March 7, 2025
Explainer : गर्म हुई धरती में आफत अभी और भी, सबसे गर्म फरवरी के बाद अचानक ठंडी हवाएं कहां से आ गईं?

Explainer : गर्म हुई धरती में आफत अभी और भी, सबसे गर्म फरवरी के बाद अचानक ठंडी हवाएं कहां से आ गईं?​

Weather Update : पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली-एनसीआर और उत्तरप्रदेश के कई इलाकों में तापमान में कमी आई है और ठंडी हवाएं चल रही हैं. हालांकि, दिन में सूरज की तपिश हवाओं की ठंडक से लड़ने की कोशिश करती रही. लेकिन रातें फिर से ठंडी हो गई हैं. मौसम विभाग का अनुमान है कि 6 मार्च के बाद मौसम फिर बदलेगा और सर्दी कम हो जाएगी.

Weather Update : पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली-एनसीआर और उत्तरप्रदेश के कई इलाकों में तापमान में कमी आई है और ठंडी हवाएं चल रही हैं. हालांकि, दिन में सूरज की तपिश हवाओं की ठंडक से लड़ने की कोशिश करती रही. लेकिन रातें फिर से ठंडी हो गई हैं. मौसम विभाग का अनुमान है कि 6 मार्च के बाद मौसम फिर बदलेगा और सर्दी कम हो जाएगी.

वसंत के इस मौसम में उत्तर भारत के कई इलाकों में लोग जब अपने रजाई-कंबल, जैकेट-स्वेटर वापस पैक करने जा रहे थे कि सर्द मौसम अचानक लौट आया. हवाओं में ठंडक ऐसी आई कि लोगों को फिर गर्म कपड़े पहनने पड़ रहे हैं. दिल्ली-एनसीआर की हवा में ठंड कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई. बीते कुछ दिनों में मौसम ने जो अंगड़ाई ली है. उससे सर्दियों के फिर लौटने का अहसास हो गया. ये सर्दी कब तक रह सकती है, क्योंं अचानक लौट आई वो भी तब, जब फरवरी का मौसम ऐतिहासिक तौर पर गर्म रहा. आने वाले दिनों में किस तरह का मौसम हम देखने जा रहे हैं. इस बार की गर्मियां क्या गुल खिलाएंगी. इस सब पर हम करेंगे बात.

उत्तर भारत के ऊंचे पर्वतीय इलाकों में अचानक बर्फबारी और बारिश से मौसम ठंडा हो गया है. जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में फरवरी के आखिरी दिन और मार्च के पहले हफ्ते में बर्फबारी हुई है. इस वजह से कई जगहों पर सड़कें बंद हो गईं. कुछ इलाकों में भारी बर्फबारी के कारण हिमस्खलन और भू-स्खलन की घटनाएं भी देखने को मिली. भारी बर्फबारी के कारण बद्रीनाथ के पास माना गांव से महज 500 मीटर दूर बॉर्डर रोड ऑर्गैनाइज़ेशन के एक लेबर कैंप पर भूस्खलन से बड़ा हादसा हो गया. 54 मजदूर हिमस्खलन के कारण बर्फ में दब गए. करीब साठ घंटे चले बचाव अभियान के बाद 54 में से 46 मजदूरों को बचा लिया गया. लेकिन आठ मजदूरों की मौत हो गई. हिमस्खलन के इस हादसे से ये साफ है कि किस पैमाने पर कुछ ही दिनों में ऊंचे पर्वतीय इलाकों में भारी बर्फ पड़ गई. पर्वतीय इलाकों में बर्फबारी का असर निचले पहाड़ी इलाकों और मैदानी इलाकों में भी खूब महसूस हो रहा है.

6 मार्च के बाद मौसम फिर बदलेगा

पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली-एनसीआर और उत्तरप्रदेश के कई इलाकों में तापमान में कमी आई है और ठंडी हवाएं चल रही हैं. हालांकि, दिन में सूरज की तपिश हवाओं की ठंडक से लड़ने की कोशिश करती रही. लेकिन रातें फिर से ठंडी हो गई हैं. मौसम विभाग का अनुमान है कि 6 मार्च के बाद मौसम फिर बदलेगा और सर्दी कम हो जाएगी. स्काईमेट वेदर के मुताबिक पश्चिमी हिमालयी इलाकों में अगले 24 घंटों में हल्की से सामान्य बारिश और बर्फबारी होगी. इसके बाद तापमान में बढ़ोतरी शुरू होगी. हमने मौसम वैज्ञानिक डॉ आनंद शर्मा से पूछा कि जब फरवरी गर्म रही तो मार्च में अचानक सर्द मौसम क्यों लौट आया.

