क्लाइमेंट चेंज या इंसान का कुदरत से खिलवाड़… हिमालयी नदियों के इस बौखलाहट का कौन जिम्मेदार?​

 हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की वजह से जब तापमान बढ़ता है, तो ग्लेशियर तेज़ी से पिघलते हैं. पिघलने से ग्लेशियर अपनी जगह से खिसकने लगते हैं. इस वजह से इलाके में नए ग्लेशियर लेक्स (हिमनद झील) बनते हैं. यही वजह है कि इस क्षेत्र में Glacial Lake Outburst Floods यानी GLOFs का खतरा बड़ा हो रहा है.

ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming) का असर भारत समेत दुनिया भर में देखा जा रहा है. बाढ़, बेमौसम बरसात, शहरों में पानी से उफनती सड़कें, भीषण गर्मी, गर्मियों के ज्यादा होते महीने और सिकुड़ती सर्दियां जलवायु परिवर्तन का अलार्म हैं. बेहद संवेदनशील हिमालय क्षेत्र में अब ग्लेशियर झीलों में बाढ़ या ग्लेशियर के पिघलने का खतरा मंडरा रहा है. कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश की 28,043 ग्लेशियर झीलों में से 188 झीलें कभी भी तबाही का बड़ा कारण बन सकती हैं. 

हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की वजह से जब तापमान बढ़ता है, तो ग्लेशियर तेज़ी से पिघलते हैं. पिघलने से ग्लेशियर अपनी जगह से खिसकने लगते हैं. इस वजह से इलाके में नए ग्लेशियर लेक्स (हिमनद झील) बनते हैं. यही वजह है कि इस क्षेत्र में Glacial Lake Outburst Floods यानी GLOFs का खतरा बड़ा हो रहा है. 

आइए समझते हैं आखिर हिमालयी नदियां क्यों बौखलाई हुई हैं? कैसे बदलता है हमारी नदियों का मिज़ाज? इसके पीछे कौन जिम्मेदार-क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग या इंसान:-

आमतौर पर जब आप नदियों को देखेंगे, तो वो इठलाती और मचलती हुई दिखती हैं, लेकिन बारिश के मौसम में इन नदियों में उफान आ जाता है. नदियां इतनी विकराल हो उठती हैं कि लगता है जैसे जो कुछ उसके रास्ते में आएगा, वो खत्म हो जाएगा. इसकी कई वजहें हैं. सबसे बड़ी वजह ये है कि हमने कुदरत के साथ छेड़छाड़ की है और कर रहे हैं.

क्लाइमेट चेंज से जिंदगी हो रही चेंज
पहली बड़ी बात, जो पिछले 20-30 सालों में सामने आई है वो क्लाइमेट चेंज हैं. क्लाइमेट चेंज ने ग्लेशियर्स को पिघलाने की गति को तेज कर दिया है. ग्लेशियर्स के पिघलने की वजह से गर्मियों में नदियों में पानी बढ़ जाता है. गौर करने वाली बात ये भी है कि जितनी भी हिमालय की नदियां हैं, उन सब में पानी सिर्फ ग्लेशियर से नहीं आता. इन नदियों में पानी आसपास के तमाम पहाड़ों का आता है. जब बारिश होती है, उस समय जितने भी पहाड़ों में लैंडस्लाइड हुए हैं, उनके मोरैन एक्टिवेट हो जाते हैं. जब वो एक्टिवेट होकर नीचे की तरफ आते हैं, तो अपने रास्ते में आने वाली तमाम बाधाओं को तोड़ते हैं. इसलिए नदियों के रास्ते में हम जो बाधाएं खड़ी करते हैं, वो हमारे लिए ज्यादा भयानक साबित होते हैं. इसलिए बहुत जरूरी है कि हम नदी के अधिकार का सम्मान करें.

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हमारी नदियों का कैसा रहता है मिज़ाज?
हमारी हिमालयी नदियां साल के बाकी समय में शांत रहती हैं और अविरल बहती हैं. लेकिन बरसात के दिनों में अचानक यही नदियां विकराल हो उठती हैं. दरअसल, हिमालय पृथ्वी का सबसे युवा और कच्चा पर्वत है. इसलिए यह प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से बेहद संवेदनशील है. हिमालय में जो नदियां बहती हैं, वो अपने साथ गाद लेकर आती हैं. इस कारण यहां नालों और छोटी नदियों का निश्चित मार्ग नहीं है. ये नदियां अक्सर अपना रास्ता बदलते हैं. भारी बारिश हिमालयी क्षेत्र में मौसम का सामान्य हिस्सा है.

हिंदुकुश हिमालय क्षेत्र में भारत और चीन सहित कई देश अचानक भारी बारिश, ग्लेशियर पिघलने और बांध टूटने से आई भयावह बाढ़ का सामना करते रहते हैं. भारत में पिछले साल उत्तराखंड और हाल ही में जम्मू-कश्मीर में ऐसी परिस्थितियां बनी. ऐसी बाढ़ को हिमालय क्षेत्र में फ्लैश फ्लड कहा जाता है.

नदियों के उफान का सबसे बड़ा कारण क्लाइमेट चेंज
क्लाइमेट चेंज की प्रतिक्रिया के रूप में हिमनद यानी हमारे ग्लेशियर झील या नदियां घटते जा रहे हैं. हिमालय में ग्लेशियरों से बहा कर लाए हुए मलबे से बनी झीलों (मोरेन डैम्ड) की संभावित संख्या और उनका आकार बढ़ता जा रहा है. ये झीलें अस्थायी मोरैन्स के पीछे विकसित होती हैं. इससे हिमनद झीलों के फटने से भयानक बाढ़ की स्थिति देखी जाती है. 

