प्रो. राजेंद्र प्रसाद
वर्तमान में लोकसभा 2024 के चुनाव के दौरान Katchatheevu द्वीप चर्चा में है। इसलिए वर्तमान भारतीय राजनीति और भारत-श्रीलंका के राष्ट्रीय हितों की पारस्परिकता एवं व्यावहारिक संबंधों के आलोक में पूरा प्रकरण विचारणीय है।
कच्चतीवु एक छोटा निर्जन द्वीप (टापू) है, जो पड़ोसी राष्ट्र श्रीलंका के नेदुन्तीवु( डेल्फ द्वीप) समुद्र तट से 24 किलोमीटर और भारत के तीर्थस्थल रामेश्वरम से पूर्वोत्तर में भारतीय समुद्र तट से 33 किलोमीटर दूर पाक जलडमरूमध्य में स्थित है। श्रीलंका के जाफना के धुर दक्षिण-पश्चिम में 62 किलोमीटर दूर समुद्र में कच्चतीउ द्वीप का भौगोलिक उद्भव 14 वीं शताब्दी में एक ज्वालामुखी विस्फोट के फलस्वरूप हुआ था और यह 285 एकड़ में फैला हुआ क्षेत्र है।
अपने भौगोलिक विस्तार में यह 1.6 किलोमीटर लंबा और अधिकतम 300 मीटर तक चौड़ा है। परंपरागत रूप से इस द्वीप का प्रयोग, भारत के तमिल मछुआरों और श्रीलंका के मछुआरों द्वारा मछली मारने के दौरान मत्स्य-जाल सुखाने और कुछ काल तक विश्राम करने के लिए किया जाता रहा है। इस द्वीप पर शुद्ध पेय जल उपलब्ध नहीं है और न ही यहाँ लोगों के स्थायी रूप से बसने के लिए अनुकूल वातावरण है।
काफी रोचक है इस द्वीप का इतिहास
ऐतिहासिक दृष्टि से एक रोचक तथ्य यह है कि रामेश्वरम शिलालेख में दिए गए वर्णन के अनुसार कच्चतीउ द्वीप सीलोन ( वर्तमान श्रीलंका) के तत्कालीन राजा निश्शंक मल्ल (1187-1196 A.D.) के राज्य का हिस्सा था । वे अपने अभियानों के दौरान कच्चतीउ सहित पुआगु और मिनिनाक जैसे आसपास के द्वीपों तक जाते थे। मध्यकाल के प्रारंभिक वर्षों में कच्चतीउ द्वीप वर्तमान श्रीलंका के जाफ़ना राज्य का हिस्सा हुआ करता था।कालांतर में, 17वीं शताब्दी में यह भारत के जमीदारी राज रामनाद ( वर्तमान रामनाथपुरम) के अधीन आ गया और बाद में अंग्रेजों के शासन के दौरान मद्रास प्रेसीडेंसी के अधीन आ गया।
मछली मारने की सीमा की गई निर्धारित
काबिलेगौर है कि औपनिवेशिक काल में में भारत और श्रीलंका ( पूर्व में सीलोन) दोनों ब्रिटिश उपनिवेश थे।ब्रितानी उपनिवेश काल के दौरान वीरान कच्चतीउ द्वीप भारत और सीलोन ( वर्तमान श्रीलंका) दोनों के बीच विवादित क्षेत्र बना रहा। यह द्वीप ब्रिटिश राज के दौरान मद्रास प्रेसीडेंसी के औपनिवेशिक अधिकार क्षेत्र में था, इसलिए वर्ष 1920 में ब्रिटिश हुकूमत ने अपने दोनों उपनिवेशों भारत और सीलोन ( वर्तमान श्रीलंका) में मत्स्य उद्योग के विकास की दृष्टि से जब दोनों के बीच सामुद्रिक सीमा निर्धारित करनी चाही तो दोनों ने ही कच्चतीउ द्वीप पर अपना दावा ठोंका।
काफी विचार-विमर्श के उपरांत 1921 में दोनों ब्रिटिश उपनिवेशों -भारत और सीलोन , के प्रतिनिधिमंडलों की आपसी सहमति से “मछली मारने की सीमा रेखा” निर्धारित की गई। इसके अंतर्गत, अंग्रेजों ने भौगोलिक सामीप्यता और ऐतिहासिक कारणों से पूरा कच्चतीउ द्वीप सीलोन के अधीन रखा , साथ में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल की इस शर्त को भी मान लिया कि मछली पकड़ने से सम्बंधित यह रेखा , भारतीय क्षेत्रीय अधिकार निर्धारण की सीमारेखा नहीं मानी जा सकती है।ऐसी परिस्थिति में , दोनों पक्षों ने करार की पुष्टि नहीं की और तत्कालीन भारतीय ब्रिटिश सचिव ने भी इसे स्वीकृति नहीं दी थी।
