हाइपरलूप एक तरह का बेलनाकार रास्ता है जो अंदर से खोखला होता है. एक लंबे सिलिंडर की तरह या ये समझ सकते हैं कि किसी लंबे बड़े पाइप की तरह जिसके अंदर ऐरोडायनैमिक पॉड्स या कैप्स्यूल्स काफ़ी रफ़्तार में दौड़ेंगी. लेकिन आप कहेंगे कि इसके लिए हाइपरलूप बनाने की ज़रूरत क्या है. ये काम तो ज़मीन पर भी हो सकता है.
कल्पना कीजिए कि आप दिल्ली से जयपुर या दिल्ली से देहरादून आधे घंटे में पहुंच जाएं. चेन्नई से बेंगलुरू या कोलकाता से भुवनेश्वर पौने घंटे में पहुंच जाएं या फिर मुंबई से बेंगलुरू एक घंटे में पहुंच जाएं और हवाई जहाज़ से नहीं जमीन के ही रास्ते. रेल से भी नहीं, सड़क से भी नहीं, पानी के जहाज़ से भी नहीं. इन तीनों रास्तों से तो इतनी रफ़्तार लगातार कायम रख पाना वैसे भी अभी संभव नहीं है तो फिर कैसे ? जवाब है हाइपरलूप… सार्वजनिक परिवहन का पांचवां तरीका… AI और क्वांटम कंप्यूटिंग के घोड़े पर सवार विज्ञान और टैक्नॉलजी की दुनिया इस सपने को भी जल्द ही साकार करने वाली है. दुनिया के कई देशों में इस सपने को ज़मीन में उतारने की कोशिशें सही दिशा में चल रही है. इनमें भारत भी शामिल है.
प्रयोग के तौर पर भारत का पहला टेस्ट हाइपरलूप बन कर तैयार हो चुका है. रेल मंत्रालय के आर्थिक सहयोग से आईआईटी मद्रास ने अपने कैंपस में 422 मीटर लंबा ये हाइपरलूप तैयार किया है. इस हाइपरलूप में 700 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से कार दौड़ सकती है. हालांकि, ये कार कोई आम कार नहीं होगी. ये होंगी बिलकुल ही अलग साई फ़ाई फिल्मों जैसी पॉड्स या कैप्सूल्स जिनमें बैठकर यात्री सफ़र कर पाएंगे. रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा कि सरकार और अकादमिक सहयोग से भविष्य का नायाब परिवहन तैयार हो रहा है. 422 मीटर का पहला पॉड इस टैक्नॉलजी को विकसित करने में अहम साबित होगा. समय आ गया है जब हाइपरलूप प्रोजेक्ट को और विकसित करने के लिए दस-दस लाख डॉलर की पहली दो किस्तों के बाद दस लाख डॉलर की तीसरी किस्त आईआईटी मद्रास को दी जाएगी.
आईआईटी मद्रास ने हाइपरलूप का प्रोटोटाइप तैयार कर लिया है. ये इस दिशा में मील का बड़ा पत्थर है. अब इस हाइपरलूप में पॉड्स को तेज़ रफ़्तार में चलाने का टेस्ट किया जाएगा. सवाल ये है कि ये हाइपरलूप काम कैसे करेगा. इसमें ऐसी क्या ख़ासियत है कि इसके अंदर पॉड्स को इतनी तेज़ी से एक जगह से दूसरी जगह भेजा सकता है.
Hyperloop कैसे काम करता है?
