जा रहा है. ऐसा ना करना मौलिक अधिकार का उल्लंघन है.
आर्टिकल 22 के मुताबिक गिरफ्तारी के बाद आरोपी को अपनी मर्जी का वकील लेने का अधिकार है. BNSS के सेक्शन 47 के मुताबिक गिरफ्तारी के बाद आरोपी के परिवार या दोस्तों को जानकारी देना जरूरी है कि गिरफ्तारी किस आधार पर की गई है. और किसकी हिरासत में है. अगर पुलिस ने Arrest के Grounds को अपने अरेस्ट फॉर्म में साफ नहीं किया है तो गिरफ्तारी या हिरासत अवैध हो जाती है.
लेकिन एक अस्वीकरण जरूरी है, BNSS के SECTION 35 के ही मुताबिक अगर पुलिस अफसर को लगे कि शिकायत उचित है, सूचना पक्की है और सबूत पक्के हैं कि आरोपी ने अपराध किया है तो सात साल से कम सजा वाले अपराधों में भी बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता है. लेकिन इसमें भी जो पैरामीटर मैंने आपको बताईं वो लागू होती हैं.
आपके सवाल
1. अगर पुलिस किसी INNOCENT को सिर्फ शक के आधार पर पकड़ ले और बाद में वो बेगुनाह साबित हो तो क्या किसी तरह का COMPENSATION मिल सकता है, उसे कैसे इंसाफ मिलेगा?
2. कोर्ट FINAL REPORT को ADMIT या REJECT करने में कितना समय लगा सकता है
3. कोई किसी की जमीन हड़प ले तो क्या कानूनी कार्रवाई संभव है?
किस्सा कानून का….
आज कहानी POSH ACT से जुड़े एक मामले की. लेकिन पहले आप ये समझ लें कि दफ्तरों में महिलाएं सुरक्षित माहौल में काम कर सकें इसके लिए बनाए गया है POSH ACT. वर्क प्लेस में ये ACT महिलाओं को ताकत देता हैं. सबको इस ACT को ध्यान से समझ लेना चाहिए, नहीं तो गलती कर बैठेंगे, किसी महिला को तकलीफ पहुचाएंगे और खुद भी फंसेंगे. ये नियम कायदे क्या हैं? अगर किसी महिला कर्मचारी ने आपके खिलाफ शिकायत की तो बहुत मुश्किल हो सकती है. इसलिए क्या नहीं करना है, ये समझना आपके लिए बेहद जरूरी है..
- साथ काम करने वाली महिला को टच करना
- सेक्सुअल फेवर की मांग करना
- सेक्सुअल कमेंट करना
- पोर्न दिखाना या सेक्स से जुड़ी हुई कोई चीज जैसे पोस्टर, कैलेंडर या तस्वीर दिखाना
- जुबानी या शारिरिक कोई ऐसा काम जो उन्हें उचित ना लगे
- वर्क प्लेस पर किसी महिला कर्मचारी को फेवर करने का इशारा या वादा
- वर्क प्लेस पर किसी महिला कर्मचारी को नुकसान पहुंचाने का इशारा या वादा
- महिला कर्मचारी के लिए माहौल को hostile बनाना
लेकिन हर कानून के दो पहलू होते हैं. इसके सही और गलत दोनों इस्तेमाल हो सकते हैं. हाल में ही मेरे एक क्लाइंट को औद्योगिक न्यायालय ने Posh act के तहत दोषी करार दिया. फिर उन्होंने मुझे अप्रोच किया और हमने हाईकोर्ट में रिट पिटीशन दाखिल की. मैं कोर्ट को बताया कि घटना के बाद भी इस महिला कर्मचारी और मेरे क्लाइंट के बीच सहमति से सहज बातचीत हो रही थी. मैंने ये भी साबित किया कि मेरे क्लाइंट की मंशा महिला कर्मचारी को परेशान करना या नुकसान पहुंचाना नहीं था. एक और खास बात ये थी कि घटना के बाद जब महिला कर्मचारी ने इस्तीफा दिया तो उस ई-मेल में सेक्शुल हैरेसमेंट का कोई जिक्र नहीं था. सेक्शुल हैरेसमेंट की शिकायत इस्तीफे के दस घंटे बाद की गई. यानी कि सेक्शुल हैरेसमेंट का आरोप एक विचार के बाद था. आखिर हाईकोर्ट ने आरोपों को बेबुनियाद मानते हुए इस केस को खारिज कर दिया.
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