यह बात ठीक है कि जीवन-यापन के लिए कुछ बुनियादी चीजों की जरूरत सबको होती है, लेकिन जहां तक बात खुश रहने की है, यह एक मानसिक स्थिति ही कही जाएगी. हर हाल में सकारात्मक सोच की आदत डालकर हर कोई अपनी खुशियों में इजाफा कर सकता है.
20 मार्च को एक बार फिर सारी दुनिया अंतरराष्ट्रीय खुशी दिवस (International Day of Happiness) मनाने को तैयार है. पिछले करीब एक दशक से खुशियों का स्तर बताने के लिए एक ‘इंडेक्स’ का इस्तेमाल होने लगा है. गौर करने वाली बात यह है कि खुशियां काफी हद तक हमारे मानसिक नजरिए पर निर्भर होती हैं. पॉजिटिव थिंकिंग किस तरह हमारी खुशियों में इजाफा करती है, इन दोनों के बीच कितना गहरा रिश्ता है, इन्हें देखा जाना चाहिए.
‘खुशी दिवस’ के मायने
आजकल हर खास ‘दिवस’ के साथ एक सवाल जोड़े जाने का ट्रेंड चल पड़ा है- साल में सिर्फ एक ही दिन क्यों? वैसे ही, खुशी दिवस सिर्फ एक दिन क्यों? हर किसी को सालोंभर खुश रहने की जरूरत है. बात सही है, पर इसका एक दूसरा पहलू भी है. औपचारिक आयोजन के लिए एक खास दिवस इसलिए चुना जाता है, ताकि लोग थोड़ा ठहरकर उस बारे में गंभीरता से विचार कर सकें. खुश तो हर कोई रहना चाहता है, पर इस पर विचार करना बहुत जरूरी है कि आखिर सच्ची खुशियां हासिल कैसे होती हैं. सही मायने में खुश रहने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी फैक्टर क्या है?
वैसे अंतरराष्ट्रीय खुशी दिवस पर इस बार भी संयुक्त राष्ट्र कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन करेगा. कुछ पैमानों के आधार पर दुनियाभर के देशों की रैंकिंग भी होगी. ऐसे में हर किसी को व्यक्तिगत तौर पर भी अपनी-अपनी खुशियों को बढ़ाने का फॉर्मूला खोजना चाहिए.
चीजों से मिलती हैं खुशियां?
यह एक बहुत बड़ा भ्रम है. अगर ढेर सारी चीजें जुटाने से, भौतिक संसाधनों से ही खुशियां मिलतीं, तो अब तक दुनियाभर में खुशियों का स्तर काफी ऊंचा हो गया होता. अगर सिर्फ बीते 50 साल की ही बात करें, तो हरेक इंसान के जीवन-स्तर में काफी तेजी से सुधार आया है.वैज्ञानिक तरक्की के दम पर सुख-सुविधाओं के एक से बढ़कर एक साधन मौजूद हैं, लेकिन इन संसाधनों को पाने वालों के भीतर भी क्या खुशियों का स्तर बढ़ सका?
यह बात ठीक है कि जीवन-यापन के लिए कुछ बुनियादी चीजों की जरूरत सबको होती है, लेकिन जहां तक बात खुश रहने की है, यह एक मानसिक स्थिति ही कही जाएगी. हर हाल में सकारात्मक सोच की आदत डालकर हर कोई अपनी खुशियों में इजाफा कर सकता है.
क्या कहता है साइंस?
पॉजिटिव थिंकिंग से किस तरह हमारी खुशियां बढ़ती हैं, इस बारे में तमाम वैज्ञानिक तथ्य पहले से मौजूद हैं. ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक सोच से इंसान के शरीर में डोपामाइन (Dopamine) और सेरोटोनिन (Serotonin) का स्तर बढ़ता है. ये दोनों ‘खुशी के हार्मोन’ कहे गए हैं. पॉजिटिव थिंकिंग से ये हार्मोन पर्याप्त मात्रा में रिलीज होते हैं, जिससे खुशी महसूस होती है. साथ ही सही सोच से तनाव वाले हार्मोन कोर्टिसोल (Cortisol) का स्तर कम होता है, जिससे तनाव और चिंता घटती है.
ऐसा भी पाया गया है कि सकारात्मक नजरिया रखने वालों का इम्यून सिस्टम बेहतर होता है, जिससे वे कम बीमार पड़ते हैं. बीमार पड़ जाने पर भी नकारात्मक सोच वालों की तुलना में जल्द उबर जाते हैं. ऐसे लोगों का शरीर सर्दी, जुकाम, खांसी, सिरदर्द जैसे कई रोगों से खुद ही बचाव कर लेता है. साथ ही साइको इम्यूनिटी बढ़ने से चिंता, तनाव, अवसाद, कुंठा आदि से छुटकारा मिल जाता है.
अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन का मानना है कि सकारात्मक सोच से ब्लड-प्रेशर संतुलित रहता है और हार्ट अटैक का जोखिम भी कम हो जाता है. चिंता-फिक्र छोड़ देने वालों की नींद का स्तर भी बढ़िया होता है, जिससे वे ज्यादा स्वस्थ रह पाते हैं.
खुशी का मनोविज्ञान
खुशी बढ़ने के मनोवैज्ञानिक पहलू को समझना कोई मुश्किल काम नहीं है. इसमें कोई बड़ा रहस्य नहीं छिपा है. इसे हर कोई अपने रोजमर्रा के जीवन में महसूस कर सकता है. नकारात्मक सोच से लगातार मानसिक तनाव बढ़ता रहता है, जबकि सकारात्मक सोच से मानसिक शांति मिलती है. सही दिशा में सोचने भर से आत्मविश्वास बढ़ता है, जिससे जीवन की चुनौतियों से पार पाने में मदद मिलती है.
इसके विपरीत, सोचने के गलत तौर-तरीकों और आदतों की वजह से मन में तमाम तरह की उलझनें पैदा होती हैं. बेकार की बातें सोचने से कई तरह की मानसिक बीमारियां भी पैदा होती हैं. इसलिए ऐसी आदतों से बचना बेहद जरूरी है. इनकी जगह सकारात्मक सोच को जगह दी जानी चाहिए, जिससे खुशी हासिल करने में मदद मिल सके.
कामयाबी की पक्की राह
सकारात्मक सोच के सहारे लोग बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल करते देखे गए हैं. दरअसल, होता यह है कि आशावादी नजरिया रखने से इंसान की काम-काज करने की क्षमता में इजाफा होता है. सोच सही रखने से सफलता के रास्ते में आने वाली मुश्किलों का हल भी जल्द मिल जाता है. दिमाग की बत्ती जलती है, तो बेहतर आइडिया भी सामने आने लगते हैं. ‘चिंता से चतुराई घटे’ वाली कहावत हम सबने सुनी है.
अगर सामाजिक तौर भी देखा जाए, तो सकारात्मक सोच के कई फायदे हैं. खुशमिजाज लोगों के दूसरों से अच्छे रिश्ते होते हैं. ऐसे व्यक्तित्व की ओर लोग आसानी से आकर्षित हो जाते हैं. अच्छे रिश्तों की वजह से भी खुशियों के स्तर में इजाफा होना स्वाभाविक है.
एक्टिंग का रोल
मनोवैज्ञानिकों का तो यहां तक मानना है कि अगर कोई इंसान खुद को सकारात्मक विचारों से भरता रहे और हमेशा खुश रहने का बस अभिनय ही करता चले, तो उसकी खुशियों में सचमुच बढ़ोतरी हो सकती है. वजह ये कि हमारा दिमाग कई बार हकीकत और कल्पना में फर्क नहीं कर पाता. वह अक्सर सोच के हिसाब से अपना काम करता है. बार-बार खुशी की एक्टिंग करते रहने से इसकी आदत पड़ जाती है. यह आदत स्थायी तौर पर खुशियों में बदल जाती है.
यह ठीक वैसा ही है, जैसे कि कोई इंसान किसी बीती-पुरानी बात पर बार-बार गुस्से से भरता रहे. ऐसा करते रहने से उसके शरीर पर कई तरह के नकारात्मक असर पड़ना तय है, भले ही गुस्से की वो वजह फिलहाल मौजूद न हो. इसलिए अगर अपने दिमाग को चकमा देना ही हो, तो क्यों न खुश रहने की एक्टिंग चुनी जाए!
खुश रहने की वजह हजार
किसी इंसान के खुश रहने की अनेक वजह हो सकती हैं, फिर भी कई लोगों का ध्यान सिर्फ कमियों और अभावों की ओर ही टिका होता है. इसे ही ‘मिसिंग टाइल सिंड्रोम’ का शिकार होना कहते हैं. इस सिंड्रोम से बचने की जरूरत है. ऐसी भावना से बचकर ही जीवन का आनंद लेना संभव है. प्रकृति ने इंसान को इतनी नेमतें सौंपी हैं, जिन्हें पूरा गिनना भी उसके लिए संभव नहीं है.
हर किसी को दैनिक जीवन में सकारात्मक सोच के साथ कुछ छोटे-मोटे ऐसे काम भी करना चाहिए, जिससे उसे खुशी महसूस होती हो. ऐसे कामों की लिस्ट में किसी अजनबी की मदद करना, अपने परिजनों और सहकर्मियों की दिल से तारीफ करना या किसी दुखी इंसान से सहानुभूति के दो शब्द बोलकर, उसके चेहरे पर मुस्कान लाना शामिल हो सकता है. अंतरराष्ट्रीय खुशी दिवस की शुभकामनाएं!
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं… ‘अमर उजाला’, ‘आज तक’, ‘क्विंट हिन्दी’ और ‘द लल्लनटॉप’ में कार्यरत रहे हैं…
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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