हाइपरलूप एक तरह का बेलनाकार रास्ता है जो अंदर से खोखला होता है. एक लंबे सिलिंडर की तरह या ये समझ सकते हैं कि किसी लंबे बड़े पाइप की तरह जिसके अंदर ऐरोडायनैमिक पॉड्स या कैप्स्यूल्स काफ़ी रफ़्तार में दौड़ेंगी. लेकिन आप कहेंगे कि इसके लिए हाइपरलूप बनाने की ज़रूरत क्या है. ये काम तो ज़मीन पर भी हो सकता है. यहीं पेच है. हम जानते हैं कि कोई भी चीज़ जब किसी सतह पर चलती है तो उसे घर्षण यानी Friction का सामना करना पड़ता है. इस कारण उसकी रफ़्तार घट जाती है. ऊपर से घर्षण में काफ़ी ऊर्जा भी खर्च होती है. यानी गाड़ी जितनी तेज़ चलने की कोशिश करेगी, उतना ज़्यादा घर्षण होगा जो रफ़्तार को कम करेगा और ऊर्जा भी ज़्यादा लगेगी. इसी समस्या का जवाब है हाइपरलूप. स्टेशन पहुंचकर यात्री जब पॉड में बैठ जाएगा तो वो सील हो जाएगी. इसके बाद Linear इलेक्ट्रिक मोटर ऑन होंगी और पॉड हाइपर लूप में चलना शुरू करेगी जो एक लो प्रेशर ट्यूब है, जिसमें वैक्यूम है.
इस हाइपर लूप में घर्षण यानी friction को कम करने के लिए magnetic levitation यानी maglev टैक्नॉलजी काम करेगी जो पॉड की रफ़्तार तेज़ होते ही उसे ट्रैक से थोड़ा सा ऊपर उठा देगी. यानी ट्रैक के साथ पॉड का सीधा संपर्क नहीं रहेगा. इसका मतलब है कि घर्षण भी नहीं होगा. इतना ही नहीं, जब कोई चीज़ दौड़ती है तो उसे हवा से घर्षण का सामना भी करना पड़ता है. हवा उसकी रफ़्तार रोकती है. हाइपरलूप में इसका भी रास्ता निकाला गया है. जैसा हमने बताया लूप के अंदर वैक्यूम होगा यानी हवा नहीं होगी तो इस वजह से भी रफ़्तार कम नहीं होगी. इससे पॉड को न्यूनतम घर्षण के साथ काफ़ी तेज़ी से दौड़ने में मदद मिलेगी और कुछ ही क्षणों में वो तूफ़ानी रफ़्तार में आ जाएगी. पॉड जिसमें यात्री बैठे होंगे, उसमें पूरा इंटर्नल वेंटिलेशन होगा. जब पॉड अपने गंतव्य स्टेशन पर पहुंचेगी तो उसे धीमा करने के लिए लीनियर मोटर्स काम आएंगी. पॉड रुकेगी और यात्री उससे उतर जाएंगे.
लेक्ट्रोमैग्नेट्स से ही ट्रेन का प्रोपल्शन सिस्टम काम करेगा
हाइपरलूप में एक बात फिर समझने और समझाने की ज़रूरत है. आख़िर जिस मैग्नेटिक लेविटेशन के कारण पॉड पटरी से ऊपर उठेगी वो काम कैसे करती है. दरअसल होता ये है कि ट्रेन के इलेक्ट्रोमैग्नेट पटरी में लगे मैग्नेट्स को ऊपर की ओर धकेलते हैं. वैसा ही जैसा आपने महसूस किया होगा दो मैग्नेट्स यानी चुंबकों के साथ. अगर उनके विपरीत ध्रुव यानी नॉर्थ और साउथ पोल पास हों तो वो एक दूसरे के क़रीब खिंचती हैं और अगर एक जैसे पोल्स यानी नॉर्थ-नॉर्थ या साउथ-साउथ पोल क़रीब आएं तो मैग्नेट एक दूसरे को विपरीत दिशा में धकेलती हैं जिसे Repulsive force कहते हैं. हाइपरलूप के अंदर पॉड्स और पटरी के बीच यही होगा. दोनों के इलेक्ट्रोमैग्नेट एक दूसरे को विपरीत दिशा में धकेलेंगे जिससे पॉड, पटरी के कुछ ऊपर तैरती रहेगी और उसे फ्रिक्शन का सामना नहीं करना पड़ेगा. ये सब कुछ पूरी तरह कंट्रोल्ड होगा. इलेक्ट्रोमैग्नेट्स से ही ट्रेन का प्रोपल्शन सिस्टम काम करेगा जो ट्रेन को आगे की ओर धकेलता रहेगा.
