आतंक की लपटों से जम्हूरियत के चिराग तक… लालचौक के ‘समय’ ने दिखाया कैसे बदला कश्मीर का वक्त​

 Jammu-Kashmir Assembly Elections 2024: जिस कश्मीर में कभी आतंक की आग की लपटें हुआ करती थीं. वहां अब जम्हूरियत का चिराग जलने जा रहा है. कश्मीर घाटी के समय में आए इस बदलाव को लगा, एक घड़ी ने बेहद करीब से देखा है. वो घड़ी श्रीनगर के लालचौक का घंटाघर है, जो कश्मीर के हर दौर का गवाह है.

जम्मू-कश्मीर (Jammu-Kashmir Assembly Elections 2024) में 10 साल बाद विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं. आर्टिकल 370 (Article 370) हटाए जाने के बाद वहां पहली बार विधानसभा के चुनाव होंगे. 90 विधानसभा सीटों के लिए वोटिंग 3 फेज में 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्टूबर को होगी. 4 अक्टूबर को नतीजे आएंगे. 

जिस कश्मीर में कभी आतंक के आग की लपटें हुआ करती थीं. वहां अब जम्हूरियत का चिराग जलने जा रहा है. कश्मीर घाटी के समय में आए इस बदलाव को लगा, एक घड़ी ने बेहद करीब से देखा है. वो घड़ी श्रीनगर के लालचौक का घंटाघर है, जो कश्मीर के हर दौर का गवाह है. आइए इस चुनावी समर में बदलाव की बयार के बीच घंटाघर की जुबानी ही घाटी के बदलते समय को देखते हैं. 

जिसे धरती की जन्नत कहते हैं, उस जन्नत के दिल में बैठा मैं सिर्फ एक घंटाघर नहीं हूं. बल्कि इतिहास को वर्तमान और भविष्य से जोड़ने वाला वो समय हूं, जिसने कश्मीर के हर रंग को देखा है. मैं वो समय हूं, जिसने शाम ढलते ही लोगों को आतंकवाद के डर से दुबकते देखा है. आज मैं वो खूबसूरत नजारा भी देख रहा हूं कि कैसे घाटी बेहतर कल की चाह की चुस्की ले रही है.

जब आतंकी दहशत में थर्राया था लालचौक
मैं वो समय हूं, जिसने चेनार के पत्तों से पटी जन्नत को देखा है. उन पेड़ों के पीछे से उठे आतंक के बम बारूदों का भी मैं गवाह हूं. मैं वो समय हूं, जिसने डल झील के किनारे खूबसूरत अफसानों में लिपटे प्रेम प्रसंगों को देखा है. वहीं, नफरत और आतंक की बंदूक चलते भी देखा है. मैं लाल चौक को आतंकी दहशत से डरते और थरथराते देखा है. समय को यूं बदलते भी देखा है कि यहां तिरंगा लहराने लगा.

जब सुने हिंदुस्तान विरोधी नारे
मैंने बडे संताप के साथ ऐसे नारों को सुना, जो हिंदुस्तान के खिलाफ लगाए गए. यही पर मैं आज लोकतंत्र को फलते और फुलते भी देख रहा हूं. कभी आर्टिकल 370 में लिपटी इस घाटी का दम घुटता था. आज खुली हवा में ये घाटी जम्हूरियत की नई सांस ले रही है. इस कश्मीर के चेहरे पर कभी हमने आतंक की अंतहीन गमी देखी है, तो आज चुनाव के जरिए अपनी किस्मत लिखने की खुशी भी देख रहा हूं.

कश्मीरी पंडितों का पलायन भी देखा
मैंने लाखों कश्मीरी पंडितों को मुड़ मुड़कर देखते और फिर पलायन करते हुए देखा है. उनको फिर से वापस लाने की कोशिशें भी मेरी नजरों के सामने ही हुई. 10 साल बाद ही सही, जम्मू-कश्मीर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करने जा रहा है.
 

कश्मीर की तासीर में ठंड है. वो ठंड जो सुकून पहुंचाती है, जहां आप जी भरकर जीने वाली सांसें ले सकते हैं. लेकिन उन सांसों में कई बार आतंकी धमाकों के बारूद घुल जाते हैं. लेकिन, अब वक्त बदलने लगा है. बम और बारूदों वाली धुंध आहिस्ता-आहिस्ता छंटने लगी है. अब लोकतंत्र के इस त्योहार में तमाम राजनीतिक दल अपनी भागीदारी के लिए उतरने लगे हैं. 

