December 28, 2024
‘सैटेनिक वर्सेज़’ पर नहीं चलेगी पाबंदी किसी भी रचना पर नहीं चलती

‘सैटेनिक वर्सेज़’ पर नहीं चलेगी पाबंदी – किसी भी रचना पर नहीं चलती​

उम्मीद करनी चाहिए कि इस बार सलमान रुश्दी की किताब पर नए सिरे से पाबंदी नहीं लगेगी. हमारा समाज और हमारी सरकारें अब यह सयानापन दिखाती हैं कि जो भी पाबंदी हो, वह अलिखित हो, अदृश्य हो. ऐसी कई पाबंदियों का दबाव हमारे लेखक और संस्कृतिकर्मी महसूस करते रहे हैं.

उम्मीद करनी चाहिए कि इस बार सलमान रुश्दी की किताब पर नए सिरे से पाबंदी नहीं लगेगी. हमारा समाज और हमारी सरकारें अब यह सयानापन दिखाती हैं कि जो भी पाबंदी हो, वह अलिखित हो, अदृश्य हो. ऐसी कई पाबंदियों का दबाव हमारे लेखक और संस्कृतिकर्मी महसूस करते रहे हैं.

सलमान रुश्दी के लेखों की किताब ‘लैंग्वेजेज़ ऑफ़ ट्रूथ’ में अनुवाद और रूपांतरण पर भी एक लेख शामिल है. वे किताबों और फिल्मों के अनुवाद और रूपांतरण की बात करते-करते समाज के रूपांतरण और अनुकूलन पर चले आते हैं. वे बताते हैं कि विस्थापन के इस दौर में हर कोई अनुकूलन में जुटा है- हास्य कलाकार इस डर से हंसता नहीं है कि लोग उसे हल्का न मान लें, बुद्धिजीवी चुटकुले बनाते दिखते हैं कि कोई उन्हें हास्यविहीन न मान ले. समाज के इस रूपांतरण के छुपे खतरों की ओर भी वे इशारा करते हैं.

भारतीय समाज धीरे-धीरे रूपांतरित हो रहा समाज है. इस समाज में हर तरह की कट्टरता बढ़ रही है. नई कट्टरताएं पुरानी कट्टरताओं से तर्क हासिल कर रही हैं. पुरानी कट्टरताएं नई कट्टरताओं से पोषण पा रही हैं. मंदिरों के नीचे मस्जिदें खोजी जा रही हैं, मस्जिदों के पीछे अवैज्ञानिकता और अपढ़ता को बढ़ावा दिया जा रहा है. जिन बीमारियों को हम बीसवीं सदी में ख़त्म मान चुके थे, वे इक्कीसवीं सदी में नए सिरे से उभर रही हैं. सार्वजनिक विमर्श में सरोकार और सवाल ग़ायब हैं, सनसनी और शिगूफे हावी हैं.

इस माहौल में सलमान रुश्दी की किताब ‘सैटेनिक वर्सेज़ फिर से दिल्ली में किताबों की एक दुकान के शेल्फ पर दिख रही है और उस पर पाबंदी हटा ली गई है- इस ख़बर में मीडिया ने ख़ासी दिलचस्पी दिखाई है. कई पुस्तक प्रेमी 2000 रुपये की ये किताब खरीदने पहुंच रहे हैं. दूसरी तरफ़ इस पर नए सिरे से पाबंदी की मांग शुरू हो गई है. ऑल इंडिया शिया पर्सनल ल़ॉ बोर्ड का कहना है कि इस किताब से भावनाएं आहत होती हैं, इस पर पाबंदी नहीं हटनी चाहिए.

