अलविदा उस्ताद: तबले की ताल से दुनिया को बांधा, पर किसी घराने में बंध कर नहीं रहे जाकिर हुसैन​

 ज़ाकिर हुसैन के तबले की खूबी क्या थी? वे तबले को भी मधुर बना डालते थे. उन्होंने शिव कुमार शर्मा के संतूर के साथ संगत की. हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी से लय मिलाई. अली अक़बर ख़ान के सरोद के साथ ताल बिठाया. लेकिन, इस क्रम में उन्होंने तबले को भी जैसे सरोद, संतूर और बांसुरी जैसा मधुर बना दिया.

दुनिया के मशहूर तबला वादक और पद्म विभूषण उस्ताद जाकिर हुसैन का रविवार को निधन हो गया. वे इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस से जूझ रहे थे. दो हफ्ते से सैन फ्रांसिस्को के अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. उनके जाने से देश में शोक की लहर है. 18 दिसंबर को जाकिर हुसैन को सुपुर्दे-ए-खाक किया जा सकता है. जाकिर हुसैन सबसे कम उम्र में पद्मश्री और एकसाथ तीन ग्रैमी अवॉर्ड जीतने वाले इकलौते भारतीय हैं.

सेनफ्रांसिस्को के एक अस्पताल में करीब दो हफ्ते पहले अपनी सांसों की लय सहेजने की कोशिश में लगे पंडित ज़ाकिर हुसैन को क्या अपनी उंगलियों की वह द्रुत लय याद आई होगी, जो अदृश्य ध्वनियों को मूर्त थिरकन में बदल डालती थी? 

ज़ाकिर हुसैन ने NDTV के एक इंटरव्यू में कहा था- ‘तबला मेरे साथ सांस लेता है. तबला मेरे जीवन का एक जीवित हिस्सा है. तबला वो कीड़ा है जो मेरे अंदर है. ये मेरे साथ सांस लेता है. मेरे साथ यात्रा करता है. मेरे साथ रहता है. सोता है. इसलिए जब मैं कॉन्सर्ट में जाता हूं, तो मेरी तैयारी गति में रहती है. हाथ फिर अपने आप बजने लगते हैं. 

ज़ाकिर हुसैन बताते हैं कि जब वो कुछ ही दिन के थे, तब पिता और मशहूर तबलावादक अल्लारखा ने उनके कान में मौसिक़ी का मंत्र फूंका था. मां उन्हें पिता के पास लाई थीं कि रवायत के मुताबिक वो उनके कान में अजान फूंकेंगे. लेकिन, पिता ने तबले के बोल फूंक दिए, संगीत की लय फूंक दी.

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ज़ाकिर हुसैन ने एक इंटरव्यू में कहा था, “मेरे पिताजी के लिए संगीत ही उनकी इबादत थी. पिताजी बीमार थे. इसलिए वो चाहते थे मैं जल्दी शुरुआत करूं. जब मैं 2 दिन का था, पिताजी ने मेरे कान में अजान की जगह लय (rythem) गाना शुरू कर दिया था.”

ऐसे करने पर जाकिर हुसैन की मां नाराज़ हुई थीं, लेकिन रवायत से ये पहली बगावत थी; जिसमें ज़ाकिर हुसैन तभी साझेदार बन गए जब उन्होंने बोलना भी नहीं सीखा था.

तबले की ताल से दुनिया का सारा संगीत बांधा
जब वो सात साल के हुए, तब से इस मंत्र को लेकर मंच पर आए. अपने तबले की ताल से दुनिया का सारा संगीत बांध दिया. पिता और पंजाब घराने का उन पर गहरा प्रभाव था, मगर वे बंधे किसी से नहीं रहे. बहुत बचपन से संगीत सीखने का एक फ़ायदा हुआ कि उन्होंने कई पीढ़ियों के साथ संगत की. अपने बुज़ुर्गों के साथ भी, अपने बाद के युवाओं के लोगों के साथ भी.

4 पीढ़ियों के साथ दी परफॉर्मेंस
इंटरव्यू में ज़ाकिर हुसैन ने बताया था, “मैं खुसनसीब था कि मैंने शुरुआत जल्दी कर ली थी. जब मैं स्टेज पर परफॉर्मेंस देता, तो मेरे साथ सारे सीनियर संगीतकार भी परफॉर्म करते थे. मैं जिन संगीतकार को देखकर बड़ा हुआ, जो मेरे पिताजी के साथ परफॉर्म करते थे उनके साथ मुझे मंच साझा करने का मौका मिला था. 45- 46 साल में मैंने 4 पीढ़ियों के साथ परफॉर्म किया था.”

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ज़ाकिर हुसैन के तबले की खूबी क्या थी? वे तबले को भी मधुर बना डालते थे. उन्होंने शिव कुमार शर्मा के संतूर के साथ संगत की. हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी से लय मिलाई. अली अक़बर ख़ान के सरोद के साथ ताल बिठाया. लेकिन, इस क्रम में उन्होंने तबले को भी जैसे सरोद, संतूर और बांसुरी जैसा मधुर बना दिया.