मार्च में क्यों लौटी सर्दियां? मौसम वैज्ञानिक ने क्या कहा?

मौसम वैज्ञानिक डॉ आनंद शर्मा ने बताया कि फरवरी के असाधारण तौर पर गर्म रहने के बाद उत्तर भारत में लोगों को जब लग रहा था कि गर्म कपड़े रखने का समय आ गया तो अचानक मार्च की शुरुआत में सर्दियां लौट आईं. आनंद शर्मा ने बताया कि मौसम में अचानक आए बदलाव और ठंड बढ़ने के पीछे एक के बाद एक आए दो पश्चिमी विक्षोभ यानी वेस्टर्न डिस्टर्बेंस हैं. वेस्टर्न डिस्टर्बेंस एक वेदर सिस्टम है जो अपने साथ बर्फ और बारिश लेकर भारतीय उपमहाद्वीप की ओर आता है. वेस्टर्न डिस्टर्बेंस सर्दियों में उठने वाले वो निम्न दबाव के तूफानी बादल हैं जो भूमध्य सागर, कैस्पियन सागर और काला सागर से उठते हैं और पूर्व की ओर चलते हुए हिमालय के आर पार बारिश और बर्फबारी की वजह बनते हैं. भारतीय उपमहाद्वीप में वेस्टर्न डिस्टर्बेंस का विस्तार दक्षिण पूर्वी नेपाल और उत्तरी बांग्लादेश तक फैला होता है.

वेस्टर्न डिस्टर्बेंस का समय भी कुछ बदला

दिसंबर से लेकर मार्च के महीनों तक तक इनका आना सामान्य बात है. पश्चिमी विक्षोभ हमारे लिए इसलिए खास हैं, क्योंकि इनकी वजह से सर्दियों में हिमालय में बर्फबारी होती है और यही बर्फ जब गर्मियों में पिघलती है तो गर्मी के उन दिनों में हमारे लिए पानी की गारंटी बन जाती है. हालांकि, पिछले कुछ अर्से में देखा गया है कि वेस्टर्न डिस्टर्बेंस का समय भी कुछ बदला है. वो जनवरी, फरवरी में कम हुआ है और मार्च यहां तक कि अप्रैल में बढ़ा है. ये भी देखा गया है कि सर्दियां अब पहले से देर से आ रही हैं और उनकी समयावधिभी सिकुड़ रही है.

बेमौसम बारिश और बर्फबारी का सबसे ज्यादा असर किसानों पर

मौसम के अचानक करवट लेने तापमान में अचानक बहुत ज्यादा अंतर आने या फिर बेमौसम बारिश और बर्फबारी का सबसे ज्यादा असर होता है हमारे किसानों पर, जिनकी आजीविका खेती पर ही आधारित होती है. इन दिनों रबी की फसल खेतों में हैं. गेहूं में बालियां आ रही हैं. ये मौसम होता है जब खेतों में जौ, जई, मटर, आलू, टमाटर, गोभी, प्याज़, सूरजमुखी, सरसों जैसी फसलें लहलहा रही होती हैं. पर्वतीय इलाकों में सेब में इन दिनों फूल आने वाले होते हैं. आड़ू, खुबानी, नाशपाती जैसे फलों के पेड़ों में भी फूल आने की शुरुआत होती है. ऐसे में अचानक बारिश और बर्फ़बारी का उन पर असर पड़ना तय है. ऐसे में किसानों के लिए मौसम वैज्ञानिकों की सलाह काफ़ी ख़ास हो जाती है.

यूरोपियन यूनियन की कोपर्निकस क्लाइमेट चेंज सर्विस यानी C3S के मुताबिक पिछले साल की फरवरी यानी फरवरी 2024 ने दुनिया भर में औसत गर्मी का रिकॉर्ड तोड़ा था और वो आज तक रिकॉर्ड किया गया. फरवरी का सबसे गर्म महीना रहा था. C3S के मुताबिक फरवरी 2024 पूर्व औद्योगिक औसत से 1.8 डिग्री ज़्यादा गर्म रहा था. पेरिस समझौते में तय डेढ़ डिग्री की सीमा से ज़्यादा. लेकिन इस साल जनवरी के आंकड़े आ चुके हैं और उसने पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. C3S के मुताबिक जनवरी 2025 आज तक सबसे गर्म जनवरी रहा. 1991 से 2020 के औसत से 0.79 डिग्री ज़्यादा. अगर पूर्व औद्योगिक स्तर के औसत तापमान के मुक़ाबले देखें तो जनवरी 2025, 1.75 डिग्री गर्म रहा.