कालांतर में भारत और श्रीलंका दोनों उपनिवेशवाद की ज़ंजीरों से मुक्त हो गये, परंतु स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र होने के बावजूद दोनों के बीच कच्चतीउ द्वीप विवादित क्षेत्र बना रहा।
भारत-श्रीलंका के बीच 1974 और 1976 के महत्वूर्ण समझौते
जारी विवाद के बीच जून 1974 में भारत की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और श्रीलंका की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री सिरीमाओ भंडारनायक के बीच एक समझौते पर सहमति बनी और दोनों देशों के बीच पाक खाड़ी से लेकर एडम ब्रिज तक सामुद्रिक सीमा का निर्धारण हो गया। 28 जून 1974 को एक संयुक्त विज्ञप्ति जारी की गई कि जलीय सीमा रेखा ( boundary) का निर्धारण “ऐतिहासिक प्रमाण, अंतरराष्ट्रीय विधिक सिद्धांतों और महत्व “ के आधार पर किया गया है। यह भी इंगित किया गया कि यह सीमा रेखा कच्चतीउ द्वीप के पश्चिम तट से एक मील दूर होगी। इस प्रकार इस समझौते को अक्तूबर 1921 से चले आ रहे द्विपक्षीय विवाद के अंत की चरम परिणति कहा जा सकता है।
इस समझौते के माध्यम से , तमिलनाडु राज्य के मछुआरों द्वारा कच्चतीउ द्वीप के इर्द-गिर्द जलक्षेत्र में मछली पकड़ने के अधिकार को कायम रखते हुए , भारत ने इस द्वीप पर अपना दावा त्याग दिया और इसका स्वामित्व श्रीलंका को सौंप दिया । फिर भी मछली मारने के दौरान भारत के तमिल मछुआरों , श्रीलंकाई मछुआरों और श्रीलंकाई नौसेना की कार्रवाई से सम्बंधित छिटपुट घटनाएं होती रहती थीं।
श्रीलंका ने भारतीय मछुआरों को मछली मारने से कर दिया मना
बाद में श्रीलंका ने कच्चतीउ द्वीप के इर्द-गिर्द जल-क्षेत्र में भारतीय तमिल मछुआरों के मछली पकड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया और केवल कच्चतीउ द्वीप पर जाल सुखाने और विश्राम करने की अनुज्ञा दे रखी थी।
तमिल ईसाई बिना वीजा के जाते गिरजाघर में…
इसके अतिरिक्त कच्चतीउ द्वीप पर स्थित एकमात्र भौतिक निर्माण के रूप में स्थित सेंट अंटोनी गिरजाघर में पूजा हेतु भारतीय तमिल ईसाई तीर्थयात्रियों को बिना वीजा के जाने की अनुमति जारी रखी गई। इस गिरजाघर का निर्माण तमिलनाडु के एक संपन्न कैथोलिक ईसाई मछुआरे श्रीनिवास पदाइची द्वारा 20वीं शताब्दी के शुरुआत में कराया गया था।इस गिरजाघर में भारत और श्रीलंका दोनों तरफ़ के ईसाई पादरियों की देखरेख में पारंपरिक रूप से मार्च माह में त्रि-दिवसीय और कभी- कभी एक सप्ताहांत तक वार्षिक उत्सव मनाया जाता है, जिसमें दोनों ओर के ईसाई श्रद्धालु प्रार्थना और उत्सव-जुलूस में सहभागिता करते हैं।
लिट्टे के समय यह क्षेत्र श्रीलंका के लिए चुनौतीपूर्ण