 
उनके हाथों की थाप से तबला जैसे मुलायम हो जाता था. बरसों पहले दिल्ली के नेहरू पार्क में हरि प्रसाद चौरसिया और शिव कुमार शर्मा के साथ उनकी जुगलबंदी को लोग अब भी याद करते हैं.

घरानों की हद में बांधना संभव नहीं
बांसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया बताते हैं, “अगर घरानों की परंपरा याद की जाए तो ज़ाकिर हुसैन पंजाब घराने के थे. मियां कादिर बख़्श, मियां शौकत हुसैन ख़ान और उस्ताद अल्ला रक्खा जैसे महान तबला वादकों का ये घराना बेहद मशहूर रहा. लेकिन ज़ाकिर ने जब तक आंखें खोलीं, तब तक ये घराना परंपरा कमज़ोर हो चुकी थी. ज़ाकिर हुसैन जैसी मौलिक प्रतिभा को वैसे भी घरानों की हद में बांधना संभव नहीं था. तबले की हद में भी नहीं. उन्होंने किशन महाराज से भी सीखा और बिरजू महाराज के साथ भी संगत की.”

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जिसके साथ संगत की, वह उनका मुरीद हो गया
भजन और गजल गायक अनूप जलोटा बताते हैं, “ज़ाकिर हुसैन ने जिसके साथ संगत की, वह उनका मुरीद हो गया. शिव कुमार शर्मा जैसे संतूर वादक का काम उनके बिना चलता नहीं था. जब ज़ाकिर हुसैन अमेरिका चले गए, तो शिव कुमार शर्मा ने राम कुमार की मदद ली. लेकिन, ये कहते हुए कि वो पहले ज़ाकिर हुसैन का तबला और अंदाज़ देख लें. बांसुरी के साथ उनकी संगत भी शानदार हुआ करती थी.”
 
हुसैन की उंगलियों को देखना भी सुखद
बांसुरी वादक रोनू मजूमदार ने कहा, “जाकिर हुसैन के तबले को सुनना जितना सुखद था, उतना ही उनकी उंगलियों को देखना. वे थिरकती हुई उंगलियां अपने-आप जैसे किसी साज में बदल जाती थीं. तबला उनकी उंगलियों के बीच तड़कता नहीं था, बल्कि बहता था. उनकी तिहाई सुनते हुए लोग ताली बजाने से ज़्यादा उनके सम पर आने का इंतज़ार करते थे. वो कभी सुर के ऊपर नहीं होते थे. हमेशा इतनी सहजता से सम पर आते थे कि सुनने वाले हैरान रह जाते.”

शास्त्रीय परंपरा को पश्चिम के संगीत से जोड़ा
गायिका अनुराधा पौडवाल कहती हैं, “तबले की शास्त्रीय परंपरा को बनाए रखते हुए ज़ाकिर हुसैन ने उसे पश्चिम के संगीत के साथ इस तरह जोड़ा कि उनकी एक अलग पहचान बनी. उन्होंने जॉर्ज हैरीसन, चार्ल्स लॉयड, मिली हार्ट और योयो मा जैसे संगीतकारों के साथ काम किया.” 

शक्ति नाम से बनाया जैज़ फ्यूज़न बैंड 
रविशंकर के अलावा जाकिर हुसैन उन गिने-चुने कलाकारों में रहे, जिनके काम से लोगों ने भारत के शास्त्रीय संगत का महत्व समझा. ये एक नया सुर था जो पश्चिम पहली बार सुन रहा था. उन्होंने शक्ति नाम से जैज़ फ्यूज़न बैंड बनाया. उन्हें एक ही साल में 3 ग्रैमी मिले. इसके पहले भी उन्हें ग्रैमी मिल चुका था.

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4 ग्रैमी अवॉर्ड जीते
जाकिर हुसैन ने सिर्फ 11 साल की उम्र में अमेरिका में पहला कॉन्सर्ट किया था. 1973 में उन्होंने अपना पहला एल्बम ‘लिविंग इन द मटेरियल वर्ल्ड’ लॉन्च किया था. उस्ताद को 2009 में पहला ग्रैमी अवॉर्ड मिला. 2024 में उन्होंने 3 अलग-अलग एल्बम के लिए 3 ग्रैमी जीते. इस तरह जाकिर हुसैन ने कुल 4 ग्रैमी अवॉर्ड अपने नाम किए.

जाकिर हुसैन की शख्सियत का पहलू उनकी सादगी और विनम्रता थी. इसीलिए उन्हें बुज़ुर्गों का आशीर्वाद मिला, तो नौजवानों की मोहब्बत भी. उन्होंने युवा कलाकारों को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. यही वजह है कि दशकों से अमेरिका में रहने के बावजूद वो इतने ज़्यादा हिंदुस्तानी बने रहे. उन्हें किसी और रूप में पहचानना नामुमकिन रहा. उनके इंतकाल के बाद लोग उनको जिस तरह याद कर रहे हैं उससे इसका कुछ सुराग मिलता है.

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