प्रमोद कुमार
हिन्दी दिवस की गलतफहमियां व कुछ खुशफहमियां दिखीं। विभागों में राजकाज की भाषायी समस्या कुछ हैं और आज विद्वानों के प्रवचन कुछ और। हर साल की तरह इस बार भी पुनरावृत्ति। ब्रिटिश भारत में राजकाज की भाषा अंग्रेजी थी। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने यह निर्णय लिया कि हिन्दी केन्द्र सरकार की आधिकारिक (राजकाज की) भाषा होगी।
क्या है हिंदी दिवस मनाने का इतिहास?
भारत में अधिकतर क्षेत्रों में ज्यादातर हिन्दी भाषा बोली जाती थी। इस निर्णय को महत्व देने व प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को प्रत्येक क्षेत्र (क्षेत्र क, ख और ग) के राजकाज में प्रसारित करने के लिये वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह हिन्दी दिवस हिन्दी साहित्य, भाषा, कविता, कहानी या इसकी महानता से संबंधित नहीं है। यह दिवस अंग्रेजी साहित्य या भाषा के विरोध में भी नहीं है। इसका उद्देश्य हिन्दी को एक राष्ट्र-भाषा बनाने जैसा कुछ नहीं। इसका स्पष्ट और केवल एक मात्र उद्देश्य राजकाज में हिन्दी का प्रयोग बढ़ाना है।
हिंदी को अंग्रेजी की जगह लाना जनहित का निर्णय
राजकाज से अंग्रेजी को विस्थापित कर हिन्दी को स्थापित करना जनहित में था, क्योंकि यहां की आम जनता सरकारी कामों में अंग्रेजी के प्रयोग से असहज व असहाय हो जाती थी। राजकाज में अंग्रेजी लगभग सौ सालों से चली आ रही थी, उसमें कामकाज की पर्याप्त शब्दावली थी और वह अधिकारियों के अभ्यास में थी। जबकि हिन्दी (खड़ी बोली) का जन्म मात्र सौ या सवा सौ वर्ष पहले हुआ था, उसके शब्दकोश में मात्र 20 हजार शब्द थे, प्रशासनिक, मानविकी और तकनीकी शब्दों का इसमें घोर अभाव था।
व्यवहारिक दिक्कतें…
स्वतंत्र भारत में राजकाज की भाषा लागू करने में यही व्यावहारिक दिक्कत थी। तब स्वतंत्र भारत ने सभी सरकारी विभागों में हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने के लिए राजभाषा अनुभाग बनाये। उसने कामकाज के शब्दों की खोज, विकास व शब्दकोश के निर्माण के लिए विद्वानों की समीतियां बनायी व नियुक्तियां की। आज भी विभागों म़े राजभाषा और हिन्दी अधिकारी कार्यरत हैं। दुर्भाग्य से उन विद्वानों को कार्यालयों, कारखानों, विज्ञान विषयों की कोई जानकारी न थी। उनकी खोजें नितांत अव्यवहारिक होती थीं, उदाहरण के लिए उन्होंने ट्रेन की हिन्दी लौहपथ गामिनी बनायी जो अत्यंत अव्यावहारिक थी और जिसे जनता स्वीकार नहीं कर सकती थी।
राजकाज में हिन्दी के प्रयोग साल-दर-साल धीरे-धीरे बढ़े। लेकिन,ये प्रयोग उन्होंने बढ़ाये जो विभिन्न स्थलों पर काम कर रहे थे और काम के अनुसार अपनी बोली से नये शब्द पैदा कर रहे थे। उदाहरण के लिए फर्टिलाइजर कारखाने के इंजीनियरों व मजदूरों ने अनेक अंग्रेजी तकनीकी शब्दों के व्यावहारिक अनुवाद किये, आज वे शब्द शब्दकोश में शामिल हैं। ऐसे ही खेतों खलिहानों, कारखानों, कार्यालयों, विद्यालयों में प्रयुक्त शब्दों से हिन्दी के शब्दकोश में आज 1,50,000 शब्द जुड़ गये हैं, यह वृद्धि मुख्य रूप से उपर्युक्त कारण और उर्दू, बाँग्ला आदि के शब्दों के हिन्दी में शामिल होने से हुई है।
हिंदी से अधिक संपन्न भारत में तमिल
