हाय, इतनी संकुचित सोच, आजादी के दिवानो पर उठाने लगे अंगुली

कहा गया है कि किसी भी देश को जानने के लिए वहां की शिक्षा और साहित्य का अध्ययन करें सब कुछ पता चल जाएगा। यह सच भी है, महान कूटनीतिक चाण्यक्य भी कहा करते रहे कि देश की दिशा तय करने से पहले शिक्षा नीति तय करनी जरूरी होती है क्योंकि बाल मन को जो शिक्षा दी जाएगी उसी से तो देश की दिशा तय होगी।
शायद इसी सोच के साथ हमारे पूर्वजों, विभूतियों, आजादी के दिवानों ने देश की शिक्षा की दिशा तय करने का कुछ पैमाना बनाया। इसमें कविवर रवींद्र नाथ टैगोर, महामना मदन मोहन मालवीय, बाल गंगाधर तिलक, मौलाना अबुल कलाम आजाद, फकरुद्दीन अली अहमद, एम सी छागला, हुंमायु कबीर और बिहार की बात करें तो महान स्वातंत्र्य सेनानी पंडित भरत मिश्र ‘सोहम् बाबा’। इन सब ने मिल कर एक सभ्य, सुसंस्कृत और शिक्षित समाज की परिकल्पना की थी। तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि इसी भारत भूमि में एक दिन उन्हीं पर सवाल खड़े किए जाएंगे। उनकी जाति, उनके मजहब को लेकर सवाल उठाए जाएंगे। पूछा जाएगा कि आजादी के बाद पांच शिक्षा मंत्री एक ही मजहब से क्यों रहे?
मुझे समझ नहीं आता कि तालीम और मजहब में क्या तालमेल है। किसे वजीर-ए-तालीम बनाया जाए इसका पैमाना मजहबी दीवारों से हो कर तो नहीं जाता। फिर उनका कसूर क्या है, यह पूछने वाला कोई है इस हिंदोस्तान में। नहीं है, आज समूचा विपक्ष इस बात मौन है कि एक राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री देश के प्रथम पांच शिक्षा मंत्रियों के मजहब पर सवाल उठा रहे हैं तो क्यों?
अरे वो मौलाना आज़ाद , फकरुद्दीन अली अहमद , एम सी छागला जिन्होंने साथ मिल कर आजादी की लड़ाई लड़ी और जब बंटवारे का मौका आया तो, मजहबी बंटवारे का मौका आया तो उन्होंने अपने मूल वतन हिंदोस्तान को चुना। फिर देश के निर्माण की प्रक्रिया में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और देश को विकास की राह दिखाने और उस पर मजबूती से काम करने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरू के सपनों को साकार करने के लिए प्रण-प्राण से जुट गए। लेकिन अब इन महान विभूतियों पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। मैने भी थोड़ा-बहुत इतिहास पढ़ा है लेकिन इतिहास की किसी पुस्तक में मौलाना अबुल कलाम आजाद, फकरुद्दीन अली अहमद, एम सी छागला, हुंमायु कबीर के बारे में ये नहीं बताया गया कि वो मजहबी थे। इतिहास की किताब ही क्यों, बिहार राज्य से जुड़े देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के आध्यात्मिक गुरु, गांधी, नेहरू, महामना से लेकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय और वीर सावरकर तक के करीबियों में रहे पंडित भरत मिश्र जो रिश्ते में मेरे परनाना लगते थे, उन्होंने भी कभी ये नहीं बताया कि मौलाना अबुल कलाम आजाद, फकरुद्दीन अली अहमद, एम सी छागला, हुंमायु कबीर मजहबी थे।
