डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा ने कहा कि मेरा मानना है कि किसी भी न्यायाधीश के लिए विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय में निर्णय देना एक गंभीर और चुनौतीपूर्ण दायित्व होता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय केवल वर्तमान स्थिति को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि यह भविष्य के लिए एक मिसाल पेश करता है.
भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने एनडीटीवी को दिए एक विशेष साक्षात्कार में अपनी यात्रा, न्यायपालिका से जुड़ी अहम बातें और व्यक्तिगत अनुभव साझा किए. चंद्रचूड़ ने बताया कि उनका प्रारंभिक रुझान अर्थशास्त्र में था और वह एक समय पर अर्थशास्त्री बनने का सपना देख रहे थे. अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए चंद्रचूड़ ने बताया कि उन्हें अपने पहले केस के लिए बहुत ही मामूली फीस मिली थी.बॉलीवुड फिल्मों में अक्सर अदालती दृश्यों का चित्रण होता है. लेकिन चंद्रचूड़ का मानना है कि ये अधिकतर वास्तविकता से बहुत दूर होते हैं. न्यायधीशों और सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ की जाने वाली आलोचनाओं पर भी चंद्रचूड़ ने अपने विचार रखे.
करियर के बारे में
एनडीटीवी को दिए साक्षात्कार में चंद्रचूड़ ने कहा, ‘सच कहूं तो, लॉ मेरे करियर की पहली पसंद नहीं था. मेरी अकादमिक पृष्ठभूमि अर्थशास्त्र में है. मैंने स्टीफंस कॉलेज से अर्थशास्त्र में ऑनर्स की डिग्री प्राप्त की है. स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मेरी प्रबल इच्छा दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने की थी. हालांकि, जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि जो भाग्य में लिखा होता है, वही होता है. मैंने कानून की पढ़ाई करने का निर्णय लिया और लॉ फैकल्टी में प्रवेश लिया. एक बार जब मैंने कानून की दुनिया में कदम रखा, तो फिर मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.’
वकील के रूप में पहली फीस
भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि मैंने हाल ही में हार्वर्ड लॉ स्कूल से न्यायिक विज्ञान में डॉक्टरेट (एस.जे.डी.) की उपाधि प्राप्त की थी. बॉम्बे हाई कोर्ट की एक खंडपीठ के समक्ष प्रस्तुत किए जाने वाले एक संक्षिप्त दस्तावेज के रूप में मुझे अपना पहला केस मिला था. उस समय मैं इस बात को लेकर अनिश्चित था कि मुझे अपनी सेवाओं के लिए कितनी फीस लेनी चाहिए. इसलिए मैंने अपने सॉलिसिटर से पूछा, ‘मुझे इस दस्तावेज़ पर कितना शुल्क लगाना चाहिए?’ असल में मैं यह जानना चाहता था कि मेरी उचित फीस क्या होनी चाहिए.
उन्होंने कहा कि उन दिनों मुंबई में वकीलों की फीस का निर्धारण गिनी या स्वर्ण मुद्रा (जिसे जी.एम. कहा जाता था) में किया जाता था. एक गिनी की कीमत उस समय 15 रुपये हुआ करती थी, जबकि कलकत्ता में इसकी कीमत थोड़ी अधिक 16 रुपये थी. मुझे याद है एक अवसर पर मेरे सॉलिसिटर ने मुझसे कहा था कि तुम्हारे द्वारा मेरे लिए न्यायालय में किए जा रहे इस विशेष कार्य के लिए सामान्य शुल्क पांच गिनी, अर्थात 75 रुपये होगा. लेकिन यह उच्च न्यायालय में तुम्हारी पहली उपस्थिति है, इसलिए मैं तुम्हें इस मामले के लिए छह गिनी, यानी 90 रुपये का भुगतान करूंगा.’ उस क्षण मुझे यह समझ में आया कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बावजूद उस समय मेरी संभावित आय 75 रुपये या, इस विशेष परिस्थिति में, 90 रुपये तक ही सीमित थी. यह बात अस्सी के दशक के मध्य की है.