भारत में हिन्दी से अधिक सम्पन्न तामिल भाषा है। इस बीच अंग्रेजी शब्दकोश में शब्दों की संख्या 1,50,000 से बढ़कर 6,00,000 हो गयी है । उसमें यह परिवर्धन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन शब्दों के जुड़ने से हुआ है जिनका उपयोग अंग्रेजी बोलने वाले कर सकते हैं। भाषा में शब्दों को अपनाने में अंग्रेजी उदार है, उससे भी अधिक उदार छोटी जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली कोरियाई भाषा है, उसने अधिकांश चीनी चित्र शब्दों (मंदारिन) को अपने में समाहित कर लिया है और इस मामले में अब अंग्रेजी को पछाड़ने की स्थिति में आ गयी है। भाषायी उदारता आवश्यक है विकास के लिए। हिन्दी के पंडितों में शुरू से ही इसकी घोर अनुदारता रही। वह अनुदारता आज इंडिया और भारत तक पहुँच गई है।
आज अनुमानित 6.5 लाख शब्दों की वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली बन चुकी है, जिनमें विज्ञान और मानविकी की सभी शाखाओं के शब्द सम्मिलित हैं, वे सभी भाषा-भाषियों के प्रयोग में हैं। हिन्दी के राजभाषा बनने में एक बड़ी बाधा हिन्दी भाषियों की मानसिकता भी है। शब्दकोश बनाने वालों ने जो शब्दकोश बनाये उसमें व्यवहृत शब्दों की जगह संस्कृतनिष्ठ शब्दों और तत्सम संस्कृत शब्दों को भर दिये, जिसे काम करनेवाले समूहों ने अस्वीकृत कर दिया। यहाँ हिन्दी सीखने की कोशिश करनेवालों के साथ दुर्व्यवहार भी हुए। मैंने कभी अपनी आँखों से देखा था कि जब कोई गैर हिन्दी भाषी हिन्दी बोलने की कोशिश करता था तो उसकी अशुद्ध हिन्दी का लोग मजाक उड़ाया करते थे।
हिंदी की राजनीति ने खेल बिगाड़ा
हिन्दी की राजनीति ने गैर हिन्दी भाषियों के मन में शंकाएं पैदा की, उसका भी दुष्प्रभाव झेलना पड़ा। आज सुबह मैंने एक दुकान पर देखा- एक मजदूर द्वारा ब्रेड माँगने पर वहाँ खड़े एक संभ्रांत ने टिप्पणी की कि करते हो मजदूरी और बोलते हो ब्रेड इंग्लिश में। आज तो हिन्दी बोल लेते! यह व्यवहार कहीं से हिन्दी प्रेम नहीं है। आज सोशल मीडिया पर अंग्रेजी साहित्य और अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग करनेवालों का मजाक उड़ाया जा रहा है। ये टिप्पणीकार किसी राजकाज की भाषा समस्या से रूबरू नहीं हैं – पर, ये हिन्दी दिवस का सबसे अधिक मजा ले रहे हैं, ये ज्ञानदायी कविताएँ लिखकर अपनी कुण्ठाओं को व्यक्त कर रहे हैं।
हिंदी और अंग्रेजी दोनों का हो रहा विस्तार
आज की सच्चाई यह है कि भारत में अंग्रेजी और हिन्दी -दोनों का विस्तार हो रहा है। कभी दक्षिणी राज्यों में हिन्दी भाषियों का बहिष्कार किया जाता था, अब वहाँ दुकानदार उनका स्वागत कर रहे है। बाजार का संबंध भाषा पर चढ़ गया है। तामिल सब्जीवाले भी हिन्दी ग्राहकों की भारी जेब देख लौकी, पालक सीख समझ बोल और हिन्दी में आसानी से सौ, पचास रुपये माँग रहे हैं। हिन्दी भाषी वहाँ धडल्ले से बहुराष्ट्रीय अंग्रेजी में काम कर रहे हैं।
उर्दू का विकास बाजार ने किया
उर्दू का विकास बाजार ने किया था। उर्दू का अर्थ बाजार होता भी है। अब हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का अर्थ बाजार हो जायेगा। इस लेख के प्रारंभ में जिस तकनीकी- मानविकी शब्दों की संख्या मैंने 6.5 लाख बतायी थी, वह मेरी दो साल पहले की जानकारी थी, अभी गूगल पर खोजा तो देखा कि वह संख्या 11 लाख से ऊपर आ गई है। ये 11 लाख शब्द सभी भाषाओं में प्रवेश कर वहाँ रहेंगे और उन भाषाओं के मूल शब्दों को हाशिये पर डाल देंगे। चंद वर्षों में एआई और एआई-मानवों के लिए भाषाओं में फर्क केवल लिपियों के रह जायेंगे। फिर, एक ग्लोबल भाषा की बड़ी दुनिया में क्या हिन्दी और क्या अंग्रेजी! इंडिया भी बाजार , भारत भी बाजार!
यह भी पढ़ें: Supreme Court on Manipur Violence: मणिपुर हिंसा के पीड़ितों के केस की सुनवाई गुवाहाटी हाईकोर्ट में होगी