देश का एक प्रमुख घरेलू रोजगार, जिसमें महिलाओं की सबसे ज्यादा भागीदारी रही है, अब दम तोड़ रहा है. बीड़ी उत्पादन को लेकर सरकार की नीतियों के चलते यह कुटीर उद्योग अब बुरे हाल में है. एक तरफ जहां बीड़ी उद्योग पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का भारी बोझ है वहीं कई सख्त नियम भी लागू हैं. बीड़ी मजदूरों को बहुत कम पारिश्रमिक मिल रहा है. इससे परेशान ग्रामीण अंचलों के मजदूर बीड़ी बनाना त्यागकर रोजगार के लिए शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं. श्रम मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2023 के मुताबिक देश में बीड़ी बनाने वाले रजिस्टर्ड और अनरजिस्टर्ड मजदूरों की संख्या करीब 80 लाख है. इनमें 72 प्रतिशत से अधिक महिला कामगार हैं.
देश का एक प्रमुख घरेलू रोजगार, जिसमें महिलाओं की सबसे ज्यादा भागीदारी रही है, अब दम तोड़ रहा है. बीड़ी उत्पादन को लेकर सरकार की नीतियों के चलते यह कुटीर उद्योग अब बुरे हाल में है. एक तरफ जहां बीड़ी उद्योग पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का भारी बोझ है वहीं कई सख्त नियम भी लागू हैं. बीड़ी मजदूरों को बहुत कम पारिश्रमिक मिल रहा है. इससे परेशान ग्रामीण अंचलों के मजदूर बीड़ी बनाना त्यागकर रोजगार के लिए शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं. श्रम मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2023 के मुताबिक देश में बीड़ी बनाने वाले रजिस्टर्ड और अनरजिस्टर्ड मजदूरों की संख्या करीब 80 लाख है. इनमें 72 प्रतिशत से अधिक महिला कामगार हैं.
मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड सहित देश के कई हिस्सों में पहले निम्न वर्ग के ग्रामीणों की बड़ी आबादी बीड़ी बनाने का काम करके अपना गुजारा करती थी. इस काम से परिवारों के कई सदस्यों को रोजगार मिलता था, लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल चुके हैं.
बीड़ी बनाना माता-पिता से सीखा
मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में सागर जिले की बीड़ी श्रमिक वंदना कोष्टी सहित उनके परिवार की तीन महिला सदस्य बीड़ी बनाती हैं. उन्होंने NDTV को बताया कि प्रत्येक सदस्य रोज करीब 500 बीड़ी बनाता है. इससे रोज करीब डेढ़ सौ रुपये की आय होती है. हजार बीड़ी में से करीब 75 बीड़ी छांटकर रिजेक्ट कर दी जाती हैं. उन्होंने बताया कि उनके परिवार की पान की दुकान है, पुरुष उस दुकान को चलाते हैं और महिलाएं बीड़ी बनाती हैं. महिलाएं जो कमाती हैं उससे उनके खुद के खर्चे निकलते रहते हैं. उन्होंने बताया कि उन्होंने अपने माता-पिता से बीड़ी बनाना सीखा था, लेकिन उनके परिवार के बच्चे बीड़ी बनाना पसंद नहीं करते क्योंकि इसमें आय कम है. वंदना कोष्टी ने बताया कि वे आठवीं तक पढ़ी हैं.
उन्होंने कहा कि, सागर में और कोई उद्योग नहीं है इसलिए बीड़ी बनाने के अलावा हमारे पास रोजगार का कोई अन्य साधन नहीं है.दूसरे किसी विकल्प की तरफ जाते हैं तो और कम पैसा मिलता है, इसलिए बीड़ी बनाना ही ठीक लगता है.
बीड़ी बनाकर रोजी-रोटी चलाना मुश्किल
बीड़ी मजदूर विजय कुमार ने बताया कि अब बीड़ी बनाकर रोजी-रोटी चलाना मुश्किल हो रहा है. निर्माण के कामों में मजदूरी का काम मिलता है तो वह करते हैं. जब वह काम नहीं मिलता तो बीड़ी बनाकर ही खींच-तानकर घर चलाते हैं. यह जरूर है कि बाकी रोजगार स्थायी नहीं है, लेकिन बीड़ी का काम स्थायी है.
