यमुना को उसकी के पिता ने महज कुछ हजार रुपयों के लिए बेच दिया था. आज वह जीबी रोड की दुनिया से निकल कर एनजीओ के साथ काम कर रही है. जब वह अपने परिवार में लौटना चाह रही थीं तो उन्हें ‘गंदी औरत’ कहकर बहिष्कृत कर दिया गया.
बीते सप्ताह महिला दिवस था. इस मौके पर समाज से बहिष्कृत, पर समाज के ही एक अंग से मिलने का मौका मिला. ऐसी महिलाएं जो ह्यूमन ट्रैफिकिंग, अपहरण या फिर परिचितों या खुद घर वालों के हाथों ही दगा का शिकार हो दिल्ली के जीबी रोड पर मौजूद कोठों तक पहुंच गई. गीतांजली बब्बर, जो कट कथा नाम के एनजीओ की संस्थापक हैं और बीते 15 साल से इस इलाके में समाज सेवा का काम कर रही हैं उनसे बातचीत करने का मौका मिला. कुछ ऐसे राज खुले जो मेरी देह को चीर कर आर पार हो गए. इस मुलाकात के दौरान गीतांजली ने मुझे बताया कि एक सेक्स वर्कर ने एक ही दिन (24 घंटों में) 70 क्लाइंटस को डील किया. यह एक बात मेरे जहन में ऐसी बसी कि मैंने उसकी कहानी को कागज पर उतारने का सोचा. यहां में आपसे साझा कर रही हूं यह दर्दनाक वाकया.
जीबी रोड पर अपनी जिंदगी के 25 साल गुजारने वाली एक सेक्स वर्कर यमुना (बदला हुआ नाम) से बात करने का मौका मिला. यमुना ने जीबी रोड की अपनी आपबीती सुनाई वो मेरी रूह की नींव के आखरी पत्थर तक को चोट दे गई. यमुना ने बताया कि यहां महिलाओं को अक्सर पूरी तरह नशे में रखा जाता है, ताकि वे ज्यादा से ज्यादा कस्टमर्स को ले पाएं. यहां मैं आपको यमुना की जुबानी ही उसकी कहानी सुना रही हूं…
नाम : यमुना (बदला हुआ नाम)
उम्र : 35 साल
काम : न पूछो तो बेहतर
आज से 22 साल पहले…
वो गहरी काली रात थी, मैंने कई बार आंखें जोर से खोलीं और बंद कीं, अपने ही मुंह पर थप्पड़ जड़ें, पर नहीं मैं सो नहीं रही थी… वहां चारों ओर घुप्प सन्नाटा पसरा था, मेरे चारों तरफ खुरदुरी दीवारें एक दूसरे को छूने को बेकरार थीं, दीवारों में लगी सीलन दम घोट रही थी, एक घूंट सांस लेने में मेरी सांस रुक रही थी… हल्की दूरी पर झरोंखों से छन-छन कर एक भयानक फुंकार आ रही थी… मानों पवित्र यमुना में कालिया जहर फैला रहा हो.
अंधेरे में जब मैंने बैठने की कोशिश कि तो छत से सिर जा लगा और मेरे माथे से खून बहने लगा… कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं हूं कहां, अजीब की गफतल हो रही थी… एक झरोंखे से जब झांक कर देखा तो बाहर कुछ 7बाए 7 फीट का हॉल था… उसमें करीब 20-30 औरतें बैठी थीं, पर ये क्या वो सभी लगभग निर्वस्त्र ही थीं, बदन पर कपड़े की इतनी हल्की परत कि हवा का हल्का सा झोंके से ही वो गिर जाएं… लेकिन चेहरे पर परत-दर-परत मेकअप… किसी के हाथ में शराब थी, तो किसी के हाथ में हुक्का, तो कई बीड़ी से खुद सुलगा रही थी… मैं घबरा गई और मैंने उस जगह से निकलने के लिए फिर से उठने की कोशिश की. पर ऐसा लग रहा था जैसे मुझे लकवा लगा हो, सिर घूम रहा था और बदन भारी था…
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मैंने मदद के लिए फिर झरोंखों का रुख किया, तो देखा कि एक अधेड़ महिला को 4-5 आदमियों ने घेर रखा था और वे उसके सीने पर हाथ मार-मार कर फूहड़ से ठहाके मार रहे हैं. अधेड़ महिला के हाथों में नोटों का एक बंडल था, किसी बात पर तो वे नाराज लग रही थी कि अचानक उनमें से एक आदमी ने उसके बंडल पर कुछ और नोट रख दिए और वह महिला मुस्कुरा उठी…
आड़े तीरछे कदम रखते वो पांचों आदमी अब मेरे झरोखे की तरफ आने लगे… मेरी उम्मीद जगी कि शायद ये मुझे यहां इस हाल में देख लेंगे और बचा लेंगे. मैंने मन ही मन ऊपर वाले का शुक्र किया और राहत की सांस ली. मुझे लग रहा था कि मुझे कहीं लकवा लगा है और मैं किसी गहरे कुएं में गिर गई हूं… मैंने फिर उन्हें आवाज लगाने की कोशिश की और मेरी ऊंह सुनकर वे चहक कर तेजी से मेरी तरफ ही आने लगे… मैं सूकून से लेटी थी कि अब मेरी जान बच जाएगी.
