रील लाइफ के दौर में रीयल लाइफ पर काम करते ये बच्चे​

 नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के पांच बच्चों विनीता, साक्षी, योगिता, हरप्रीत और अमन ने छह महीने पहले ‘सेक्सोपीडिया’ नाम से एक ग्रुप बनाया. इसकी शुरुआत के बारे में बात करते विनीता कहती हैं कि हरप्रीत ‘टीच फ़ॉर इंडिया’ में ‘फेलो ऑफ द फ़्यूचर’ नाम की फेलोशिप में शामिल हुई थी और वहां उन्होंने लड़कियों को पीरियड्स के दौरान आने वाली समस्याओं के बारे में काम करने की शुरुआत की.

डॉक्यूमेंट्री बनाते, सेक्स एजुकेशन पर बात करते यह बच्चे दिल्ली या मुंबई के स्कूली छात्र नही हैं, नानकमत्ता स्थित नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में यह सब बेहतरीन स्कूल प्रबंधन के कारण सम्भव हो रहा है. देश के उच्च संस्थानों से पढ़कर मिली सीख को अपने ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों को देने का ऐसा उदाहरण शायद ही हमने कहीं देखा हो. मेक्सिको में नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के बच्चों की बनाई डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग भी हुई है.

नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के कुछ बच्चों ने मिलकर एक डॉक्यूमेंट्री ‘थारू इको वीव्स’ तैयार की है. खास बात यह है कि डॉक्यूमेंट्री की डबिंग स्पेनिश भाषा में भी की गई है और मेक्सिको के गुआडालाजारा शहर में Ciesas Occidente संस्था द्वारा इसकी स्क्रीनिंग की गई. डॉक्यूमेंट्री बनाने के लिए स्कूल के बच्चों ने अपने आसपास रहने वाली थारू जनजाति के लोगों को चुना. डॉक्यूमेंट्री का बैकग्राउंड स्कोर सबसे बेहतरीन लगा है, इसमें आसपास के वातावरण की आवाज़ बिल्कुल स्पष्ट रही है. जैसे खेतों में चल रही महिलाओं के पैर पानी को चीरते हुए आगे बढ़ते हैं तो यह आवाज़ बिल्कुल खेत- खलिहानों का अहसास देती है.

इस डॉक्यूमेंट्री में हम देखते हैं कि नानकमत्ता में रहने वाली थारू जनजाति की महिलाएं डलवा डलिया (एक प्रकार की टोकरी) बनाकर और फिर उन्हें देश विदेश में बेचकर कैसे अपना घर चला रही हैं. किसी ठेकेदार के साथ मजदूरी करने की जगह खुद का काम कर रही थारू जनजाति की यह महिलाएं पूरे भारत के लिए महिला सशक्तिकरण का एक उदाहरण हैं और डॉक्यूमेंट्री में स्कूली बच्चों ने इसको बेहतरीन तरीके से प्रदर्शित किया है.

पांच लोगों की टीम ने बना डाला ‘सेक्सोपीडिया’.

नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के पांच बच्चों विनीता, साक्षी, योगिता, हरप्रीत और अमन ने छह महीने पहले ‘सेक्सोपीडिया’ नाम से एक ग्रुप बनाया. इसकी शुरुआत के बारे में बात करते विनीता कहती हैं कि हरप्रीत ‘टीच फ़ॉर इंडिया’ में ‘फेलो ऑफ द फ़्यूचर’ नाम की फेलोशिप में शामिल हुई थी और वहां उन्होंने लड़कियों को पीरियड्स के दौरान आने वाली समस्याओं के बारे में काम करने की शुरुआत की. इसमें मुख्य रुप से लड़कियों की खुद के शरीर के बारे में कम जानकारी को बढ़ाना था. फिर हम लोग भी हरप्रीत के साथ शामिल हो गए, हम नवीं क्लास के बच्चों का सेक्स एजुकेशन पर सेशन लेते हैं.

सेक्सोपीडिया के काम करने के तरीके पर बातचीत करते हुए हरप्रीत ने कहा कि हमने नवीं क्लास इसलिए चुनी क्योंकि इस क्लास की लड़कियों में हम सबसे ज्यादा शारीरिक बदलाव देखते हैं. हम बच्चों से पोर्नोग्राफी, एलजीबीटी, सेक्शुअल हेल्थ जैसे विषयों पर बात करते हैं, इस सेशन में लड़के भी शामिल होते हैं. सेशन के दौरान हम पीपीटी के जरिए अपनी बात रखते हैं. इसमें सवाल जवाब, एक्टिविटी होती हैं, जिससे हर बच्चा बातचीत में शामिल रहे.