श्रीलंका के गृह युद्ध के दौरान 1983 से लेकर 2009 तक , भारत-श्रीलंका समझौते (1974) के उपरांत कच्चतीउ द्वीप के इर्द-गिर्द के जलक्षेत्र में निगरानी रखते समय श्रीलंका की नौसेना को लिट्टे विद्रोहियों द्वारा की जाने वाली हथियारों की तस्करी और अवैध गतिविधियों को रोकना चुनौतीपूर्ण था। समस्या तब जटिलतर हो जाती, जब भारतीय तमिल मछुआरे श्रीलंकाई जलक्षेत्र का अतिक्रमण करके अवैध ढंग से मछली पकड़ने की गतिविधि में पकड़ लिए जाते या उनकी नावों और पकड़ी गई मछलियों की ढेर को जब्त कर लिया जाता । इससे भारतीय तमिल मछुआरों को भारी आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ता था।
गृहयुद्ध के बाद निगरानी ताकत बढ़ा
लेकिन श्रीलंका की नौसेना ने 2009 में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद कच्चतीउ द्वीप के इर्द-गिर्द और अपने विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में सुरक्षा और निगरानी पुख़्ता किया है। इस दौरान जाने-अनजाने श्रीलंकाई जलक्षेत्र में प्रवेश कर जाने वाले तमिल मछुआरों की सुरक्षा, जीविका और आर्थिक स्वतंत्रता को लेकर क्षेत्रीय चुनौतियाँ हैं।
पारस्परिक संबंधों को सकारात्मक आयाम देना जरूरी था
चूँकि श्रीलंका भारत का निकट पड़ोसी देश है , इसलिए भूराजनीतिक और भू-सामरिक कारणों से दोनों देशों के संबंधों की पारस्परिकता हिंद महासागर क्षेत्र में विशेष महत्व रखती है। खासतौर से शीतयुद्ध काल और बाद की परिस्थितियों में, 1971 में भारत की सैन्य कार्रवाई के फलस्वरूप संप्रभु राष्ट्र के रूप में बांगलादेश के अभ्युदय के बाद दक्षिण एशिया का सुरक्षा परिदृश्य परिवर्तनशील था। श्रीलंका के चीन और पाकिस्तान के साथ जिस प्रकार के सम्बंध विकसित हो रहे थे, उसे भारतीय नेतृत्व नजरअंदाज़ नहीं कर सकता था। इस परिवेश में भारत द्वारा श्रीलंका के साथ 1974 के समझौते से आगे बढ़कर अपने संबंधों की पारस्परिकता को सकारात्मक आयाम देना अपरिहार्य था।
फिर एक दूसरा समझौता हुआ
फलत: दो वर्ष बाद 1976 में भारत और श्रीलंका के बीच एक दूसरा समझौता हुआ, तब से कच्चतीउ अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक विधि के अंतर्गत पूर्ण रूप से श्रीलंका द्वारा प्रशासित है। 1976 का भारत-श्रीलंका समझौता दोनों देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक सीमा रेखा ( International Maritime Boundary) और विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र ( Exclusive Economic Zones) के निर्धारण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। साथ ही यह प्रतिबंध लग गया कि दोनों देशों के मछुआरे और मछली पकड़ने वाली नौकाएँ बिना पूर्व अनुमति के एक दूसरे के जलक्षेत्र में नहीं जा सकेंगे। निश्चय ही मत्स्य और अन्य संसाधनों के आकर्षण को लेकर उस क्षेत्र में तमिल सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लोभ कायम है और जनमानस आंदोलित होता रहता है।
कच्चतीउ द्वीप बनाम वेज बैंक : राजनीति का उबलता कड़ाह या उभयपक्षीय राष्ट्रीय हित ?
