प्रख्यात लेखक सलमान रुश्दी के पर हुई जानलेवा हमले के बाद उससे उबरने के बाद का रचनात्मक परिणाम है उनकी पुस्तक ‘नाइफ’- जो मूलतः मजहबी मतान्धता और बोलने की स्वतंत्रता के सन्दर्भ में लिखी गई है.
‘नाइफ: मेडीटेसंस आफ्टर अन अटेम्प्टेड मर्डर’ (2024), के लेखक सलमान रुश्दी का मानना है कि लोकप्रिय मुहावरा- “रेस्पेक्ट फॉर रिलिजन” एक तरह से एक धमकी है कि इसपर कुछ न बोला जाए. जबकि, अन्य विचारों की तरह ही मजहब भी एक विचार है जिसकी आलोचना, और इसपर व्यंग्य करने में कोई भय नहीं होना चाहिए. आलोचना और व्यंग्य से मजहब और अधिक लोकोपयोगी और समावेशी बन सकता है. और अगर इसकी अभिव्यक्ति कलात्मक तरीके से की जाए तब तो निश्चय ही इसे स्वीकारा जाना चाहिए, क्योंकि- बिना कला के हमारे विचारने की शक्ति, और ताजगी से चीजों को देखने की क्षमता का विकास नहीं हो सकता- दुनिया एक तरह से मृत हो जायेगी. कलात्मक लेखन ही नए विचारों को जन्म देती है. इसके बिना दुनिया नीरस और निरर्थक हो जायेगी.
सत्य निश्चित नहीं है. यह भी बदलता रहता है, क्योंकि प्रत्येक युग की अपनी नई ‘सत्य’ की अवधारणा होती है, जो उस समय की वैज्ञानिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक मान्यताओं पर निर्भर करती है. इसी कारण, जो कुछ एक समय में ‘सत्य’ माना जाता था, वह बाद के समय में अंधविश्वास के रूप में खारिज कर दिया जाता है. धर्म भी इसी प्रक्रिया से गुजरा है—अतीत में जो धार्मिक मान्यताएँ अकाट्य मानी जाती थीं, आज वे विज्ञान की कसौटी पर अस्वीकार्य लगती हैं. धर्म, तर्क और कल्पना का यह संघर्ष एक स्थायी विषय है, जो समाज, संस्कृति और साहित्य में अलग-अलग रूपों में प्रकट होता रहता है. धर्म, तर्क और कल्पना के बीच का यह द्वंद्व हमेशा से मानव समाज में बहस का विषय रहा है जिसने धर्म के प्रकार्यात्मकता को यथार्थ और कल्पनाशीलता के साथ जोड़े रखा और साथ ही ये द्वंद्व इस बात के घोतक है कि धर्म की प्रकार्यात्मकता सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन तर्क और विज्ञान की कसौटी पर अक्सर खरी नहीं उतरतीं.
इस दृष्टिकोण से, धर्म एक मानव निर्मित संरचना है, जिसे उस ब्रह्मांड को समझने के लिए गढ़ा गया है जो सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति के बिना अपने आप में किसी विशेष उद्देश्य से रहित प्रतीत होता है. और यही धर्म की एक प्रमुख आलोचना भी है कि अलग-अलग धर्मों की उत्पत्ति कथाएँ वैज्ञानिक वास्तविकता से मेल नहीं खातीं. धार्मिकता और अलौकिकता को नकारने के बावजूद, लेखन की प्रक्रिया में कल्पना और रहस्यवाद आवश्यक हो जाते हैं, लेकिन साहित्य की दुनिया में प्रवेश करने के लिए किसी तरह की “कल्पनात्मक असंगति” आवश्यक होती है. एक ऐसा विरोधाभास जो यथार्थवादी सोच को चुनौती देता है लेकिन इसके रचनात्मक प्रयोग का परिणाम जानलेवा साबित हो सकता है. ये इस बात को बताते है कि जब भी धर्म की आलोचना की जाती है, तो इसकी प्रतिक्रिया केवल बौद्धिक बहस तक सीमित नहीं रहती, बल्कि कई बार यह हिंसा का रूप भी ले लेती है.
धर्म को चुनौती देने वाली कल्पनाएँ अक्सर धार्मिक असहिष्णुता के कारण संकट में पड़ जाती हैं. रुश्दी के ‘सैटेनिक वर्सेज’ उपन्यास पर हुई प्रतिक्रियाएँ इस बात का उदाहरण हैं कि किस प्रकार साहित्य जब धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाती है तो इसका परिणाम भयावह हो सकता है. यहाँ यह समझना महत्वपूर्ण है कि कल्पना और आलोचना को प्रतिबंधित करने की प्रवृत्ति केवल धार्मिक संस्थानों तक सीमित नहीं है, यह समाज में व्यापक असहिष्णुता और विचारों की स्वतंत्रता के प्रति भय को भी उजागर करता है. ऐसे में सवाल उठता है—क्या समाज किसी एक ‘सत्य’ को स्थायी रूप से स्थापित कर सकता है, या हमें यह स्वीकार करना होगा कि ‘सत्य’ बदलता रहता है?