हिमनद झीलें तब टूटती हैं जब हिमनद झील के पानी के दबाव में बढ़ोतरी हो. चट्टानें टूट कर झील पर गिरें या भारी हिमपात हो या भूकंप हो. अक्सर ऐसी बाढ़ से जानमाल का ज्यादा नुकसान होता है. कहा जाता है कि पिछले 150 सालों में दुनियाभर में जितना तापमान बढ़ा है, उससे ज़्यादा तापमान तिब्बत और हिमालय में बढ़ा है. मतलब ये कि जलवायु परिवर्तन का ज्यादा असर यहीं हो रहा है. वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि कश्मीर और उत्तराखंड में जो आपदा आई है, उनमें जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा हाथ है.

नदियों के रास्ते में इंसानी दखल
पहाड़ी क्षेत्रों में भूवैज्ञानिक और पर्यावरणीय परिस्थितियों की अनदेखी करके निर्माण के काम हुए. सड़कें बनीं, बांध बनें. इसका असर भी दिखने लगा. ढालों के कटाव से बने मलबे की मात्रा को ढालों पर ही फेंक दिया जाता है. इससे ये ढाल अस्थिर हो जाते हैं. इस मलबे के कारण नदी-नालों के प्रवाह में भी बाधा आती है.

बारिश के दौरान दरकने लगती हैं ये चट्टानें
कई मामलों में ये भी देखा गया है कि रास्तों के खंडित, क्षीण चट्टानों और ढलानों पर लैंडस्लाइड के फैले मलबे के ढेरों को ये सड़कें काटती हुई जाती हैं. वहीं, सड़कों के लिए पहाड़ों को काटने से ये चट्टानें कमजोर हो जाती हैं. बारिश के दौरान ये दरकने लगती हैं. सतह पर बहता पानी तो चट्टानों को काटता है. मलबों के अंदर समाये पानी के कारण मलबों के ढेर टूट-टूटकर गिरने लगते हैं,

सड़कों के निर्माण के दौरान कितना मलबा पैदा होता है, उसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रति एक किलोमीटर की खुदाई से निकले मलबे का परिमाण 40,000 से लेकर 80,000 (औसतन 60,000) क्यूबिक मीटर होता है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हिमालय की 2,10,000 किलोमीटर लंबी सड़कों के निर्माण से कितना मलबा निकला होगा? 

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नदियों में जमी गाद भी पहुंचाती है नुकसान
जैसा कि हम जानते हैं कि हिमालय की नदियों में गाद होता है. बरसात के समय इन नदियों में सिर्फ पानी ही नहीं भरता, बल्कि इसमें गाद भी आ जाता है. नदी अपने साथ Glacier Moraine यानी ग्लेशियरों के पीछे हटते वक्त ग्लेशियरों से छोड़ा गया भारी मलबा भी लाती है. नदी में गाद बिछ जाने से नदी की जलधारण क्षमता यानी जल-प्रवाह की क्षमता घटती जाती है. अगर गाद खोदकर नदी के किनारे पर रख दी जाए, तो अगली बारिश में वह वापस फिर नदी में लौट आएगी. कई जगहों पर गाद के नदियों के फ्लडप्लेन गायब हो चुके हैं.

योजनाविहीन विकास
नदियों के किनारे असुरक्षित, अनियमित, योजनाविहीन ढांचागत विकास और बढ़ती आबादी से बाढ़ का खतरा बढ़ा है. जगह-जगह पर लोगों ने नदी के फ्लड प्लेन को घेर कर नदी के ड्रेनेज चैनेल को छोटा कर दिया है. इस वजह से तेज और ज्यादा बरसात में बाढ़ का खतरा पैदा होता रहता है. यही वजह है कि श्रीनगर में मौजूद 50 प्रतिशत से ज्यादा झील और अन्य जलाशय बीती शताब्दी में लुप्त हो गए. ये जलाशय बाढ़ का बहुत सारा पानी अपने अंदर समा सकते थे.

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क्या कहते हैं एक्सपर्ट?
भूवैज्ञानिक डॉ. नवीन जुयाल कहते हैं, “गाद हिमालय और ट्रांस हिमालय की नदियों में ज्यादा देखा जा रहा है. इसका सबसे बड़ा  प्रभाव इस क्षेत्र की झीलों पर पड़ने वाला है. जैसे-जैसे एयर टेंपरेचर बढ़ेगा, तो ग्लेशियर पिघलेंगे. इससे झीलों या हिमनद का जो वॉटर वॉल्यूम है, उसका लेवल भी बढ़ेगा. ज्यादातर नदियां Glacier Moraine की वजह से डैम्प्ड हो रखी हैं. ऐसे में अगर  एयर टेंपरेचर बढ़ता रहा और ग्लेशियर पिघलते रहे, तो ये एक समय पर टिपिंग पॉइंट तक पहुंच जाएगा. हमें पता नहीं कि ग्लेशियरों का टिपिंग पॉइंट क्या है लेकिन निश्चित तौर पर ये बहुत खतरनाक साबित होगा.” 

डॉ. नवीन जुयाल कहते हैं, “इसलिए हिमालय क्षेत्र की विकास नीति को नए सिरे से तैयार करना बहुत जरूरी है, ताकि इस तरह की आपदाओं की आशंकाओं को समय रहते कम किया जा सके.”

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