क्या विश्वविद्यालयों में समान पाठ्यक्रम होना चाहिए?

अशोक कुमार
विश्वविद्यालयों में समान पाठ्यक्रम होने के बारे में क्या होना चाहिए यह एक व्यापक विषय है और विचारों में भिन्नता हो सकती है। इस मुद्दे पर बातचीत में विचारधारा और प्राथमिकताएं इसका महत्वपूर्ण तत्त्व हो सकते हैं।

क्या सोचते हैं पक्षकार?

समान पाठ्यक्रम के पक्षधरों का कहना है कि यह मानकीकरण और विश्वस्तरीकरण को प्रोत्साहित करेगा और छात्रों को एक ही सेट के ज्ञान और कौशलों के साथ परिचित कराएगा। इससे सभी छात्रों को समानता की भावना और सामान्य ज्ञान की एक साझी आधारभूत ज्ञान की दृष्टि मिल सकती है। यह उन क्षेत्रों के छात्रों के लिए भी लाभदायक होगा जो बच्चे पर्याप्त संसाधनों के अभाव में हैं और जिनके पास अच्छी शिक्षा के लिए पहुंच नहीं है। समान पाठ्यक्रम का होना विश्वविद्यालयों के बीच सामंजस्य बनाता है और छात्रों को एक समान स्तर पर पढ़ाई करने का मौका देता है। इससे छात्रों की योग्यता और ज्ञान की दृष्टि से एक समान आकलन होता है।

हालांकि, उठ रहे सवाल भी…

विपक्षी तत्त्वों का कहना है कि समान पाठ्यक्रम नवाचार और रचनात्मकता को दबा सकता है। यह एकल अधिकारियों को अपनी विशेषताओं और विषयों पर विशेष प्रोग्राम विकसित करने की क्षमता सीमित कर सकता है। समान पाठ्यक्रम से छात्रों के अंदर नये और आविष्कारी विचार पैदा नहीं होते हैं और छात्रों के साथ उनकी आस्था और संस्कृति के अनुरूप पाठ्यक्रम को न बताया जाना सही नहीं होता है। इसके अलावा, देश में विविधता के कारण अलग-अलग राज्यों में भी अलग-अलग संस्थान होते हैं जो अपने-अपने विशिष्ट रूप से छात्रों को ज्ञान प्रदान करते हैं।

लगेगा सृजन और नवाचार को ग्रहण!

जब तक पाठ्यक्रमों में विविधता नहीं होगी तब तक नये विषयों का सृजन नहीं होगा। जब तक सभी विश्वविद्यालयों/ महाविद्यालयों में समान बुनियादी ढाँचे- शिक्षक, प्रयोगशाला, विषय से सम्बन्धित उपकरण, पुस्तकालय आदि उपलब्ध नहीं होंगे तब तक समान पाठ्यक्रम लागू करना घातक भी हो सकता है।महाविद्यालयों में यह होना सम्भव नहीं लगता। इसलिए, विश्वविद्यालयों में समान पाठ्यक्रम होने के बारे में फैसला लेते समय, इन सभी मुद्दों को विचार में रखना चाहिए।

(लेखक, गोरखपुर विश्वविद्यालय और कानपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व जाने माने शिक्षाविद हैं)