वैसे इस मैगलेव तकनीक का ये इस्तेमाल पहली बार नहीं होगा. इस तकनीक से ट्रेन चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और जर्मनी में काफ़ी समय से दौड़ रही हैं. पटरी से घर्षण यानी फ्रिक्शन न होने के कारण इनकी ज़बर्दस्त रफ़्तार होती है. लेकिन हवा का तो सामना करना ही पड़ता है. हवा रफ़्तार को कम करती है. Low pressure में वैक्यूम वाली हाइपरलूप उसका ही हल है.
हाइपरलूप को हक़ीक़त में बदलने पर तेज़ी से काम
कुछ दशक पहले तक जिन्हें साइंस फिक्शन मूवीज़ का हिस्सा मानते थे, वो बड़ी तेज़ी से हमारी ज़िंदगी की वास्तविकता बनते जा रहे हैं. विज्ञान और टैक्नॉलजी की दुनिया में कमाल का काम हो रहा है. हाइपरलूप इसका ही उदाहरण है. हाइपरलूप का मूल विचार कोई नया नहीं है. साइंस फिक्शन की किताबों में दो सौ साल पहले ही ऐसी कल्पना की जा चुकी थी. अब दुनिया के कई देशों में वैज्ञानिक और इंजीनियर हाइपरलूप को हक़ीक़त में बदलने पर तेज़ी से काम कर रहे हैं.
कभी करिश्माई तो कभी जुनून की हद तक महत्वाकांक्षी लगने वाले दुनिया के बड़े खरबपति और कारोबारी एलन मस्क ने 2013 में हाइपरलूप के इस विचार को ज़मीन पर उतारने की दिशा में पहली बड़ी कोशिश की. SpaceX और टेस्ला के संस्थापक एलन मस्क ने तब लो प्रेशर वाली ट्यूब में एक परिवहन सिस्टम तैयार करने से जुड़ा रिसर्च पेपर पेश किया. मस्क ने कहा कि ऐसा सिस्टम, लोगों और सामान को लॉस एंजिल्स से 645 किलोमीटर दूर सैन फ्रांसिस्को तक आधे घंटे में पहुंचा सकता है. 2014 में मस्क ने इसके लिए एक कंपनी बनाई Hyperloop One. इस काम के लिए उन्हें 400 मिलियन डॉलर की फंडिंग भी मिली और वर्जिन एयर के संस्थापक रिचर्ड ब्रैन्सन का साथ भी. रिचर्ड ब्रैंसन बाद में इस कंपनी के चेयरमैन भी बने और इसका नाम बदलकर उन्होंने Virgin Hyperloop कर दिया. उन्होंने मस्क द्वारा प्रस्तावित टैक्नॉलजी में काफ़ी बदलाव किए. Propulsion technology पर आधारित Virgin Hyperloop ने 2016 और 2017 में अमेरिका के उत्तरी लास वेगास की टेस्ट साइट पर कामयाब टेस्ट रन भी किए. बिना यात्रियों के 400 से ज़्यादा टेस्ट रन के बाद 8 नवंबर, 2020 को पहली बार इसका ह्यूमन ट्रायल हुआ. यानी हाइपरलूप के अंदर पॉड्स में इंसान को बिठाकर यात्रा कराई गई. नेवादा के लास वेगास में 172 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से ये टेस्ट हुआ. लेकिन फिर फरवरी 2022 में कंपनी ने जोखिम के मद्देनज़र यात्रियों के लिए हाइपरलूप की योजना को त्याग दिया और उसकी जगह सामान लाने-ले जाने के लिए इसके इस्तेमाल पर ध्यान दिया. लेकिन इस दिशा में भी फिर कुछ ख़ास हुआ नहीं. 21 दिसंबर, 2023 को कंपनी ने अपना काम बंद कर दिया. इसके पीछे वित्तीय कठिनाइयों, अधिक ब्याज़ दरों जैसी कई वजह बताई जा रही हैं. Hyperloop One कंपनी भले ही बंद हो गई हो लेकिन इस प्रयोग ने बाकी दुनिया में परिवहन के इस तरीके को लेकर सपनों की उड़ान तेज़ कर दी.
