लद्दाख में दो कूबड़ वाले ऊंट ‘सैनिकों’ की तरह क्यों किए जा रहे प्रशिक्षित? सीमा पर करेंगे कमाल​

 हाई एल्टीट्यूड, अप्रत्याशित मौसम और आजमाए जा चुके मैकेनिकल विकल्पों की कमी के चलते सशस्त्र बलों को लद्दाख (Ladakh) के चुनौतीपूर्ण इलाकों में गश्त और उपकरणों को ले जाने के लिए एक प्राकृतिक विकल्प को आजमाने ने के लिए मजबूर किया है. दो-कूबड़ वाले ऊंटों (Two Humped Camels) को इसके लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है. लद्दाख के लेह में डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ हाई एल्टीट्यूड रिसर्च (DIHAR) जंगली ऊंटों, जिन्हें बैक्ट्रियन ऊंट भी कहा जाता है, को बोझा ढोने वाले आज्ञाकारी जानवर बनाने के लिए प्रशिक्षित कर रहा है.

हाई एल्टीट्यूड, अप्रत्याशित मौसम और आजमाए जा चुके मैकेनिकल विकल्पों की कमी के चलते सशस्त्र बलों को लद्दाख (Ladakh) के चुनौतीपूर्ण इलाकों में गश्त और उपकरणों को ले जाने के लिए एक प्राकृतिक विकल्प को आजमाने ने के लिए मजबूर किया है. दो-कूबड़ वाले ऊंटों (Two Humped Camels) को इसके लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है. लद्दाख के लेह में डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ हाई एल्टीट्यूड रिसर्च (DIHAR) जंगली ऊंटों, जिन्हें बैक्ट्रियन ऊंट भी कहा जाता है, को बोझा ढोने वाले आज्ञाकारी जानवर बनाने के लिए प्रशिक्षित कर रहा है.

बैक्ट्रियन ऊंट बहुत ही मजबूत होते हैं. वे ऊंचे इलाकों में भी जीवित रह सकते हैं. इनके अंदर अपना भोजन का भंडार होता है, क्योंकि ये लगभग दो सप्ताह तक बिना खाए रह सकते हैं. मध्य एशिया में इनका बोझ ढोने वाले जानवरों के रूप में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता रहा है. यह ठंडे, विरल वातावरण में भी आसानी से 150 किलोग्राम से अधिक भार उठा सकते हैं.

लेह में रिमाउंट वेटनरी कोर के कर्नल रविकांत शर्मा ने एनडीटीवी से बातचीत में कहा कि, प्राचीन कालीन सिल्क रोड पर माल परिवहन के लिए दोहरे कूबड़ वाले ऊंटों का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन बाद में भारत में इन्हें वश में करने और इनसे आज्ञा पालन करवाने का ज्ञान लुप्त हो गया.

अंतिम छोर तक की कनेक्टिविटी के लिए अच्छा विकल्प हैं ऊंट

रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) के अंतर्गत आने वाले डीआईएचएआर के कर्नल शर्मा ने कहा, “सेना की ऑपरेशनल लॉजिस्टिक्स जरूरतों के लिए, विशेष रूप से अंतिम छोर तक की कनेक्टिविटी के लिए दोहरे कूबड़ वाले ऊंट एक अच्छा विकल्प हैं.”

डीआरडीओ के वैज्ञानिकों का कहना है कि पहाड़ों को आम तौर पर रसद विशेषज्ञों के लिए दुःस्वप्न माना जाता है. लद्दाख में सड़क के बुनियादी ढांचे में सुधार ने परिवहन के विकल्पों को काफी हद तक बढ़ा दिया है, लेकिन सैनिकों को अभी भी अंतिम छोर तक की कनेक्टिविटी के लिए कुलियों और बोझा ढोने वाले जानवरों पर निर्भर रहना पड़ता है.