लेकिन आज जार-ए-बहस ये है कि किसी वर्ग विशेष के लोगों को देश का शिक्षा मंत्री क्यों बनाया गया। क्यों नहीं बनाया जा सकता। ये देश जितना पंडित जी का है उतना ही मौलाना जी का भी है। इसे अनंत काल तक कोई मिटा नहीं सकता या यूं कहें कि कोई स्याही ऐसी नहीं बनी जो इसे काट सके। यह हिंदोस्तान न मजहबी वतन रहा है न है न होगा। ये सपना देखने वालों का सपना खंड-खंड होगा। ये दावा है।हां एक बात जरूर कहूंगा, लिखूंगा कि अब जा कर ये कहीं लगता जरूर है कि आजादी के बाद की बुनियादी तालीम में कहीं न कहीं कोई कोर कसर जरूर रह गई अन्यथा आजादी के सात दशक बाद इस तरह की सोच कभी पैदा नहीं होनी चाहिए थी। तो आजादी के बाद के हुक्मरानों को भी इस पर विचारना तो पड़ेगा ही।
एक बात और बता दूं, बात 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान की है। वाराणसी के काशी विद्यापीठ में एक समारोह में शिरकत करने आए पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बातो-बातों में एक बात कही थी, बात अयोध्या के विवादित ढांचे को गिराए जाने के बाद के हालात पर केंद्रित थी, उन्होंने उस घटना को शर्मनाक बताते हुए कहा था कि जब तक देश की एक कौम की अगली पीढ़ी पढ़-लिख कर आगे नहीं आएगी, वो पीढ़ी जिसे कारोबार से सरोकार होगा, अपनी और अपने वतन की उन्नति से सरोकार होगा, तब तक इस वैमनष्यता को मिटाया नहीं जा सकता।
लेकिन वो दौर भी बीत गया। अब तो अयोध्या में मंदिर और मस्जिद दोनों का निर्माण शुरू हो गया है। ऐसे में कम से कम अब तो देश में एक सौहार्दपूर्ण माहौल बनना चाहिए। राम हों या रहीम दोनों को इस देश में साथ रहने का हक रहा है,है और हमेशा रहेगा। ये सोच ही आधुनिक सोच है। इसी सोच को आगे बढ़ाने की जरूरत है। इस पर हर शिक्षाविद्, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, युवा, महिला हर किसी को काम करना ही होगा। बिना सोचे, बिना झिझके, बिना डरे।
ठीक वैसे ही जैसे एक सामाजिक कार्यकर्ता, पेशे से शिक्षक युवा साथी धनंजय त्रिपाठी ने सोशल मीडिया पर अपनी पोस्ट में लिखा…।
“मौलाना आज़ाद ने अपनी आत्मकथा ‘ इंडिया विंस फ्रीडम ‘ उर्दू में डिक्टेट की थी और उस किताब को अंग्रेजी में हुंमायु कबीर ने ही अनुवादित किया था। आपने 1932 में ऑक्सफोर्ड में कविताओं की एक पुस्तक प्रकाशित की। हुमायु कबीर शिक्षाविद् और राजनीतिज्ञ थे। वे बंगाली भाषा के कवि, निबंधकार और उपन्यासकार भी थे। भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन का इतिहास और स्वतंत्र भारत में शिक्षा आदि कुछ किताबें तो ई पुस्तकालय के साइट पर भी ऑनलाइन उपलब्ध है।”
“सुशील मोदी जी ! अपने ही देश में अंग्रेजों के खौफ से थर थर काँप रहे पीटीजीवी जब माफी मांग रहे थे तब हुंमायु कबीर जैसे शूरवीर ऑक्सफ़ोर्ड में ‘ महामहिम सरकार की नीति की हर भारतीय निंदा करता है ‘ विषय पर अपना विदाई भाषण दे रहे थे।”
“भारत लौटने पर, कबीर ने कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। वह ट्रेड यूनियन की राजनीति में भी शामिल रहे और 1937 में बंगाल विधानसभा के लिए चुने गए। उन्होंने 1947 के बाद कई सरकारी पदों को संभाला, जिसमें शिक्षा मंत्री का जिम्मेदार पद भी शामिल है।”
“हुंमायु कबीर के भाई जंहागीर कबीर भी कांग्रेस नेता और मंत्री रहे। इनके भतीजे अल्तमस कबीर सुप्रीमकोर्ट के चर्चित मुख्य न्यायाधीश हुए। आपकी बेटी लैला कबीर और दामाद जॉर्ज फर्नांडीज साहब थे।”
नोट: यह लेख ‘Sachhi bate’ ब्लॉग से लिया गया