इसमें शक नहीं कि सलमान रुश्दी के लेखकीय अभ्यास में भावनाएं आहत करने वाली ऐंठ हमेशा से शामिल रही है. उनके दूसरे उपन्यास ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ में इंदिरा गांधी और संजय गांधी पर फूहड़ टिप्पणियां थीं तो तीसरे उपन्यास ‘शेम’ में पाकिस्तानी हुक्मरानों का मज़ाक बनाया गया था. इन दोनों उपन्यासों को मुक़दमों का सामना करना पड़ा. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि वे एक अनूठे लेखक रहे हैं- भाषा में, शैली में, आख्यान के शिल्प में जितनी तोड़फोड़ वे करते हैं, उतनी दूसरे लेखकों के यहां तत्काल याद नहीं आती. हंसी-व्यंग्य-विक्षोभ और विडंबना से युक्त उनकी वक्र भाषा के भीतर एक बहुत गहरा दुख खिंचा मिलता है और सहसा हम पाते हैं कि ऊपर से खिलंदड़ा नज़र आने वाला लेखक कितनी वेधक दृष्टि रखता है. यह सच है कि उनको पढ़ते हुए कई बार भावनाएं आहत हो सकती हैं. लेकिन भावनाओं को आहत किया जाना इतना बड़ा अपराध नहीं होता कि उसके लिए किताबों पर पाबंदी लगा दी जाए, उन्हें जला दिया जाए. उल्टे भावनाएं आहत होने के नाम पर जो ख़ौफ़नाक जुर्म होते हैं, उनकी फ़ेहरिस्त बहुत बड़ी है और उनकी स्मृति बेहद डरावनी. इन दिनों अपने समाज में हम भावनाएं आहत होने के बाद के कई प्रतिशोध देख चुके हैं जो खानपान से लेकर पोशाक और पहचान किसी भी बहाने लिए जा सकते हैं.

सलमान रुश्दी लगातार लिखने वाले लेखकों में रहे हैं. 2022 में जब उन्हें एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मंच पर चाकुओं से गोद दिया गया, उसके बाद भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा. उसके बाद ही उन्होंने ‘नाइफ़’ नाम से एक किताब लिखी जो कुछ दिन पहले बाज़ार में आई है. इसके अलावा उनके लेखों का संग्रह ‘लैंग्वेजेज़ ऑफ़ ट्रूथ’ भी आया. इसके पहले भी उनकी किताबें एक के बाद एक आती रही हैं. लेकिन हमारे सार्वजनिक विमर्श में, हमारे मीडिया में गंभीर साहित्य की चर्चा इतनी कम हो चुकी है कि रुश्दी या किसी भी अन्य लेखक की ऐसी गंभीर कृतियों पर कहीं कोई चर्चा नहीं दिखी. मगर जैसे ही 36 साल पुरानी एक किताब फिर से किताब दुकान में नज़र आई- मीडिया उस पर टूट पड़ा- क्योंकि यहां विवाद की वह संभावना थी, जिसकी खुराक पर इन दिनों मीडिया पलता है.

उम्मीद करनी चाहिए कि इस बार सलमान रुश्दी की किताब पर नए सिरे से पाबंदी नहीं लगेगी. हमारा समाज और हमारी सरकारें अब यह सयानापन दिखाती हैं कि जो भी पाबंदी हो, वह अलिखित हो, अदृश्य हो. ऐसी कई पाबंदियों का दबाव हमारे लेखक और संस्कृतिकर्मी महसूस करते रहे हैं. सच तो ये है कि क़ानूनी पाबंदियों या फतवों से रचनाएं दबतीं नहीं, और ज़्यादा दूर तक चली जाती हैं. यह आम अनुभव है कि फिल्में हों, साहित्य हो, चित्रकला हो या नाटक- जब भी उन पर रोक लगाई गई, लोगों ने उन्हें खोज-खोज कर देखा. रोक लगाने वाले ख़त्म हो गए, रचनाएं बची रहीं. ‘सैटेनिक वर्सेज़’ के ख़िलाफ़ फ़तवा देने वाले आयतुल्ला खुमैनी अब इस दुनिया में नहीं हैं, ईरान अपने इस फ़तवे को गंभीरता से लेने की हालत में नहीं है, भारत में वह चिट्ठी गायब हो चुकी है जो इस किताब पर पाबंदी लगाने के लिए जारी की गई थी- जबकि चाकू खाने के बाद भी सलमान रुश्दी और उनका लेखन ज़िंदा है और उनकी किताब ‘सैटेनिक वर्सेज़’ एक भारतीय दुकान तक पहुंच गई है.


प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं…

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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