हमारे लिए कोई भी मामला आसान नहीं : डीवाई चंद्रचूड़
डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा ने कहा कि मेरा मानना है कि किसी भी न्यायाधीश के लिए विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय में निर्णय देना एक गंभीर और चुनौतीपूर्ण दायित्व होता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय केवल वर्तमान स्थिति को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि यह भविष्य के लिए एक मिसाल पेश करता है. यह वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत बन जाता है. जब हम उच्च न्यायालय में थे, तो हमें यह विश्वास था कि यदि कोई त्रुटि हो जाती है, तो उसे सुधारने के लिए एक उच्चतर न्यायालय यानी सर्वोच्च न्यायालय मौजूद है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में यह स्थिति बिल्कुल विपरीत होती है. यहां हम अंतिम अपीलीय न्यायालय के रूप में निर्णय देते हैं और हमारे निर्णय को चुनौती देने या सुधारने के लिए कोई अन्य न्यायालय नहीं होता. यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय में हमारे सामने आने वाला प्रत्येक मामला एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत करता है. हमारे लिए कोई भी मामला आसान नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक निर्णय का दूरगामी प्रभाव होता है.
‘दस्तावेज और कानून की किताबें होती हैं और कोई नहीं’
चंद्रचूड़ ने कहा, ‘एक न्यायाधीश के रूप में इस बात से पूरी तरह अवगत हूं कि मेरे द्वारा लिए गए प्रत्येक निर्णय का हमारे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है. यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. जब न्यायालय में बहस समाप्त हो जाती है तो न्यायाधीश के लिए चिंतन और मनन का समय शुरू होता है. यह वह क्षण होता है जब न्यायाधीश वास्तव में अकेला होता है और अपने विचारों और दायित्वों के साथ. किसी मामले की सुनवाई पूरी हो जाती है और निर्णय सुरक्षित रख लिया जाता है तो वास्तव में निर्णय लेने की वास्तविक प्रक्रिया शुरू होती है. उस समय न्यायाधीश पूरी तरह से अपने आप पर निर्भर होता है. उसके सामने केवल मामले से संबंधित दस्तावेज और कानून की किताबें होती हैं और कोई नहीं. निर्णय लेना एक अत्यंत ही एकाकी और गहन चिंतन का कार्य है.
इलेक्टॉरल बॉन्ड पर फैसला
एनडीटीवी को दिए साक्षात्कार में डीवाई चंद्रचूड़ ने बताया कि जब आप चुनावी बॉन्ड जैसे किसी राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले पर निर्णय दे रहे होते हैं तो आप स्वाभाविक रूप से अपने निर्णय के संभावित परिणामों के प्रति सचेत रहते हैं. आप इस बात से भी अवगत होते हैं कि इस निर्णय का दीर्घकालिक रूप से देश की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? हालांकि, जब आप किसी मामले पर बौद्धिक कठोरता के साथ निर्णय दे रहे होते हैं, तो आपका ध्यान कानून के उन बुनियादी सिद्धांतों पर केंद्रित होता है, जो उस विशिष्ट कानूनी क्षेत्र से जुड़े होते हैं. दूसरे शब्दों में आप कानूनी सिद्धांतों की निष्पक्षता और सटीकता को सर्वोपरि मानते हैं, भले ही उनके राजनीतिक निहितार्थ कुछ भी हों. उदाहरण के लिए चुनावी बॉन्ड के मामले में हमारा मुख्य उद्देश्य स्पष्ट मनमानी को रोकना और चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता की आवश्यकता, जैसे मूलभूत सिद्धांतों को लागू करना था. हमने कानून के स्थापित सिद्धांतों के आधार पर निर्णय लिया, न कि राजनीतिक विचारों या संभावित परिणामों के आधार पर.
‘मैंने अपने पिता द्वारा दिए गए कुछ निर्णयों को पलटा है’
डीवाई चंद्रचूड़ कहते हैं, ‘सर्वोच्च न्यायालय अंतिम इसलिए नहीं है क्योंकि वह सदैव सही होता है, बल्कि इसलिए है क्योंकि वह अंतिम होता है. इसी सिद्धांत के आधार पर हमने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अतीत में दिए गए कुछ निर्णयों की समीक्षा की है. 2024 में और उससे पहले भी हमने 1970, 1980 और 1990 के दशकों में हमारे पूर्ववर्ती न्यायाधीशों द्वारा दिए गए कई निर्णयों को पलटा है. इन निर्णयों को पलटने का कारण यह नहीं था कि वे अपने समय में पूरी तरह से गलत थे. संभवत उन निर्णयों का उस समय के समाज पर कुछ प्रभाव रहा होगा और वे उस विशिष्ट सामाजिक संदर्भ में प्रासंगिक रहे होंगे. हालांकि, समय के साथ समाज में बदलाव आया है और उन पुराने निर्णयों का अब कोई औचित्य नहीं रह गया है. वे आज के समय में अप्रासंगिक हो गए है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. उदाहरण के तौर पर मैंने स्वयं अपने पिता द्वारा दिए गए कुछ निर्णयों को पलटा है. यह न्यायिक प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है, जिसमें समय और समाज की बदलती आवश्यकताओं के अनुसार पुराने निर्णयों की समीक्षा और संशोधन किया जाता है.
