प्रो.अशोक कुमार
आज भारतीय शिक्षा की दशा चिंताजनक है। व्यवसायिक दृष्टि रखने वाले शिक्षण संस्थायें अपनी जिम्मेदारियां और उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं। इसके लिए समाज, सरकार, शिक्षा जगत् और शिक्षण संस्था के संचालक खुद भी जिम्मेदार है। शिक्षा व्यवस्था के व्यावसायिक रूप से अध्यापकों का शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण भी हो रहा है। अतः वे अपनी सेवा ठीक ढंग से निभाने में अक्षम रहता है। यह स्थिति भारत देश के भविष्य के लिए कतई अच्छी नहीं है और ऐसे ही रहा तो बच्चों का भावी भविष्य अराजकता की ओर जाना तय है। इन सबके लिए हम सभी और शिक्षा नीतियां जिम्मेदार मानी जा सकती है।
शिक्षा का बाजार एक पूर्ण बाजार
आज शिक्षा का बाजार अपने आप में एक पूर्ण बाजार है। पूर्ण बाजार का अर्थ है कि जिस वस्तु की मांग और पूर्ति , आपस में पूरी तरह मेल खाए, जैसे चाय का बाजार। आप जिस समय चाहें, जितनी मात्रा में चाहें, जिस दाम पर चाहें, आकाश-पाताल , सब जगह मांग के अनुसार उपलब्ध हो जाती है। 5 रुपये से 150 रुपए में। उसी तरह से शिक्षा का बाजार है। जिस दाम पर चाहिए जिस जगह चाहिए ,जिस तरीके से चाहिए , जिस विषय मे चाहिए। जिस स्तर पर चाहिए, आपको उपलब्ध हो जाती है। सस्ती वाली, महंगी वाली। असलवाली, नकलवाली । कामवाली, बेकामवाली । स्कूल वाली, घरवाली । पैसेवाली, मुफ़्तवाली। सरकार वाली, माफिया वाली। जो भी लोग चाहें।
जिसको जो चाहिए ले सकता
शिक्षा बाजार के बारे में पूरी सूचना सबको है। जिसको जिस दाम पर जैसी चाहिए , खरीद लेता है। नहीं तो विदेश जाकर ले लेता है। किस बात का रोना। मिट्टी के दाम पर सोना तो नहीं मिलेगा।। सरकार भी नहीं दे सकती और माफिया भी। सोने के दाम पर ही सोना मिलेगा। और चोरी बेईमानी तो हर वस्तु और सेवा के बाजार में है।
आखिर कैसे रूके शिक्षा का बाजारीकरण
शिक्षा के क्षेत्र में और अधिक संसाधनों की जरूरत है , और ये आए कहां से, यही सोचने की जरूरत है। देश की सरकारों को हर स्तर पर शिक्षा की दशा एवं दिशा पर गंभीरता से मंथन करते हुए शिक्षा के बाजारीकरण को रोकना होगा तथा ऐसी शिक्षा नीति एवं व्यवस्था देनी होगी जिससे देश और समाज के युवा पीढ़ी अच्छे , कुशल और जिम्मेदार नागरिक बन सकें।
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