मृत्युभोज बंद करना सही या गलत, क्या कहते हैं संत, शास्त्र और कानून​

 मृत्युभोज पर रोक लगाने की पहल आजादी के पहले से ही शुरू हो गई थी. राजस्थान ऐसा पहला राज्य है,जहां मृत्यु भोज पर कानूनी तौर पर पाबंदी है.वहां इसके लिए 1960 में ही कानून बन गया था. देश के दूसरे हिस्सों में भी इसे छोड़ने को लेकर पहल होती रहती है.

उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के एक गांव रेवन ने बड़ी पहल की है.इस गांव के लोगों ने पंचायत कर इस बात फैसला लिया है कि  अब गांव में कोई तेरहवीं या मृत्युभोज का आयोजन नहीं किया जाएगा.यह भी फैसला लिया गया है कि अगर किसी परिजन की मृत्यु पर उसका परिवार कुछ करना चाहता है तो वे मृत्युभोज की जगह गरीबों को दान कर सकते हैं या सार्वजनिक हित का कोई काम कर सकते हैं.रेवन के इस पहल की प्रशंसा हो रही है.लेकिन रेवन ऐसा पहला गांव नहीं है, जिसने इस तरह की पहल की है. इससे पहले भी इस तरह की पहल कई गांव और जातीय समाज कर चुके हैं. झांसी के उल्दन गांव के अहिरवार समाज ने फैसला किया था कि मृत्युभोज करने वाले परिवार का सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा.वहीं राजस्थान ने मृत्युभोज के आयोजन को अपराध बना दिया गया है.लेकिन शास्त्र मृत्युभोज को उचित मानते हैं. 

कितने होते हैं हिंदू धर्म में संस्कार

हिंदू धर्म में इंसान के पैदा होने से लेकर मरने तक 16 संस्कार होते हैं. उम्मीद की जाती है कि हर हिंदू इन संस्कारों का पालन करेगा. हिंदू धर्म के ये 16 संस्कार हैं, गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमंतोनयन संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, मुंडन संस्कार, कर्णवेधन संस्कार, उपनयन संस्कार, विद्यारंभ संस्कार, केशांत संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार, विवाह अग्नि संस्कार और अंत्येष्टि संस्कार. लेकिन समय के साथ-साथ इसको बरतने में बदलाव भी आया है. समय के साथ-साथ इसमें लोगों की आर्थिक क्षमता भी आड़े आती है. ऐसे में बहुत से लोग इनमें से केवल कुछ संस्कार को ही मानते हैं और उसे संपन्न कराते हैं.मृत्युभोज अंत्येष्टी के साथ जुड़ा हुआ संस्कार है.  

देश में सामाजिक राजनीतिक परिवर्तनों की वजह से बहुत सी नई विचारधाराएं पैदा हुई हैं.इनमें से कई हिंदू धर्म के इन संस्कारों को नहीं मानती हैं. वह इनका विरोध करती हैं. खासकर वो विचारधाराएं जो वर्णव्यवस्था के विरोध में खड़ी हुई हैं. वहीं बहुत से लोग तार्किक आधार पर मृत्युभोज जैसे संस्कारों का विरोध करते हैं. उनका तर्क है कि दुख की घड़ी में किसी के साथ घर जाकर भोज खाने को जायज नहीं ठहराया जा सकता है.इसलिए वो ऐसी परंपराओं और रिति-रिवाजों का विरोध करते हैं.करोनाकाल में जिस तरह लोगों की मौतें हुईं और उनके अंतिम संस्कार हुए, उसने भी मृत्युभोज के विरोध को बल दिया है. उस दौरान बहुत से हिंदुओं ने बहुत ही साधारण तरीके से इन संस्कारों को संपन्न करवाया.इसके बाद लोगों ने मृत्युभोज के नाम पर सैकड़ों लोगों को खाना-खिलाने और दान-दक्षिणा देने के औचित्य पर सवाल उठाए. 

भारत में मृत्युभोज का विरोध

ऐसा नहीं है कि भारत में मृत्युभोज का विरोध हाल के वर्षों से हो रहा है. इस दिशा में आजादी के पहले से ही कदम उठाए जाने लगे थे. मृत्युभोज पर पाबंदी लगाने की दिशा में सबसे पहली पहल राजस्थान सरकार ने की थी. राजस्थान सरकार ने 1960 में कानून बनाकर मृत्युभोज को अपराध घोषित कर दिया था. लेकिन राजस्थान के अलावा इस दिशा में किसी और सरकार ने काम नहीं किया है.वहीं आर्यसमाज और अर्जक संघ जैसे संगठनों ने भी इस दिशा में कदम उठाए हैं. वह भी खासकर उत्तर भारत के राज्यों में.  

क्या कहता है राजस्थान का कानून

मृत्युभोज पर रोक लगाने का अभियान राजस्थान में आजादी से पहले ही शुरू हो गया था. लेकिन कानून बना करीब डेढ़ दशक बाद.मृत्युभोज पर पाबंदी लगाने के लिए राजस्थान सरकार ने 1960 में राजस्थान मृत्युभोज निवारण अधिनियम पारित किया था. इस कानून की धारा-3 में इस बात का प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति राज्य में मृत्युभोज का आयोजन नहीं करेगा और न ही उसमें शामिल होगा और न ही इसके लिए किसी पर दवाब डालेगा.दोषी पाए जाने पर एक साल के कारावास और 1000 रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है. 