अब घाटी में अपनी संभावनाओं के फूल खिलाने में जुटी पार्टियां
खासकर युवाओं में मैंने देखा कि वो इस चुनाव में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं. 25 साल से 38 साल के वो नौजवान, जिनके हाथों में बंदूक थमाने की साजिशें मैने ही कई बार देखी है. आज उन्हीं हाथों में वो ललक पैदा हो गई है कि वो कश्मीर की बागडोर संभाल सके. इसीलिए चाहे कांग्रेस-NCP गठबंधन हो, चाहे PDP हो या फिर BJP हो… घाटी में अपने लिए संभावनाओं के फूल खिलाने में सभी जुटे हुए हैं.

जिन लोगों ने घाटी के कंधे पर बंदूकें रखने की साजिशें रची, उन लोगों को घाटी ने हाशिए पर फेंक दिया है. मै साफ साफ देख पा रहा हूं कि लोकतंत्र का ये चुनावी पर्व कश्मीर की खूबसूरती को और ज्यादा बेनजीर बना रहा है.

आर्टिकल 370 के बाद काफी तेजी से बदला कश्मीर का वक्त
मैं समझ पा रहा हूं कि जम्मू-कश्मीर का वक्त आर्टिकल 370 के बाद काफी तेजी से बदला. अब समय देख रहा है कि कैसे कश्मीर में चुनाव के जरिए लोकतंत्र को लाने का उत्साह बढ़ा है. सबसे खास बात ये है कि जिन्होंने चुनाव का बहिष्कार किया था, वो भी मान रहे हैं कि चुनाव का बहिष्कार एक भूल थी. चुनाव ही तो लोकतंत्र तक जाने का सही रास्ता है.

कहां तो घाटी में ये सवाल खड़ा होता था कि लोकतंत्र को कायम रखने वाला चुनाव यहां होगा कि नहीं, वहां चुनाव में हिस्सेदारी के लिए तमाम राजनीतिक दल बढ़कर चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार जब दूसरी बार आई, तो 5 साल पहले 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर में आर्टिकल 370 को हटा दिया गया. तब सवाल उठा कि ये लोकतंत्र को मजबूत बनाएगा या मजबूर. जवाब सामने है. चुनाव के लिए सबका उत्साह साफ साफ दिख रहा है.

जन्नत में जम्हूरियत का चिराग जलाने की जागी तमन्ना
जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के लालचौक पर खड़ा मैं वो समय हूं, जिसने राज्य में कई बार चुनाव होते देखा है. कई बार चुनावों को लहूलुहान होते भी देखा है. कई बार शांति से लोकतंत्र के इस त्योहार को मनाते भी देखा है. अबकी बार मैं साफ साफ देख रहा हूं कि घाटी में भी चुनाव को लेकर लोगों में जोश है. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन किस पार्टी से लड़ रहा है. जैसे BJP में टिकट को लेकर उतावले लोग दिखे, उसी तरह धरती की इस जन्नत में जम्हूरियत का चिराग जलाने की तमन्ना ने कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस को भी एक कर दिया. 1987 के बाद पहली बार दोनों पार्टी मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं.

श्रीनगर में जहां मैं हूं, इसी जगह पर दिल्ली से कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी आए थे. फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला से मुलाकात हुई. फिर केसी वेणुगोपाल और सलमान खुर्शीद आए. मामला इस बात पर फंसा था कि घाटी की 47 सीटों में नेशनल कॉन्फ्रेंस को 7 सीटें दे रही थी और कांग्रेस 10 से टस होने के लिए तैयार नहीं थी. उसी तरह जम्मू में नेशनल कॉन्फ्रेंस जितनी सीटें चाहती थी, उसके लिए कांग्रेस तैयार नहीं थी.

आखिरकार कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस इस बात के लिए तैयार हो गए कि NC 51 सीटों पर लड़ रही है, जबकि कांग्रेस 32 सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर रही है.

अब इससे ज्यादा लोकतंत्र की मजबूती का सबूत और क्या मिल सकता है कि जिस उमर अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होने तक विधानसभा चुनावों के बहिष्कार की घोषणा की थी, उसको अपनी गलती मानी. वो खुद गांदरबल सीट से चुनाव लड़ रहे हैं.