यूरोप में नीदरलैंड में यूरोपियन हाइपरलूप सेंटर में इस टैक्नॉलजी पर काम चल रहा है. नीदरलैंड की कंपनी Hardt ने इस दिशा में पिछले साल सितंबर में बड़ी कामयाबी हासिल की. Hardt ने Veendam के सेंटर में पहले कामयाब टेस्ट रन का एलान कर दिया. यहां 420 मीटर लंबे हाइपरलूप में पूरी तरह वैक्यूम में टेस्ट व्हीकल ने 90 मीटर की दूरी 30 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से तय की. इस दौरान टेस्ट व्हीकल को पटरी के ऊपर उठाए रखने यानी Levitation में कामयाबी मिली. इस प्रयोग के तहत इस साल टेस्ट रन में रफ़्तार को 30 से 100 किलोमीटर प्रति घंटे और फिर 700 किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुंचाने का लक्ष्य है. Hardt का दावा है कि उसका hyperloop 2030 तक यात्रियों के लिए तैयार हो जाएगा.
भारत में हाइपरलूप के विकास में नीदरलैंड की इस कंपनी Hardt का साथ भी लिया जा रहा है. Hardt ने जो प्रयोग सितंबर के महीने में किया उससे कहीं आगे का प्रयोग चीन में एक महीने पहले अगस्त, 2024 में हो चुका था. चीन की कंपनी China Aerospace Science and Industry Corporation (CASIC) ने अगस्त में एलान किया कि उसने दो किलोमीटर लंबी low-vacuum tube में बुलेट ट्रेन का प्रोटोटाइप दौड़ाने में कामयाबी हासिल कर ली है. इससे पहले फरवरी में ये कंपनी एलान कर चुकी थी कि उसने एक low-vacuum tube में हुए टेस्ट रन में 620 किलोमीटर प्रति घंटे की टॉप स्पीड हासिल कर ली थी. इस रफ़्तार को हासिल करना एक बड़ी कामयाबी माना जा रहा है. साफ़ है चीन बहुत तेज़ी से इस दिशा में आगे बढ़ रहा है. China Aerospace Science and Industry Corporation के साथ बेहतर बात ये है कि चीन सरकार इसके पीछे है इसलिए निवेशकों के भागने जैसे दिक्कत सामने नहीं आएगी. बड़ी आबादी वाले दो शहरों के बीच तेज़ी के साथ सीधे आवागमन में हाइपरलूप टैक्नॉलजी को काफ़ी अहम माना जा रहा है.
इस टेक्नॉलजी से परिवहन बहुत ही तेज़ होगा. फ्रिक्शन यानी घर्षण न होने की वजह से इसमें ऊर्जा की खपत कम होगी. लंबे समय में ये परिवहन व्यवस्था ज़्यादा किफ़ायती साबित होगी. ट्यूब में पॉड्स के चलने के कारण मौसम ख़राब होने का इस पर असर नहीं होगा. लेकिन हाइपरलूप का ये प्रयोग जितना हसीन दिखता है उतना ही चुनौतियों और जोखिम से भरा भी है.
इस सिस्टम को बनाने के लिए सैकड़ों किलोमीटर लंबी low vacuum tubes बनानी होंगी. कहीं पर एक छोटा से क्रैक या हवा के लीक होने से भयानक दुर्घटना हो सकती है. हवा लीक होते ही बड़ी तेज़ी से अंदर खिंचेगी जिससे एयर शॉक ब्लास्ट हो सकते हैं. अगर बिजली की सप्लाई में ज़रा भी दिक्कत आई तो भी भारी तेज़ी से दौड़ रही पॉड्स के साथ बड़ा हादसा हो सकता है.