कुछ ही देर में मैंने देखा मेरे पैरों की तरफ एक हाथ उभरा, उस हाथ में फोन था और उस फोन की टॉर्च ऑन थी. अब जो मैंने देखा उसके बाद मेरी रीढ़ में सिहरन हो गई… रोशनी ने जैसे मेरे अंतरमन को आंखें दी हों और मेरे दोनों हाथ काट दिए हों… जहां मैं लेटी या यूं कहें कि पड़ी थी वह कोई कूंआ नहीं था, बल्कि यह एक नीची छत वाला घुरसाल (परछत्ती जैसा बेहद छोट कमरा) था. मेरे चारों तरफ एक-एक हाथ के फासले पर दीवारें थीं एक जमीन को छूती छत… पैरों की तरफ इस कमरे का मुंह था, हां मुंह ही था. उसे दरवाजा कहना उचित न होगा क्योंकि उस जगह न कोई चौखट थी न पल्ले, बस दो सिरों पर कीलों से बंधे नाड़े पर लटकता फटा सा किसी पुरानी साड़ी का टुकडा लगा था…
फोन की टॉर्च मेरी आंखों में चुभ रही थी कि अचानक उसके पीछे से खून से सनी दो आंखों ने झांका, उस चेहरे पर वो आंखें ऐसी थीं मानों कोयले के एक कोने पर आंच लगाकर सुलगाया जा रहा हो… वो थोड़ा और आगे बढ़ा, मुझे दिखे उसके अफीम और तंबाकू से सने दांत… मैं कुछ समझ पाती इससे पहले ही एक खुरदरा हाथ मेरी पिंडलियों को सहलाता सा महूसस हुआ. जब मैंने नजरें पिंडलियों पर रेंगते उसे हाथ की तरफ फेरीं तो मानों किसी ने सहत्रों मन लावा मेरे शरीर एक साथ उड़ेल दिया… मैंने देखा मेरे शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था, खुद मैंने अपने आप को आज तक ऐसे न देखा था… और मुझे उस लकवे की हालत में भी पूरे बदन में असहनिय पीड़ा और तड़पन महसूस होने लगी…
मैं बस वहां से भाग जाना चाहती थी, किसी तरह से उठकर उस आदमी का मुंह तोड़ देना चाहती थी. लेकिन मैं कर पाई तो सिर्फ गिनती… एक, दो, तीन, चार, …., बीस, इक्कीस,… तीस… पचास… और शायद सत्तर…
रातभर या जानें दिनभर, मुझे तो पहर और समय का अंदाजा भी नहीं था, पूरे सत्तर बार अफीम, बीड़ी, तंबाकू की बदबू और खुरदुरे हाथ मेरे बदन पर आते-जाते रहे.
कई हफ्तों तक ये सिलसिला जारी रहा. वो अधेड़ औरत या कोई दूसरी औरतें मुझे बस कुछ नशीला पिलाती और तंबाकू की बदबू और खुरदुरे हाथ सिलसिलेवार चलने शुरू हो जाते. फिर एक दिन ऐसा आया जब मुझे बाहर निकाला गया. जानें क्या पर कुछ तो खिलाया भी गया. मैं जैसे एक जिंदा लाश थी या कि लकवे की ऐसी मरीज जिसमें सिर्फ सांसें बची थी…
वो सचमुच बेहद काली रात थी, घनी काली रात, इतनी लंबी कि बरसों से मैं उसके सवेरे का इंतजार कर रही हूं… जानें इस रात के पार कोई सुबह है भी या नहीं, जानें ये मेरे जीवन की आखिरी रात है क्योंकि इसके बाद मेरे जीवन में कभी सूरज न उगा…
आज मैं 35 साल की हो गई हूं, अंधेरा आज भी उतना ही काला लगता है, बस अब झरोंखों से रिसने वाले जहर में मेरी दबी सांसों का धुंआ भी मिल जाता है और बदलें में मैं इन झरोंखों से भर उबासी, फफूंदी और सीलन वाली कुछ ताजा सांसे.
आज 22 साल बाद…
कुछ इसी तरह दिन रात गुजारते और 20-30 से 70 तक की गिनती करने मैंने उस छोटे कमरे में 22 साल गुजारे…
मैं नहीं जानती मैं यहां तक कैसे पहुंची, शायद भूल चुकी हूं अपना पूरा अतीत. मुझे मेरे अतीत के बारे में अगर कुछ याद है तो बस एक नम्बर, ’70’. 70 बार तंबाकू की बदबू, 70 बार खुरदुरे हाथों से खोदा गया मेरा बदन और 70 बार मरने के बाद मेरा ये नया जनम…
नोट :
यमुना को उसकी के पिता ने महज कुछ हजार रुपयों के लिए बेच दिया था. आज वह जीबी रोड की दुनिया से निकल कर एनजीओ के साथ काम कर रही है. जब वह अपने परिवार में लौटना चाह रही थीं तो उन्हें ‘गंदी औरत’ कहकर बहिष्कृत कर दिया गया. कहते हैं कि औरत ममता की मूरत होती है. लेकिन इतने दर्द से गुजर कर भी जब जीवन में जरा सा नेह चाहती है तो उसे गंदा करार दे दिया जाता है. दुख है, लेकिन इस दुख का भी यकीनन कोई अंत होगा और यमुना की रात का सवेरा भी जल्दी ही आएगा…
(दृष्यों को अधिक सटीक बनाने और हालातों की मार्मिकता को अंतिम तह तक समझाने और रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए लेखक की कल्पनाशीलता का जगह-जगह इस्तेमाल किया गया है.)
अनिता शर्मा एनडीटीवी खबर में एसोसिएट एडिटर हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
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