विजय कुमार से जब पूछा गया कि क्या बीड़ी बनाने से स्वास्थ्य संबंधी कोई दिक्कत होती है, तो उन्होंने कहा कि, इससे कोई परेशानी नहीं होती. बीड़ी बनाने से कोई बीमारी नहीं होती. बीड़ी पीने से बीमारी होने के सवाल पर उन्होंने कहा कि, बीड़ी से कोई बीमारी नहीं होती. यदि 50 साल का आदमी भी बीड़ी पीता है तो उसे कोई बीमारी नहीं होती. सिगरेट, गुटखा के शौकीनों को पांच-छह साल में ही बीमारियां हो जाती हैं. बीड़ी से बीमारियां क्यों नहीं होतीं? इस सवाल पर उन्होंने कहा कि, बीड़ी में कोई केमिकल नहीं होता. सिगरेट और गुटखा में केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है.
कुछ वर्षों में बीड़ी मजदूरों की संख्या 75 फीसदी घट गई
बीड़ी मजदूर भगवान दास ने कहा कि, मजदूरी कम मिल रही है. कुछ साल पहले के मुकाबले बीड़ी मजदूरी करने वाले लोगों की तादाद घटकर 25 प्रतिशत रह गई है. लोग दूसरे काम करते हैं. निर्माण मजदूर को 400 रुपये रोज मिलते हैं. दिन भर में एक हजार बीड़ी बनाने पर करीब 60 रुपये ही मिल पाते हैं. उन्होंने बताया कि पहले की पीढ़ी जो बीड़ी बनाती थी, उनकी नई पीढ़ी ने यह काम नहीं अपनाया इसलिए बीड़ी बनाने वाले कम हो गए हैं. दूसरे काम में मेहनत ज्यादा होती है लेकिन परिवार का गुजारा तो हो जाता है.
भगवान दास ने बताया कि जब से गुटखा का प्रचलन बढ़ा है तब से लोगों ने बीड़ी पीना भी कम कर दिया है. गुटखा ज्यादा हानिकारक होने के बावजूद लोग वह खाते हैं. हालांकि देहातों में लोग बीड़ी पीना ही पसंद करते हैं.
बीड़ी श्रमिक राजकुमारी खटीक ने बताया कि वे करीब 30 साल से बीड़ी बना रही हैं. बीड़ी की मजदूरी कम है जबकि महंगाई बहुत बढ़ चुकी है. महंगाई के हिसाब से रेट बढ़ना चाहिए. रोज बमुश्किल एक हजार बीड़ी बना पाते हैं. बेटा फल बेचता है.
जीएसटी नहीं देने वाले मजे में, ईमानदार कंपनियां घाटे में
बीड़ी का सट्टा चलाने वाले यानी कि ठेकेदार रहीम ने बीड़ी के व्यवसाय में गिरावट को लेकर कहा कि, बीड़ी अब कम बिक रही है और बीड़ी पर कंपनियों को टैक्स बहुत लग रहा है. जीएसटी बहुत है और तेंदू पत्ता भी बहुत महंगा है. इससे यह व्यवसाय चलाना मुश्किल हो रहा है. उन्होंने कहा कि जो लोग अवैध रूप से धंधा कर रहे हैं वे मजे में हैं. वे जीएसटी नहीं देते हैं. जो कंपनियां ईमानदारी से जीएसटी जमा कर रही हैं उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है.
बीड़ी श्रमिकों की संख्या घटने के पीछे रहीम ने कहा कि, इसका कारण मजदूरी कम होना है. एक हजार बीड़ी का पारिश्रमिक 100 रुपये दिया जाता है. दिन भर में कोई 100 रुपये कमाएगा तो उसका खर्च कैसे चलेगा. मजदूरी करने के लिए लोग बाह जा रहे हैं, पलायन कर रहे हैं. बीड़ी की कई कंपनियां बंद हो चुकी हैं. पहले घरेलू व्यवसाय की तरह लोग घरों में बीड़ी बनाते थे, अब उसकी स्थिति बहुत खराब है. महिलाएं अब बीड़ी बनाने की जगह दूसरे काम कर रही हैं.
बीड़ी उद्योग को पुनर्जीवन देने के लिए उपाय के बारे में पूछने पर रहीम ने कहा कि, सरकार को बीड़ी कंपनियों को सुविधाएं देनी चाहिए. टैक्स कम किया जाना चाहिए. इसके अलावा ‘दो नंबर’ का धंधा करने वालों पर सरकार लगाम लगाए. ईमानदार कंपनियां इन्हीं लोगों के कारण नुकसान में हैं. उन्होंने कहा कि गुटखा खाने वाले लोग बढ़ रहे हैं जबकि यह बहुत हानिकारक है.