ये सवाल भी है कि भूकंप आया तो क्या होगा?
यही सब कारण हैं जिनकी वजह से इस टैक्नॉलजी को अधिक से अधिक पुख़्ता किए जाने की ज़रूरत है.. जैसे बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा तैयार करना होगा, जिसमें भारी निवेश की ज़रूरत होगी. हाइपरलूप बनाने के लिए उच्च क्वॉलिटी के स्टील की भारी मात्रा में ज़रूरत होगी. ये तो बस कुछ बुनियादी चुनौतियां हैं. टैक्नॉलजी के स्तर पर चुनौतियां अलग ही स्तर की हैं जिनसे निपटने का काम चल रहा है.
परिवहन की दुनिया बीते कुछ दशकों में बड़ी तेज़ी से बदली है. कोयले से चलने वाली रेलगाड़ियों की जगह अधिकतर जगह विद्युत रेलगाड़ियों ने ले ली है. पेट्रोल-डीज़ल की बसों की जगह धीरे-धीरे सीएनजी की बसें ले रही हैं. इसके बाद हाइड्रोजन भी भविष्य फ़्यूल के तौर पर इस्तेमाल होने जा रहा है. लेकिन टैक्नॉलजी और भी तेज़ी से आगे बढ़ रही है.
कुछ दशक पहले तक बिना ड्राइवर की कार के बारे में आम आदमी सोच नहीं पाता था. लेकिन इस दिशा में तकनीक ने ज़बर्दस्त तरक्की की और आज दुनिया के कई इलाकों में बिना ड्राइवर के कारें चल रही हैं. जनरल मोटर्स, टेस्ला, वॉल्वो, फोक्सवैगन, मर्सिडीज़ बेंज़, टोयोटा, निसान, ऑडी न जाने कितनी कंपनियां हैं जो अब ऑटोनोमस कार्स बना रही हैं जो स्मार्ट ट्रैफ़िक मैनेजमेंट सिस्टम पर चलती हैं.
इंधन की ज़रूरत के लिए गाड़ियां अब पेट्रोल, डीज़ल से आगे निकल चुकी हैं. इलेक्ट्रिक बैटरी पर चलने वाली गाड़ियां बहुत ही आम हो चुकी हैं. इनके इस्तेमाल से पर्यावरण पर कम असर पड़ता है. ये तो कुछ नहीं है अब ड्रोन्स और फ़्लाइंग टैक्सी का ज़माना आने वाला है. ड्रोन्स हम सामान्य कामों में तो देखते ही हैं, वो दिन दूर नहीं जब ड्रोन टैक्सी से भी आप आना जाना शुरू कर देंगे. कुछ उसी तर्ज़ पर फ़्लाइंग टैक्सी पर भी प्रयोग चल रहे हैं. इस तकनीक से आना जाना तेज़ हो जाएगा… सोचिए वो दिन जब आप घर से निकलें और फ़्लाइंग टैक्सी पर बैठकर गंतव्य की ओर चल दें. भविष्य में परिवहन की जो भी नई तकनीक आएगी, ये तय है कि वो प्रदूषण कम करेगी.
NDTV India – Latest
More Stories
डोनाल्ड ट्रंप की सरकार में ‘फूफा’ एलन मस्क पावरफुल! सिर्फ नैरेटिव या ट्रंप चुकाएंगे पॉलिटिकल खामियाजा?
CBSE 10वीं की परीक्षा होगी साल में दो बार, स्कोर कैसे होगा कैलकुलेट? हर सवाल का जवाब
अरविंद केजरीवाल के लिए राज्यसभा की सीट छोड़ेंगे संजीव अरोड़ा