देखा जाय तो सम्बंधित कच्चतीउ विवाद ब्रिटिश भारत और सीलोन ( वर्तमान श्रीलंका) के बीच का मुद्दा था, जिसका समाधान 1974 और 1976 में हुए द्विपक्षीय समझौतों द्वारा हो चुका है। ये दोनों समझौते भारत और श्रीलंका की संप्रभु सरकारों द्वारा किये गए। जहां तक कच्चतीउ द्वीप का सम्बंध है , उसके बारे में तत्कालीन भारतीय केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि यह द्वीप भारत-श्रीलंका अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक सीमा-रेखा के पार(India-Srilanka International Maritime Boundary Line) श्रीलंका की तरफ है। मोटे तौर पर, उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर, 1974 के द्विपक्षीय समझौते के फलस्वरूप 21000 वर्ग नॉटिकल मील में फैला पाक खाड़ी ( Palk Bay) क्षेत्र भारत और श्रीलंका के बीच 1.02: 1 के अनुपात में विभाजित हो गया, जिससे भारत को 0. 02 इकाई बढ़त का लाभ है।
वेज बैंक भारत का अभिन्न अंग
1976 में हस्ताक्षरित भारत-श्रीलंका सामुद्रिक सीमा समझौते के फलस्वरूप भारत को यह अधिकार हासिल हुआ था कि मन्नार की खाड़ी और बंगाल की खाड़ी के बीच , केप कोमरिन के पास स्थित कन्याकुमारी से दक्षिण “ वेज बैंक” ( Wadge Bank) का इलाका भारत के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र का अंग होगा,जिसके अन्तर्गत 4000 वर्ग मील के इलाके और संसाधनों पर भारत का संप्रभु अधिकार कायम हुआ। इस समझौते के फलस्वरूप भारत इस क्षेत्र में स्वतंत्रतापूर्वक पेट्रोलियम ,हाइड्रोकार्बन और अनेक खनिज पदार्थों का पता एवं उपयोग करने में सक्षम है। इसके पहले श्रीलंकाई मछुआरे वेज बैंक में मछली पकड़ने व व्यापार करने के लिए बेरोकटोक आते-जाते थे।
285 एकड़ का छोटा सा वीरान कच्चतीउ द्वीप
अब वेज बैंक इलाके में श्रीलंकाई मछुआरों और नौकाओं को मछली पकड़ने की अनुज्ञा नहीं है। दूसरी ओर 1974 के द्विपक्षीय समझौते के फलस्वरूप श्रीलंका को पाक खाड़ी ( Palk Bay) में स्थित 285 एकड़ का छोटा सा वीरान कच्चतीउ द्वीप का इलाका मिला था। ऐसे में राजनीतिक कारणों या सरकारों के बदलने की दशा में अंतरराष्ट्रीय समझौतों का उल्लंघन करने का निर्णय जोखिम भरा हो सकता है।
क़ाबिलेगौर है कि जून 2011 में तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जे. जयललिता के नेतृत्व में तमिलनाडु विधान सभा में कच्चतीउ को लेकर प्रस्ताव पारित किया था और 2012 में उच्चतम न्यायालय में मुकदमा दायर करके दावा किया था कि भारत और श्रीलंका के बीच हुए 1974 और 1976 के समझौते असंवैधानिक हैं। दूसरी ओर केंद्र सरकार ने फरवरी 2014 में ही स्पष्ट कर दिया था कि विरोध औचित्यहीन है क्योंकि “ भारत से सम्बंधित कोई क्षेत्र न तो अलग किया गया है , न ही सम्प्रभुता को त्यागा गया है, क्योंकि सम्बंधित क्षेत्र पहले से विवादग्रस्त था और दोनों देशों के बीच सीमा अनिर्धारित थी।”
भारत के किसी क्षेत्र का अलगाव नहीं
तत्कालीन केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि इन समझौतों का अनुपालन करने के लिए भारत को किसी संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भारत के किसी क्षेत्र का अलगाव नहीं किया गया।
2014 में भारत सरकार के एटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में कानूनी वस्तुस्थिति पर स्पष्ट कहा था कि “ कच्चतीउ 1974 में हुए समझौते द्वारा श्रीलंका के स्वामित्व में चला गया …आज इसे वापस कैसे वापस पाया जा सकता है ? यदि कच्चतीउ को वापस चाहते हैं तो इसके लिए आप को युद्ध करना पड़ेगा।”