सरकारी योजनाओं में पैसा मिलने से महिलाओं ने काम बंद किया
बीड़ी ठेकेदार लक्ष्मण प्रसाद यादव का धंधा करीब 50 साल से चल रहा है. उन्होंने कहा कि अब बीड़ी मजदूर कम हो गए हैं क्योंकि इसमें मजदूरी कम है. पहले परिवारों में सभी सदस्य बीड़ी बनाया करते थे, अब एक परिवार में एक-दो लोग ही यह काम करते हैं. लोग दैनिक मजदूरी करते हैं जिसमें कम से कम 400 रुपये रोज मिल जाते हैं. बीड़ी बनाने वाला सौ-सवा सौ ही कमा पाता है. बीड़ी मजदूरी का भुगतान सरकारी रेट से किया जाता है. बीड़ी की लागत बढ़ चुकी है.
उन्होंने कहा कि बीड़ी अधिकांश औरतें ही बनाती हैं. जब से लाड़ली बहना योजना और इसी तरह की दूसरी योजनाएं चलने लगीं तब से उन्होंने बीड़ी बनाना बंद कर दिया है. पहले मजदूर बीड़ी बनाकर ही बच्चों को पालते थे, उन्हें पढ़ाते थे, अपनी प्रापर्टी भी बना लेते थे. लेकिन अब वे यह सब नहीं कर पाते हैं. पहले महंगाई कम थी. जितनी महंगाई बढ़ गई, उतनी इन मजदूरों की आय नहीं बढ़ सकी.
बीड़ी पर पाबंदियां, गुटखा पर कोई पाबंदी नहीं
बीड़ी उद्योगपति मोहम्मद आरिफ ने बताया कि उनके दादा ने 1960 के आसपास बीड़ी का व्यवसाय शुरू किया था. उन्होंने बीड़ी व्यवसाय की स्थिति खराब होने के पीछे कारण गुटखा को बताया. उन्होंने कहा कि नई पीढ़ी गुटखा पसंद करती है. बीड़ी को लेकर सरकार की तरफ से कुछ नियम भी लागू किए गए हैं, जैसे सार्वजनिक स्थानों पर बीड़ी, सिगरेट पीना मना है. लेकिन गुटखा पर इस तरह की कोई पाबंदी नहीं है.
उन्होंने कहा कि गुटखा में कुछ ऐसी आर्टिफीशियल चीजें मिलाई जाती हैं जिससे उसका टेस्ट तो अच्छा बनता है, लेकिन वह स्वास्थ्य के लिए काफी नुकसानदायक होता है. नुकसान के लिहाज से बीड़ी और सिगरेट में अंतर के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि, सिगरेट की फैक्ट्री में मैन्युफैक्चरिंग होती है. उसे मशीनों से बनाया जाता है. जबकि बीड़ी को मजदूर 100 फीसदी हाथ से बनाते हैं. इसमें उपयोग की जाने वाली चीजें आर्गेनिक हैं. तेंदू पत्ता जंगल में होता है और तंबाकू की खेती किसान करते हैं. उसमें कोई आर्टिफीशियल चीजें मिलाई नहीं जातीं. बीड़ी 100 प्रतिशत आर्गेनिक है.
मोहम्मद आरिफ ने कहा कि, बीड़ी बनाना एक हुनर है. नई पीढ़ी में बीड़ी बनाने का शौक कम हुआ है. वे इस काम को छोटा समझते हैं. सरकार के बीड़ी उत्पादन को लेकर नियम भी काफी सख्त हैं. बीड़ृी का सामान खरीदने, बीड़ी बेचने में कई सख्त नियमों के कारण छोटी यूनिटों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. टैक्स कम मिलने से राहत मिल सकती है. इससे रेट कम हो सकते हैं और हम मजदूरों की मजदूरी बढ़ा सकते हैं. मजदूरी तभी बढ़ा सकते हैं जब फायदा ज्यादा मिल सके. जब मजदूरी ज्यादा मिलेगी, इसमें रोजगार मिलेगा तो लोग इस काम को फिर से अपना सकते हैं. दूसरे कामों में मजदूरी काफी अच्छी मिल जाती है. मनरेगा और दूसरी सरकारी योजनाओं में भी मजदूरी मिलती है.
जटिल कर ढांचे के कारण कई चुनौतियां
बीड़ी उद्योग को जटिल कर ढांचे के कारण कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. रजिस्टर्ड बीड़ी निर्माता कर के बोझ से दबे हुए हैं, जबकि अपंजीकृत कंपनियां टैक्स और श्रम नियमों से बचने में सक्षम हैं. बीड़ी पर 28 प्रतिशत जीएसटी और तेंदू पत्ते पर 18 फीसदी जीएसटी के कारण निर्माताओं की लागत बढ़ गई है. दूसरी तरफ, अपंजीकृत बीड़ी निर्माता इन करों और श्रम कानूनों के दायरे से बाहर हैं, जिससे मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा और समाज कल्याण संबंधी फायदे नहीं मिल पाते हैं.