सोशल मीडिया पर न्यायालयों की आलोचना
डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि आजकल सोशल मीडिया के प्रभाव के कारण न्यायालय में कही गई हर बात तुरंत सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जाती है और उसका विश्लेषण शुरू हो जाता है. सोशल मीडिया पर ध्यान देने के लिए बहुत कम समय होता है. लगभग 20 सेकंड तक सीमित होने के कारण लोग अक्सर न्यायालय में होने वाली चर्चा और न्यायालय के अंतिम निर्णय के बीच के अंतर को समझने में चूक जाते हैं. न्यायालय का अंतिम निर्णय आने से पहले ही लोग न्यायालय में हुई बातचीत को ही न्यायाधीश का अंतिम मत मान लेते हैं, जो कि बिलकुल सही नहीं है. न्यायालय में होने वाली बहसें विचार-विमर्श का हिस्सा होती हैं, न कि अंतिम निर्णय का प्रतिबिंब.
इसके अलावा, आजकल किसी न्यायाधीश की आलोचना या उन्हें निशाना बनाना किसी ठोस तथ्य या प्रमाण पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह किसी भी व्यक्ति द्वारा न्यायालय या न्यायाधीश के बारे में कही गई किसी भी बात पर आधारित हो सकता है. यह स्थिति बहुत चिंताजनक है क्योंकि यह न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को खतरे में डालती है. सोशल मीडिया पर फैलाया गया कोई भी निराधार आरोप न्यायाधीश की प्रतिष्ठा और न्यायपालिका की छवि को नुकसान पहुंचा सकता है.
सिनेमा में कोर्ट रूम के दृश्य बनाम वास्तविकता
उन्होंने कहा कि बॉलीवुड में कोर्ट के बारे में दिखाए जाने वाले दृश्य, कोर्ट में वास्तव में होने वाली घटनाओं से बहुत अलग होते हैं. हां इसमें ड्रामा होता है और कई बार काफी ड्रामा होता है. खासकर संवेदनशील मामलों में. लेकिन कई बार कोर्ट में जो होता है, वह तथ्यों और कानून का एक संक्षिप्त विवरण होता है. इसलिए यह उस मामले की बॉलीवुड फिल्मों किसी दूसरी शैली की फिल्मों में कोर्ट को जिस तरह से दिखाया जाता है. उससे बहुत अलग होता है.
सुप्रीम कोर्ट की छुट्टियां
चंद्रचूड़ ने कहा कहा, यह आलोचना कि न्यायालयों में बहुत अधिक छुट्टियां होती हैं, यह वास्तविकता से परे और निराधार है. यह कहना बिल्कुल भी उचित नहीं है कि न्यायाधीश पर्याप्त काम नहीं करते. सच्चाई तो यह है कि न्यायाधीश 24 घंटे, सातों दिन और पूरे 365 दिन काम करते हैं. वे न केवल न्यायालय में मामलों की सुनवाई करते हैं, बल्कि फैसले लिखने, कानूनी शोध करने और अन्य प्रशासनिक कार्यों में भी व्यस्त रहते हैं.
न्यायाधीश के रूप में काम करने का पहला और सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि आप अपने परिवार के साथ बिताने वाले समय से वंचित रह जाते हैं. यह एक बहुत बड़ा त्याग है जो न्यायाधीशों को करना पड़ता है. अब जब मैं सेवानिवृत्त हो रहा हूं, तो मैं उस खोए हुए समय की भरपाई करने की कोशिश कर रहा हूं, जो मैंने अपने परिवार से दूर रहकर बिताया है.
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