राजस्थान के इस कानून में मृत्युभोज आयोजित करने या देने में पका-पकाया भोजन देने या बिना पकाया भोजन देने, दोनों शामिल हैं. हालांकि इससे परिजनों, पुरोहितों या फकीरों को भोजन कराने पर कोई पाबंदी नहीं है. लेकिन इसके लिए सौ लोगों की अधिकतम संख्या निर्धारित है.

बिहार में मृत्युभोज के विरोध का विरोध

इस कानून में प्रावधान हैं कि मृत्युभोज की जानकारी मिलने पर सक्षम न्यायालय उस पर स्टे लगा सकता है.वहीं मृत्युभोज की सूचना देने की जिम्मेदारी सरपंच, पंच, पटवारी या लंबरदार को दी गई है. अगर वो इसकी सूचना देने में नाकाम रहते हैं तो उनके लिए तीन महीने की सजा या जुर्माना यो दोनों लगाने का प्रावधान किया गया है. इस कानून में मृत्युभोज के लिए कर्ज  लेने और देने पर भी पाबंदी लगाई गई है.मत्युभोज के आयोजन की सूचना उसके आयोजन के एक साल तक ही दी जा सकती है. 

राजस्थान में इस कानून को लेकर बहुत सक्रियता नहीं दिखाई गई. लेकिन कोरोना काल में सरकार ने इसको लेकर सक्रियता दिखाई. उस दौरान इसे सख्ती से लागू किया गया. कोरोना काल में ही कई समाज भी मृत्युभोज  के खिलाफ आगे. उन्होंने तय किया कि वो अब से मृत्युभोज नहीं करेंगे.वहीं बिहार के सहरसा जिले में इसका उल्टा हो गया था.वहां के एक गांव में एक व्यक्ति की मौत के बाद परिवार ने मृत्यु भोज की जगह गांव में पुस्तकालय खोलने का फैसला किया. इसकी भनक जब गांव वालों को लगी तो उन्होंने उस परिवार का  समाजिक बहिष्कार कर दिया. 

क्या मृत्युभोज से सुधरता है परलोक

मृत्युभोज का आयोजन परलोक में आस्था रखने वाला हिंदू समाज सदियों से करता आया है. ऐसी मान्यता है कि किसी परिजन की मौत के बाद ब्राह्मण को दान देने और लोगों को भोजन कराने का पुण्य मृत आत्म आत्मा को मिलता है. इससे मृत आत्मा का परलोक सुधरता है.लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि व्यक्ति या जीव जीते जी जो अच्छा काम करता है, परोपकार करता है, दया दिखाता है, दान-पुण्य करता है और दीन-दुखियों की सेवा करता है, उसका परलोक मृत्यु के बाद अपने आप सुधर जाता है. ऐसे में मृत्यु के बाद परिजनों को जरूरी काम ही करने चाहिए. आडंबर और दिखवे से बचना चाहिए.मृत्यु भोज भी एक तरह का आडंबर है. इसे रोकने के लिए समाज अपने स्तर पर प्रयास कर रहा है. 

क्या कहते हैं शंकराचार्य

ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने मुत्युभोज को लेकर शास्त्र के हवाले से बताया है. उनका कहना है कि मुत्युभोज में तीन तरह के भोजन का प्रावधान है.अंत्येष्टि के 11वें दिन महापात्र का भोजन क्या जाना चाहिए.इसके अलावा 12 या 13 दिन 13 ब्राह्मणों को भोजन कराने की बात कही गई है.उनका कहना है कि शास्त्र में 12वें दिन ही ब्राह्मणों को भोजन कराने को कहा गया है.

उन्होंने कहा कि अत्येष्टि के 13वें दिन लोग सगे-संबंधियों को भोजन कराते तो हैं, लेकिन शास्त्रों में इसका कोई उल्लेख नहीं है.लेकिन उनका कहना है कि मृत्युभोज शास्त्रविधि हैं. वो कहते हैं कि इसे रिति-रिवाज नहीं समझना चाहिए.यह साफ है कि शंकराचार्य मृत्युभोज में ब्राह्मणों को भोजन कराने को शास्त्रसम्मत मानते हैं. लेकिन मत्युभोज के नाम पर अन्य लोगों को भोजन कराने को शास्त्रसम्मत नहीं मानते हैं. इस तरह ईष्ट-मित्रों को भोजन कराने को वे लोकाचार बताते हैं. वो कहते हैं कि यह शास्त्रविधि नहीं है. उनका कहना है कि मृत्युभोज के नाम पर ईष्ट-मित्रों को भोजन कराना आपकी इच्छा पर निर्भर करता है. लेकिन यह काम कर्ज लेकर नहीं करना चाहिए. वो कहते हैं कि शास्त्र कर्ज लेकर यज्ञ करने और श्राद्ध करने को निषेध करते हैं. 

ये भी पढ़ें: क्या हरियाणा में RLD के साथ भाजपा लड़ेगी चुनाव, क्या जाट वोटरों को लुभा पाएगी BJP?

 NDTV India – Latest