हर कोई मना रहा लोकतंत्र का त्योहार
मैं देख रहा हूं कि चाहे नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन हो, चाहे PDP हो या फिर BJP हो, इन दलों से आगे जिन लोगों के कभी बंदूक की वकालत की थी, वो भी आज जम्मू-कश्मीर के चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं. 22 साल के अबरार रशीद इन दिनों बहुत व्यस्त हैं. उनके पिता इंजीनियर रशीद जेल में हैं, तो उनकी अवामी एहतीहाद पार्टी के लिए अबरार गली गली जाकर वोट मांग रहे हैं.

इंजीनियर रशीद ने जब से जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को हराया था, तब से घाटी की सियासत में बदलाव देखा जा सकता है. उसी बदलाव का नतीजा है कि इस बार विधानसभा चुनावों में कई अलगाववादी गुट हिस्सा ले रहे है, जिनमें जमात-ए-इस्लामी भी एक है.

माना जा रहा है कि जमात दक्षिण कश्मीर में पुलवामा के अलावा कुलगाम, देवसार, त्राल और राजपोरा से चुनाव लड़ेगी. साथ ही विधानसभा चुनाव में पूर्व आतंकी और अलगाववादियों ने एकजुट होकर एक नई पार्टी बनाई. उन्होंने तहरीक-ए-अवाम का गठन किया. ये भी कई इलाकों से चुनाव लड़ रही है. इतना ही नहीं आतंकी सर्जन बरकती, जो श्रीनगर जेल में बंद है. उसकी बेटी भी चुनाव लड़ रही है. साथ ही संसद हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरु का भाई भी चुनाव लड़ रहा है.

दूसरी तरफ ऐसे भी कई उम्मीदवार है जिन पर UAPA के तहत मामले हैं. जैसे PDP के यूथ विंग का लीडर वाहिद पारा भी है, जिस पर NIA ने चार साल पहले मामला दर्ज किया था. अनंतनाग से लोकसभा का चुनाव हारने के बाद वो पुलवामा से विधानसभा का चुनाव लड़ रहा है.  

जिस PDP से वाहिद पारा जुड़ा है, उस PDP में भी लोकतंत्र का हिस्सेदार बनने के लिए क्या कुछ हो रहा है. उसको मैं साफ साफ देख रहा हूं. PDP की प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने अपनी बेटी इल्तिजा मुफ्ती को बिजबेहड़ा से चुनाव लड़ाया है. लेकिन, इल्तिजा की इस उम्मीदवारी को लेकर PDP में कई नेता खफा हैं.

इल्तिजा का नाम जबसे पहली सूची में आया है, तब से पार्टी में काफी विरोध हो रहा है. इस इलाके को 1999 से 2018 तक, PDP के अब्दुल रहमान वीरी प्रतिनिधित्व करते रहे हैं. जब भी मुफ्ती सरकार बनी, तो वीरी जरूर मंत्री बने. लेकिन, वीरी अब बिजबेहरा से एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं. हालांकि, पार्टी ने उन्हें अनंतनाग पूर्व से टिकट की पेशकश की है.

दरअसल, जब से PDP ने पहली आठ उम्मीदवारों की लिस्ट निकली है, उसमें कई पूर्व विधायकों और DDC सदस्यों के नाम गायब हैं, जिसमें बगावत भी है, सियासत भी है लेकिन जम्हूरियत को लेकर जोश भी है. 1987 का चुनाव जम्मू-कश्मीर के लिए टर्निंग पॉइंट रहा. उसके बाद से ही घाटी में आतंक की आग लगी. उसे धीरे-धीरे रास्ते पर आने में 30 साल से ज्यादा समय लग गए. कश्मीर की घड़ी ने उस समय को बड़े करीब से देखा है.

लंबी कतारों में छिपी है बदलती सूरते हाल, यानी जम्हूरियत की कहानी. रोशन उम्मीदें अब खुद करेंगी गोया अपनी तकदीरे बयानी. जम्हूरियत के जश्न में आपकी शिरकत, दुनिया देखेगी नापाक इरादों के शिकस्त की कहानी.