पूर्व में बीड़ी पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क न्यूनतम था. इसके अलावा कई राज्य सरकारों ने श्रमिकों की आजीविका का समर्थन करने के लिए बीड़ी को बिक्री कर से छूट दी थी. लेकिन जीएसटी के तहत बीड़ी को ‘डिमेरिट’ माल के रूप में वर्गीकृत किया गया, जिससे यह 28% के उच्चतम जीएसटी रेट के अधीन आ गया.
गैर पंजीकृत बीड़ी उत्पादन बढ़ा
देश में गैर पंजीकृत (अनरजिस्टर्ड) बीड़ी मजदूर इस उद्योग के कार्यबल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, लेकिन वे सबसे अधिक असुरक्षित हैं. रजिस्टर्ड सेक्टर के श्रमिकों के विपरीत उनको अपने बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवा, पेंशन और एजुकेशन ग्रांट जैसे सरकारी कल्याण कार्यक्रमों का लाभ नहीं मिल रहा है. भारी भरकम जीएसटी दर के कारण गैर पंजीकृत बीड़ी उत्पादन बढ़ने से बड़ी संख्या में श्रमिक अनौपचारिक रोजगार के दायरे में पहुंच गए हैं. उन्हें पारिश्रमिक कम मिलता है और सामाजिक सुरक्षा संरक्षण भी नहीं मिलता.
बीड़ी उद्योग बीड़ी पर जीएसटी की दर घटाकर 5% करने की अपील कर रहा है. उसका कहना है कि इसे अन्य कुटीर उद्योग उत्पादों के लिए तय जीएसटी दर की सीमा में लाया जाए. यह कदम रजिस्टर्ड मैन्युफैक्चरर्स को राहत देने वाला होगा. इससे औपचारिक रोजगार को प्रोत्साहन मिलेगा और इस सेक्टर के मजदूरों को कल्याण योजनाओं का लाभ मिलेगा. जीएसटी को कम करने से उन लाखों श्रमिकों और परिवारों के लिए अधिक न्यायसंगत और टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित होगा जो अपनी आजीविका के लिए बीड़ी उद्योग पर निर्भर हैं.
घर पर रोजगार से महिलाएं बन सकीं आत्मनिर्भर
भारत में बीड़ी करीब 300 साल से भी अधिक समय पहले 17वीं सदी के अंत में अस्तित्व में आई थी. देश में बीड़ी उद्योग 1930 के आसपास तेजी से विकसित हुआ. सन 1950 के आसपास यह एक कड़ी प्रतिस्पर्धा वाला उद्योग बन गया. तब बीड़ी निर्माण कारखानों में होता था. इसे बाद कारखाने समाप्त हो गए और बीड़ी निर्माण ने कुटीर उद्योग का रूप ले लिया. घर में बैठकर यह काम करने की सुविधा से खास तौर पर महिलाओं को रोजगार का साधन और आत्मनिर्भरता हासिल हो सकी.
एक सदी से भी ज्यादा अरसे पहले से बीड़ी उद्योग ने खास तौर पर ग्रामीण इलाकों में सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई है. बीड़ी के काम पर निर्भर परिवार अपने बच्चों को शिक्षित करने में सक्षम रहे हैं. बीड़ी मजदूर परिवारों के बच्चों में से कुछ डॉक्टर, इंजीनियर, सरकारी अधिकारी और अन्य क्षेत्रों में प्रोफेशनल बने हैं. पीढ़ियों के साथ यह उत्थान इस बात का एक सशक्त उदाहरण है कि कैसे बीड़ी उद्योग जैसे पारंपरिक, जमीनी स्तर के उद्योग सामाजिक-आर्थिक प्रगति में सहभागी रहे हैं.
जीएसटी के बोझ ने उत्पादन लागत बढ़ा दी
अखिल भारतीय बीड़ी उद्योग महासंघ का कहना है कि, बीड़ी उत्पादों पर मौजूदा 28 प्रतिशत जीएसटी इस उद्योग के अस्तित्व के लिए एक बड़ा खतरा है. मैकेनाइज्ड सेक्टर के विपरीत बीड़ी उत्पादन एक श्रम प्रधान कुटीर उद्योग है जो कुशल मैनुअल लेबर पर निर्भर है. जीएसटी के बोझ से उत्पादन लागत बढ़ गई है, कार्य के ऑर्डर कम हुए हैं और रोजगार में कटौती हुई है. यदि बीड़ी पर जीएसटी नहीं घटाया जाता है तो इससे लाखों बीड़ी श्रमिकों के अपने जीवन यापन का एकमात्र स्रोत खोने का जोखिम है. हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए रोजगार के अवसरों को बनाए रखना जरूरी है.
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