बीते 19 महीनों में ये 18वां महीना रहा जब वैश्विक औसत तापमान पूर्व औद्योगिक औसत तापमान से 1.5 डिग्री से ज़्यादा गर्म रहा, जो पेरिस समझौते की पहली लिमिट तय की गई थी. पेरिस समझौते की लिमिट के साथ कितना खिलवाड़ हो चुका है. इस पर भी हम करेंगे बात. जब भी क्लाइमेट चेंज की बात होती है तो एक शब्द बार बार सामने आता है -Pre-Industrial Average Temperature यानी पूर्व औद्योगिक औसत तापमान. इसे समझे बगैर क्लाइमेट चेंज में हो रहे बदलाव की गंभीरता का आकलन नहीं हो सकता.

पूर्व औद्योगिक औसत तापमान का मतलब है 1850 से 1900 के बीच के दौर का वैश्विक औसत तापमान. आज तापमान में हो रहे बदलावों के लिए इसे बेसलाइन माना जाता है. 50 साल के इस दौर को इसलिए चुना गया है क्योंकि इसी दौरान दुनिया में तेजी से औद्योगीकरण हुआ. फॉसिल फ़्यूल जैसे कोयला, तेल वगैरह के इस्तेमाल से बड़ी ही तेजी से ग्रीन हाउस बढीं जिन्होंने 1850 से पहले के मुक़ाबले आबोहवा पर ज़्यादा असर डाला. इसीलिए इस औसत तापमान को आधार मानकर आज के तापमान का आकलन लगाया जाता है और ये अंदाजा लगता है कि हमारी गतिविधियों के कारण क्लाइमेट कैसे बदला है या बदल रहा है.

क्लाइमेट चेंज की वजह से धरती का बढ़ता औसत तापमान हम पर कितना असर डाल सकता है. इसकी वजह से आए दिन बेमौसमी बदलाव देखने को मिलते हैं. गर्मियां और गर्म हो रही हैं. बरसात के दिनों में कहीं सूखा पड़ सकता है तो कहीं अतिवृष्टि हो सकती है. सर्दियां इस वजह से सिकुड़ती जा रही हैं, चक्रवाती तूफ़ानों के पैटर्न पर भी असर पड़ा है. इससे नुकसान कम से कम हो इसके लिए जरूरी है कि क्लाइमेट चेंज की रफ़्तार को कम किया जाए.

इससे निपटने के लिए हर साल दुुनिया के किसी एक देश में क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस होती हैं. इसी दिशा में 2015 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में हुई संयुक्त राष्ट्र की क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस ऐतिहासिक रही. बैठक का सबसे बड़ा नतीजा ये रहा कि दुनिया के तमाम देशों के बीच इस बात पर एक राय बनी कि दुनिया के औसत तापमान को पूर्व औद्योगिक औसत तापमान से डेढ़ डिग्री अधिक तक ही सीमित रखा जाए और किसी भी हाल में 2 डिग्री से अधिक न बढ़ने दिया जाए.

इसके लिए सभी देशों को अपनी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा जो तभी हो सकता है जब फॉसिल फ़्यूल जैसे कोयला, तेल और गैस की खपत को कम से कम किया जाए. सभी देश क्लाइमेट चेंज के असर से निपटने के लिए खुद को लचीला बनाएं, अपनी नीतियों में ज़रूरी बदलाव करें. सभी देश पारदर्शी तरीके से ये बताएं कि क्लाइमेट चेंज को घटाने के लिए उन्होंने क्या कदम उठाएं हैं, क्या लक्ष्य तय किए हैं. इसके लिए Nationally Determined Contributions यानी ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ जिसे संक्षेप में NDC कहा गया, वो तय किए गए जिसके तहत देशों ने क्लाइमेट चेंज से निपटने की अपनी योजनाएं संयुक्त राष्ट्र को सौंपी. इनमें ये बताया गया कि ग्रीन हाउस गैसों को देश कैसे कम करेंगे, इसे क्लाइमेट चेंज से निपटने के लिए हर देश के नेतृत्व का वादा मानिए.

हर पांच साल पर देश अपने NDC को अपडेट करते हैं. ये समीक्षा की जाती है कि वादे पर कितना अमल हुआ और कितना बाकी है. तो पेरिस समझौते ने दुनिया को बेहतर और जीने लायक बने रहने देने के लिए एक बड़ा लक्ष्य तय किया. देश स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़े. लेकिन लगता नहीं कि इस दिशा में उतना हासिल हुआ है जितना होना चाहिए था. इसका उदाहरण है कोपर्निकस क्लाइमेट चेंज सर्विस यानी C3S की रिसर्च के नतीजे.