लाल चौक के घंटा घर के रूप में मैंने जम्मू-कश्मीर में तमाम बड़े बदलावों को देखा है. मैंने देखा कि शेर-ए-कश्मीर के नाम से मशहूर शेख अब्दुल्ला की सरकार कैसे चली गई थी. मैंने उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला की राजनीति को तो अपनी आंखों के सामने ही छोटी से बड़ी होते देखा है. जिस कांग्रेस के साथ नेशनल कॉन्फ्रेंस का गठबंधन हुआ है, यही गठबंधन 37 साल पहले भी हुआ था. तब सामने अलगाववादी ताकतें भी थीं. 1987 के उस विधानसभा चुनाव में घाटी में इतना खून बहा था कि उसके बाद से घाटी लहूलुहान रहने लगी. 1990 में तो भारत बनाम पाकिस्तान और हिंदू बनाम मुसलमान की लड़ाई इतनी तीखी हो चुकी थी कि घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो गया.

पाकिस्तान इसके ही फिराक में था. तब से संयुक्त राष्ट्र से लेकर हर फोरम पर पाकिस्तान कश्मीर में मानवाधिकार का सवाल उठाता रहा. जब 5 साल पहले अनुच्छेद 370 खत्म किया गया, तो पाकिस्तान को लगा था कि इस मौके को वो भुना लेगा. लेकिन, पाकिस्तान के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि उसने किस तरह कश्मीर के ही एक हिस्से पर जबरन कब्जा कर रखा है. जिसे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर या POK कहते हैं. भारत का इरादा साफ है कि  POK लेकर रहेंगे.

मैं फिर आपको 1987 में ही ले चलूंगा, जो कश्मीर के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुआ. मेरी आंखों ने देखा है कि कैसे तब से हालात बदल गए. चुनाव नतीजे आने के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की सरकार ने कई नेताओं को जेल में डाल दिया. मुहम्मद यूसुफ शाह, यासीन मलिक और एजाज डार जैसे उम्मीदवारों जेलों में डाले गए. उन नेताओं ने आरोप लगाया कि जेल में उनको प्रताड़ित किया गया. मारा पीटा गया. उसी जेल से सलाहुद्दीन के रूप में एक खुंखार आतंकी निकला, जिसका असली नाम यूसुफ शाह था. उसके बाद हिजबुल मुजाहिद्दीन बनाकर वो अंतरराष्ट्रीय स्तर का आतंकवादी बन गया.

उसी तरह जेल से रिहा होने के बाद यासीन मलिक भी पहले पाकिस्तान गया. फिर जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का प्रमुख बन गया. इसी तरह एजाज डार ने भी हथियार उठा लिया और तत्कालीन DIG अली मोहम्मद वटाली की उनके घर पर ही हत्या कर दी.

3 दशक तक हिंसा की आग में धधकता रहा कश्मीर
ऐसे खूंखार आतंकवादियों के कारण तीन दशक तक कश्मीर हिंसा की आग में धधकता रहा. लेकिन, आर्टिकल 370 के खात्मे के बाद भारत सरकार ने घाटी में अमन शांति की नई पहल की. हालांकि, बीच-बीच में जम्मू-कश्मीर में चुनाव भी हुए. गठबंधन भी बने. असल सवाल यही था कि घाटी कब आतंकमुक्त होगी.

2008 के चुनाव के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 28 सीटें जीती थी. कांग्रेस ने 17 सीटों पर जीत हासिल की. तब कांग्रेस के समर्थन से नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने. फिर 2014 के चुनाव में सत्ता PDP के हाथों में आ गई. तब BJP के समर्थन से पहले मुफ्ती मुहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने. उनके निधन के बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती को ये जिम्मेदारी मिली.

जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक बहार से पाकिस्तान हमेशा परेशान हो जाता था. पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर की तस्वीर देख कर चिढ़ता है…और वो कतई नहीं चाहता कि भारत के इस अभिन्न अंग में लोकतंत्र मज़बूत हो. जाहिर है, चुनाव होंगे तो पाकिस्तान में तनाव बढ़ेगा.

जम्मू-कश्मीर में लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान 58.46% मतदान हुआ. इसी के साथ पिछले 35 साल का रिकॉर्ड टूट गया. 2019 के मुकाबले 2024 के लोकसभा चुनाव में 14% ज्यादा वोटिंग हुई. अब 4 अक्टूबर को कश्मीर की एक तस्वीर दिखेगी…जो नए दौर में यहां की सबसे मजबूत तस्वीर होगी. ये लोकतंत्र के विजय की तस्वीर होगी, लेकिन कश्मीर के खिलाफ साजिश करने वालों के लिए भय की भी तस्वीर भी होगी.

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