फिर भी विगत वर्षों में क्षेत्रीय, राजनीतिक और तमिल जन-भावनात्मक कारणों से, संसद के दोनों सदनों में कच्चतीउ द्वीप के हस्तांतरण को लेकर विरोध के स्वर उठते रहे हैं। समय-समय पर तमिलनाडु राज्य के राजनेताओं ने इस द्वीप पर भारतीय संप्रभुता को अंगीकार करके इसे श्रीलंका से वापस लेने की माँग उठाया है।विगत वर्ष ( 2023) डीएमके नेता और तमिलनाडु के वर्तमान मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को पत्र लिखकर निवेदन किया था कि श्रीलंकाई प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे के भारत यात्रा के दौरान कच्चतीउ द्वीप के मुद्दे पर वार्ता की जाय, क्योंकि इससे तमिल मछुआरों की जीविका और क्षेत्रीय आर्थिकी का सीधा सम्बंध है।
राष्ट्रीय हितों की पारस्परिकता और औचित्य
सवाल यह है कि हिंद महासागर क्षेत्र में बड़ी शक्ति की भूमिका निभाने के लिए कटिबद्ध भारत की वर्तमान सत्तारूढ़ मोदी सरकार श्रीलंका को लेकर अपनी “पड़ोसी पहले” अर्थात् नेबर्स फर्स्ट ( Neighbours First) नीति का गुणानुवाद कैसे करेगी ? क्या नए सिरे से कच्चतीउ विवाद पुनर्जीवित होगा या थम जाएगा ? क्या दो संप्रभु राष्ट्र पूर्व में हस्ताक्षरित अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक समझौतों को तोड़ने का जोखिम उठाएंगे ?
सतही तौर पर, 2024 के संसदीय चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व ने कच्चतीउ द्वीप के मुद्दे को उठाकर एक बार तमिलनाडु की वोट-संवर्द्धित राजनीति को गरमा दिया है। इस परिस्थिति में यह विचारणीय है कि लोकसभा चुनाव तो हमारा एक लोकतांत्रिक महोत्सव है, जो हर 5 वर्ष बाद आता है।
क्षेत्रीय राजनीति हावी न हो
देश के कर्णधारों को तय करना होगा कि वोट बैंक की क्षेत्रीय राजनीति आज की परिवर्तनशील परिस्थितियों में राष्ट्रीय हितों के संरक्षण और संवर्धन पर हावी न हो।
इससे दक्षिण एशिया में भारत-श्रीलंका के पारस्परिक संबंधों के साथ-साथ, हिंद महासागर क्षेत्र के भू-सामरिक सुरक्षा परिदृश्य पर विपरीत प्रभाव पड़ने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता।खासतौर पर तब, जब चीन अपनी “स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स” (मोतियों की डोर) रणनीति के तहत श्रीलंका में सैन्य अड्डे स्थापित करने में सफल होने के क्रम में हिंद महासागर क्षेत्र में भारत को सामरिक और आर्थिक रूप से घेरने के लिए सतत् क्रियाशील है।
मिसाल के तौर पर, चीन-समर्थित मोहम्मद मोइज्जू की मालदीव सरकार के सत्ता में आने के बाद भारत के विरुद्ध नीतिगत यू-टर्न से हमें तुरंत सबक लेना चाहिए।इस प्रकार के परिवेश में, भारतीय तमिल जनमानस और राजनेताओं को भी राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखना होगा, क्योंकि देश पहले और व्यक्तिगत या स्थानीय हित बाद में आते हैं।
(इस लेख के लेखक प्रो. राजेंद्र प्रसाद कई विश्वविद्यालयों के कुलपति रहे चुके हैं। प्रो.राजेंद्र प्रसाद, यूपी के प्रयागराज में स्थित प्रो. राजेंद्र सिंह ( रज्जू भैया) विश्वविद्यालय के पहले कुलपति रहने के साथ ही गोरखपुर विवि के कुलपति रहे हैं। डिफेंस स्ट्रेटेजिस की विशेषज्ञता रखने वाले प्रो.राजेंद्र प्रसाद, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्याल के रक्षा एवं स्ट्रेटेजिक अध्ययन विभाग के पूर्व प्रोफेसर व अध्यक्ष हैं।)