C3S के मुताबिक पिछला साल 2024 दुनिया का सबसे गर्म साल रहा. यानी जबसे रिकॉर्ड रखे जाने शुरू हुए तब से सबसे गर्म साल. ये पहला कैलेंडर इयर रहा जब वैश्विक औसत तापमान पूर्व औद्योगिक औसत से डेढ़ डिग्री से ऊपर चला गया. पिछले साल के औसत ने ही रिकॉर्ड नहीं तोड़ा, बल्कि पिछले साल का हर महीना बीते सभी सालों के उसी महीने से ज़्यादा गर्म रहा. C3S दुनिया के अलग अलग देशों की प्रयोगशालाओं के आंकड़ों को जुटाकर उनका विश्लेषण करता है और फिर नतीजे पर पहुंचता है. 2024 के इतना गर्म होने के पीछे सबसे बड़ी वजह मानव जनित कारणों से तापमान का बढ़ना है. इसके अलावा अल नीनो जैसी मौसमी प्रक्रियाएं भी पिछले साल के ज़्यादा गर्म रहने की एक वजह रहीं. C3S के नतीजों में ये भी सामने आया है कि पिछले दस साल का हर साल यानी 2015 से 2024 तक का हर साल आज तक के 10 सबसे गर्म सालों में से एक रहा.

चीन ने सबसे ज़्यादा गीन हाउस गैसों का किया उत्सर्जन

सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने के मामले में सबसे ऊपर आता है अमेरिका. लेकिन पिछले कई साल से चीन ने उसकी जगह ले ली है. क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के मुताबिक साल 2022 में चीन ने सबसे ज़्यादा गीन हाउस गैसों का उत्सर्जन किया. दुनिया के कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का 30% अकेले चीन ने किया. उसके बाद दूसरे स्थान पर अमेरिका और तीसरे स्थान पर भारत है और चौथे स्थान पर यूरोपियन यूनियन. फिर रूस, जापान, ब्राज़ील और अन्य देशों का नंबर आता है. दुनिया के 20 सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देश दुनिया के कुल प्रदूषण का 83% प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार हैं.

अगर प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस उत्सर्जन के हिसाब से देखें तो ये हैं दुनिया में ये ये बीस देश सबसे आगे हैं. क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के मुताबिक 2022 में सऊदी अरब सबसे आगे रहा, उसके बाद ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा रहे. इसका मतलब ये है कि प्रति व्यक्ति ये देश सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं. चीन कुल प्रदूषण फैलाने में सबसे ऊपर है. लेकिन बड़ी आबादी के कारण उसका प्रति व्यक्ति प्रदूषण कम हो जाता है. हालांकि, फिर भी 10 टन के साथ वो काफी ज़्यादा है. 2022 में चीन की आबादी दुनिया में सबसे ज़्यादा थी और अब वो जगह भारत ने ले ली है. बड़ी आबादी के कारण भारत का भी प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन काफ़ी कम यानी सिर्फ़ 2.5 टन है, जो चीन से लगभग एक चौथाई ही है.

चीन और भारत जैसे विकासशील देशों के मामले में खास बात ये है कि इनके आगे विकास और औद्योगीकरण की संभावनाएं अभी काफी ज़्यादा हैं इसलिए इनका उत्सर्जन बढ़ेगा, जबकि विकसित देश इस मामले में पहले ही काफी तरक्की कर चुके हैं. यही वजह है कि क्लाइमेट चेंज से निपटने के मामले में विकसित देशों की जिम्मेदारियां बढ़ जाती है. लेकिन दुनिया का सबसे औद्योगिक देश अमेरिका ही इस ज़िम्मेदारी से भाग रहा है. डोनल्ड ट्रंप दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं. पहले दौर में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अमेरिका को पेरिस समझौते की जिम्मेदारियों से बाहर कर दिया था, जो बाइडेन अमेरिका को फिर पेरिस समझौते में ले आए. लेकिन ट्रंप दूसरी बार अमेरिका बने तो फिर उन्होंने अपने देश को पेरिस समझौते के तहत जिम्मेदारियों से अलग कर दिया.

मौसम वैज्ञानिक डॉ आनंद शर्मा ने बताया कि जिस पर जितनी बड़ी ज़िम्मेदारी वो उतना ही भाग रहा है. ये गर्म होती जा रही दुनिया के लिहाज़ से बहुत ही चिंता की बात है. ख़ैर चलते चलते ये देख लेते हैं कि ये गर्मियां कैसी रह सकती हैं.

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