कुछ ही साल पहले प्रख्यात लेखक सलमान रुश्दी के साथ हुई जानलेवा प्रतिक्रिया के बाद उससे उबरने के बाद का रचनात्मक परिणाम है उनकी पुस्तक ‘नाइफ’- जो मूलतः मजहबी मतान्धता और बोलने की स्वतंत्रता के सन्दर्भ में लिखी गई है. उन्होंने उस लड़के A से जिसने उनपर चाकू से हमला किया, उसके साथ एक काल्पनिक संवाद में कहते भी हैं- ‘तुम हंस नहीं सकते थे, इसलिए तुमने हत्या करने का प्रयास किया’. किसी की हत्या करना भीतर के मनुष्य के मर जाने का संकेत है. मरे हुए, हास्यहीन आदमी के लिए दूसरे के जीवन का भी कोई महत्व नहीं रहता. वे गंभीरता से विचारते हैं कि एक व्यक्ति कैसे एक ऐसे व्यक्ति की हत्या कर सकता है जिसे वह जानता तक नहीं! वे मजहबी कट्टरपन और मौलवियों के बहकावे की चर्चा करते हैं. साथ ही बताते हैं कि कैसे आधुनिक तकनीक, जैसे सोशल मीडिया आदि से यह सांस्कृतिक आतंकवाद तेजी से फैलाया जा रहा है.
एक अध्याय में जब वे A से संवाद कर रहें हैं तो A कहता है कि इमाम युतुबी (कोई मौलवी) के अनुसार जो हमारे ईश्वर को नहीं मानता उसे जीने का कोई हक़ नहीं, और हमें अधिकार है कि उसका खात्मा करें. इसपर रुश्दी कहते हैं कि धरती पर अधिकांश व्यक्ति तो तुम्हारे ईश्वर को नहीं मानते. छः बीलियन ऐसे लोग हैं जो या तो ईश्वर को नहीं मानते या फिर तुम्हारे ईश्वर से उनके ईश्वर अलग तरह के हैं, तो क्या उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं? एक जगह वे ईश्वर के स्वरूप और अस्तित्व पर भी चर्चा करते हैं और कहते हैं- ईश्वर ने हमें नहीं बनाया, हमने अपनी नैतिक प्रवृतियों को एक रूप देने के लिए ईश्वर को बनाया. आज के इस धार्मिक पुनरुत्थानवाद के दौर में ऐसी उद्घोषणा सहजता से कैसे स्वीकारी जा सकती! मनुष्यता के अंत की घोषणा से मानव समुदायों में कोई हलचल नहीं होती, लेकिन ईश्वर के नकार की घोषणा मात्र से भयंकर खलबली मच जाती है.
रुश्दी अकेले उन लेखकों में से नहीं हैं जिन्होंने मजहबी आतंकवाद से सामना किया, बल्कि इसी किताब में वे ऐसे लेखकों की चर्चा करते हैं जिन्हें अपने लेखन के कारण मजहबी आतंकवाद से जूझना पड़ा- जैसे इजिप्ट के नोबेल प्राइज प्राप्त लेखक नागुइब महफूज, जिन्हें वर्ष 1994 में इस्लामिक चरमपंथ से प्रेरित एक व्यक्ति ने चाकू मार दिया था, हालाँकि वे उस हमले में किसी तरह बच गए. यह आश्चर्यजनक है कि लिखने वाले व्यक्ति को ‘नहीं पढने वाले व्यक्ति’ से खतरा है! दूसरे शब्दों में कहें तो “विचारशून्य” व्यक्ति से “विचारवान” को खतरा है. अगर असहमति हो तो एक विचार का विरोध विचार के द्वारा ही किया जाना चाहिए. हिंसा विचार की अनुपस्थिति में प्रकट होती है.
पुस्तक, लेखक के चाकू लगने से लेकर उसके बाद तक की कहानी को बताती है. इस कहानी में उनकी पत्नी है, उनके दोस्त हैं, उनके बच्चे हैं और A भी जिसने उन्हें चाकू मारा था. वे बताते हैं कि कैसे उन्होंने अपनी तरफ मौत को आते देखा और कैसे पुनर्जीवन को पाया. लेखक ने मृत्यु को करीब से महसूस किया था इसलिए वे लिखते हैं जब यह आती है तब पूरी दुनिया आपसे दूर होती दिखाई देती है, और एक भयानक अकेलेपन से आप घिर जाते हैं. जब उन्हें चाकू मारा गया तो दुनिया के बहुत सारे देशों से उनके जीवन के लिए शुभकामनाएं भेजी गई, तो दूसरी तरफ दुनिया के एक बड़े हिस्से के मुस्लिमों में इस दुर्घटना पर प्रसन्नता जाहिर की गई.
भारत के बारे में वे लिखते हैं- India, the country of my birth and my deepest inspiration, on that day found no words”. रुश्दी भारत में उपजे “हिन्दू धर्मान्धता” पर भी रोष व्यक्त करते हैं कि कैसे यह भारतीय लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है. भारतीय समाज की वैज्ञानिकता में आए अवरोध से वे क्षुब्ध दीखते हैं. तालिबान, ईरान और सऊदी अरब तक की मुखर आलोचना करते हैं कि इसने मानवीय अधिकारों सहित न्याय के अन्य पक्षों की लगातार हत्या की है. इन देशों ने मजहब के नाम पर जिस तरह से सामाजिक या व्यक्तिगत नैतिकता को थोपने का प्रयास किया है वह घनघोर रूप से मानवीय अस्तित्व के हितों के प्रति अनैतिक है. किताब पढ़ी जा सकती है, अगर आप मतभेद को स्वीकारने का सामर्थ्य रखते हैं. लेखक ने एक उदार लोकतान्त्रिक और स्वतन्त्र समाज का सपना देखा है. यह सपना हो सकता है समय से आगे का हो, लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि लेखक का सपना समय से आगे का ही सपना होता है. समय के साथ का सपना सामान्य लोग देखते हैं!
केयूर पाठक हैदराबाद के CSD से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं… अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं… इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है…
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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