लॉजिस्टिक्स में अपनी उपयोगिता साबित कर दी

उन्होंने कहा कि बोझा ढोने वाले जानवरों ने लॉजिस्टिक्स में अपनी उपयोगिता साबित कर दी है, खास तौर पर पहाड़ी इलाकों में, जहां ड्रोन, क्वाडकॉप्टर और ऑल-टेरेन व्हीकल (ATV) की क्षमताएं अभी तक जरूरत के मुताबिक साबित नहीं हो सकी हैं. उच्च ऊंचाई पर तकनीकी विकल्पों का उपयोग मौसम की स्थिति, पर्यावरणीय कारकों और इलाके पर भी निर्भर करता है. ढुलाई करने वाले जानवरों की मदद ऑपरेशनल लॉजिस्टिक्स की दक्षता बढ़ाएगी.

लद्दाख सेक्टर में सन 1999 के कारगिल युद्ध के बाद से ज़ांस्कर टट्टुओं का उपयोग बड़े पैमाने पर सामान ढोने वाले पशुओं के रूप में किया जाता रहा है. पूर्वी लद्दाख में इसी उद्देश्य के लिए बैक्ट्रियन ऊंटों पर किए गए प्रारंभिक परीक्षण सफल रहे हैं.

रेतीले इलाकों में गश्त के लिए भी उपयोगी दो कूबड़ वाले ऊंट

भारतीय सेना की उत्तरी कमान के अनुसार, दो कूबड़ वाला ऊंट महत्वपूर्ण सामग्री को अंतिम छोर तक पहुंचाने और पठार के रेतीले इलाकों में गश्त के लिए एक अभिनव साधन है. ऊंटों के उपयोग से स्थानीय लोगों को रोजगार मिल रहा है और इन ऊंटों के संरक्षण का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है.

डीआईएचएआर के डायरेक्टर डॉ ओम प्रकाश चौरसिया ने कहा, “सेना की 14वीं कोर के मुख्यालय से मिले अनुरोध के अनुसार ज़ांस्कर टट्टुओं की तरह, हम गश्त और भार ढोने के लिए दो कूबड़ वाले ऊंटों के इस्तेमाल की व्यवहारिकता की जांच करने के लिए एक ट्रायल कर रहे हैं. शुरुआती परीक्षण से उत्साहजनक नतीजे मिले हैं.” 

कर्नल शर्मा ने कहा, “दो कूबड़ वाले ऊंट को सैनिक के रूप में ट्रेंड करना, उन्हें पर्यटकों की आनंद की सवारी के रूप में प्रशिक्षित करने से बहुत अलग है. युद्ध के समय जानवर को स्थिर रहना पड़ता है और सभी आदेशों का पालन करना पड़ता है, भले ही मशीनें उसके चारों ओर गर्जना कर रही हों.”

हाई एल्टीट्यूड पर याक का भी हो रहा परीक्षण

अत्यधिक ऊंचाई (15,000 फीट से ऊपर) पर ढुलाई के लिए याक के उपयोग पर भी परीक्षण हो रहा है. याक में देशी मवेशियों की तुलना में तीन गुना ज्यादा लाल रक्त कोशिकाएं होती हैं और साथ ही उनके फेफड़े भी बड़े होते हैं. वे हाई एल्टीट्यूड पर 100 किलोग्राम तक का भार उठाने के लिए पूरी तरह से अनुकूल होते हैं. उनके त्वचा पर अत्यधिक बालों का आवरण उन्हें माइनस 40 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में जीवित रहने की क्षमता देता है. वे 15,000 से 17,000 फीट की ऊंचाई वाले चरागाहों पर भी चर सकते हैं.

सीमा क्षेत्रों में इन जानवरों का उपयोग अब और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि यदि दुश्मन जैमर का उपयोग करता है तो ड्रोन और रोबोट उससे बचने में तब विफल हो सकते हैं जब उनकी सबसे अधिक जरूरत होती है.

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