इधर-उधर फैलने से रोके पैड और जीत लिया विप्रो का अवॉर्ड

स्कूल में कक्षा दसवीं की छात्रा शीतल कहती हैं कि ‘नेचर साइंस इनिशिएटिव देहरादून’ और हमारा स्कूल मिलकर काम करते हैं. नेचर साइंस इनिशिएटिव का काम पर्यावरण संरक्षण को लेकर है और हमारे स्कूल में लिए सेशन में उन्होंने बताया कि पैड हमारे लिए कितने नुकसानदायक होते हैं, उसके पैकेट के पीछे कभी नही लिखा होता कि पैड में कौन से केमिकल इस्तेमाल किए जाते हैं. इसके साथ ही उन्होंने मेंस्ट्रुअल कप व पैड के बजाए इस्तेमाल होने वाले अन्य विकल्पों के बारे में बताया, मैंने घर जाते ही उत्सुकता में मेंस्ट्रुअल कप ऑडर कर लिया था. शीतल आगे कहती हैं कि स्कूल में बारहवीं की लगभग सभी लड़कियां मेंस्ट्रुअल कप का इस्तेमाल करने लगी हैं. जो नही इस्तेमाल करते, उन्हें मेंस्ट्रुअल कप की शेप की वजह से डर है या उनके परिवार इसके इस्तेमाल के लिए मना करते हैं. 

शीतल बताती हैं कि जब से हमने यह कप इस्तेमाल करना शुरू किया, तब से हमें स्कूल में एक सकारात्मक बात देखने को मिली. पहले लड़कियों के टॉयलेट में रखा डस्टबिन लड़कियों के पैड से भरा रहता था और कुछ आवारा कुत्ते इसे स्कूल और आसपास के इलाकों में फैला देते थे, मेंस्ट्रुअल कप के इस्तेमाल से यह सब बन्द हो गया और इसी वजह से हमें ‘विप्रो अर्थियन अवार्ड 2024’ पुरस्कार प्राप्त हुआ. विप्रो की तरफ से यह अवॉर्ड पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र में दिया जाता है.

कोविड के दौर में गांव गांव चलवा दी थी लाइब्रेरी

कोविड के दौर की एक घटना के बारे में बात करते कमलेश अटवाल के छोटे भाई चंद्रशेखर अटवाल कहते हैं कि उस दौरान स्कूल की साफ सफाई करते जब हम लाइब्रेरी पहुंचे तो वहां किताबों में मकड़ी के जाले लगे हुए थे, उन्हें देखकर कमलेश ने निराशा में कहा कि क्या इसी दिन के लिए हमने स्कूल खोला था और उसके बाद उन्होंने अलग अलग गांवों से अपने स्कूल के बच्चों को बुलाकर उन्हें किताब दी और कहा कि इन्हें अपने गांव लेकर जाओ और जो भी यह किताबें पढ़ना चाहेगा उसे पढ़ने देकर फिर इन किताबों को दूसरे गांव में भेज देना. चंद्रशेखर कहते हैं कि उन दिनों यह प्रयोग इतना सफल हुआ कि गांव के लोग हमसे किताबें मंगवाने लगे और धीरे-धीरे यह सिलसिला इतना बढ़ गया कि छात्रों ने लगभग 23 गांव में पुस्तकालय चला दिए थे. सीनियर छात्र स्कूल से किताबें ले जाते और गांव के सरकारी स्कूल या आंगनबाड़ी केंद्र में अपना छोटा सा स्कूल चलाते थे.

रील लाइफ में जी रहे बच्चों को कैसे रीयल लाइफ में लाए कमलेश

स्कूल के चार संस्थापको में एक कमलेश अटवाल देश के दो प्रतिष्ठित संस्थानों आईआईएमसी और जेएनयू से पढ़े हैं. वह कहते हैं कि नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के चारों संस्थापकों कमलेश जोशी, चंद्रशेखर अटवाल, गोपाल जोशी और मुझे अपने विश्वविद्यालय जीवन में जो संघर्ष करना पड़ा उसका सीधा संबंध हमारी स्कूली शिक्षा का प्रभावशाली ना होना था. हमने अपने समकक्ष साथियों को यूनिवर्सिटी और कॉलेज में देखा कि अपने विषय के साथ-साथ जीवन के अन्य कौशल, संगीत, साहित्य और संस्कृति पर उनकी समझ शानदार. इस बात ने हमें नानकमत्ता के ग्रामीण क्षेत्र में वापस आकर स्कूल खोलने के लिए प्रेरित किया. जिससे ग्रामीण बच्चों को भी वह मौके मिल सकें, जो सिर्फ शहरों और एक वर्ग विशेष के बच्चों को ही मिल पाते हैं.

शिक्षा में नवाचार का बच्चों के पैरेंट्स द्वारा विरोध होता है या नही, सवाल पर कमलेश कहते हैं बच्चों को स्वतंत्रता देने और नए प्रयोगों का शुरुआत में कुछ हल्का प्रतिरोध तो हुआ लेकिन धीरे-धीरे अब पैरेंट्स ही हमारे सबसे बड़े प्रशंसक और सहयोगी बन गए हैं. सच बात तो यह है कि पैरेंट्स की तरफ से मिला बिना शर्त समर्थन ही हमें नए-नए प्रयोग करने और बच्चों को देश के अलग-अलग हिस्सों में भेजने की आजादी दे रहा है.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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