जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के दिग्गज नेता फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि जो भी कश्मीर की सत्ता में रहा, दिल्ली ने उस पर कभी भरोसा नहीं किया. दिल्ली ने कभी भी कश्मीरियों की आकांक्षाएं नहीं समझीं. उन्होंने यह बात NDTV के साथ खास इंटरव्यू में कही. जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं और इसमें राज्य की सबसे पुरानी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस का मुकाबला पारंपरिक प्रतिद्वंदी पीडीपी के अलावा बीजेपी, अन्य छोटे दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों से हो रहा है.
जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के दिग्गज नेता फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि जो भी कश्मीर की सत्ता में रहा, दिल्ली ने उस पर कभी भरोसा नहीं किया. दिल्ली ने कभी भी कश्मीरियों की आकांक्षाएं नहीं समझीं. उन्होंने यह बात NDTV के साथ खास इंटरव्यू में कही. जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं और इसमें राज्य की सबसे पुरानी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस का मुकाबला पारंपरिक प्रतिद्वंदी पीडीपी के अलावा बीजेपी, अन्य छोटे दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों से हो रहा है.
वास्तव में कश्मीर ने 1947 से अब तक कैसे आकार लिया है? सन 1947 ज्यादती के बाद का समय था, जब महाराजा को भागना पड़ा. जम्मू-कश्मीर ने और अपने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. शेख अब्दुल्ला राज्य के प्रधानमंत्री बने और सन 1953 में उन्हें गिरफ्तार किया गया. फिर सन 1965 में संवैधानिक परिवर्तन हुआ. बाद में 2019 में आर्टिकल 370 निरस्त हो गया. आपने जम्मू कश्मीर को इसके इतिहास को देखा है. आप बदलाव को कैसे याद करते हैं?
इस सवाल पर फारुक अब्दुल्ला ने कहा कि, ”एक चीज जो मैं कहूंगा, वह एक शब्द है विश्वास. यह एक फैक्ट है कि जो भी यहां सत्ता में रहा दिल्ली ने उस पर कभी भरोसा नहीं किया. यहां उन्होंने हमेशा हावी होने की कोशिश की. कभी लोगों की आकांक्षा के बारे में नहीं सोचा गया. सिर्फ उन नेताओं की आकांक्षाएं के बारे में सोचा गया जो दिल्ली में हैं. राज्य को इससे नुकसान झेलना पड़ा. मुझे आशा है कि भविष्य में वे भरोसा करना चाहेंगे. मुसलमानों पर भी उतना ही भरोसा करो जितना अच्छे भारतीयों पर करते हो. यही एक तथ्य है. इस राज्य की त्रासदियों के पीछे कोई अन्य कारण जिम्मेदार नहीं है.”
छह दशकों के राजनीतिक करियर में कोई मौका आया जब आपको खुद को दिल्ली, या राजनीति की मुख्यधारा में न होने का अहसास हुआ हो? इस सवाल पर फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि, ”मुझे कभी भी इसका हिस्सा न बनने का अहसास नहीं हुआ. दिल्ली में मुझे कभी ऐसा महसूस ही नहीं हुआ, लेकिन वहां विश्वास का फैक्टर हमेशा से रहा है. लोगों में गलतफहमी फैलाई जाती रही है. उनके लिए अच्छा होगा, लेकिन राष्ट्र की भलाई के लिए यह अच्छा नहीं है. यही इस राज्य की सबसे बड़ी त्रासदी है.”
उन्होंने कहा कि, ”मैं संसद में गया. मेरे पिता ने कहा था कि राजनीति में मत आओ. मैंने पिता से कहा कि मुझे दिल्ली जाने की जरूरत है. क्योंकि सब कुछ दिल्ली में होता है. सारी साजिशें दिल्ली में रची जाती हैं. यह राज्य की त्रासदी है.”
फारूक साहब हम यह भी देख रहे हैं कि घाटी में हो रहे इन चुनावों में बहुत सारे निर्दलीय उम्मीदवार भाग ले रहे हैं. क्या आप इसे लोगों को उन पार्टियों से अधिक विकल्प मिलने से एक स्वागत योग्य बदलाव के रूप में देखते हैं? उन्होंने जवाब दिया कि, ”अब तक डर हावी था कि लोग बाहर आ सकते हैं और वोट कर सकते हैं. इससे लोकतंत्र मजबूत हुआ है.लोकतंत्र मजबूत हुआ और मुझे आशा है कि यह जारी रहेगा, इस राज्य के लिए. निर्दलीयों का चुनाव लड़ना लोकतंत्र के लिए अच्छा है.”
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