‘मैं समय हूं… और आज महाभारत की कथा सुनाने जा रहा हूं’. इन शब्दों को भला कौन भूल सकता है?, 90 के दशक में हिंदुस्तान का कोई ऐसा घर नहीं होगा, जिनके यहां रविवार को ये आवाज न सुनाई दी हो.
‘मैं समय हूं… और आज महाभारत की कथा सुनाने जा रहा हूं’. इन शब्दों को भला कौन भूल सकता है?, 90 के दशक में हिंदुस्तान का कोई ऐसा घर नहीं होगा, जिनके यहां रविवार को ये आवाज न सुनाई दी हो. इस पौराणिक धारावाहिक को लिखा था लेखक राही मासूम रज़ा ने, जिनकी स्याही से लिखे एक-एक अल्फाज का करिश्मा ऐसा था कि ‘महाभारत’ लोगों के घरों तक पहुंची. इससे पहले सिर्फ लोगों ने इसके बारे में पढ़ा ही था. लेकिन, क्या आप जानते हैं कि जिन्होंने दूरदर्शन पर आई ‘महाभारत’ को देश के घरों तक पहुंचाने का काम किया उन्होंने इसकी कहानी और डायलॉग लिखने से मना कर दिया था. जी हां, आपने सही पढ़ा. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, फिल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर बीआर चोपड़ा ने धारावाहिक ‘महाभारत’ की कहानी के लिए राही मासूम रज़ा से संपर्क किया था. लेकिन, उन्होंने समय की कमी होने का हवाला देकर इसे ठुकरा दिया था.
बताया जाता है कि जब राही मासूम रज़ा को महाभारत लिखने का ऑफर दिया गया. उस दौरान उनकी गिनती इंडस्ट्री के नामी राइटरों में होती थी. उनकी मसरूफियत का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि वह एक साथ तीन-तीन कहानियों पर काम करते थे. हालांकि, महाभारत को मना करने के बाद बीआर चोपड़ा के घर चिट्ठियों का अंबार लग गया, जिनमें लिखा गया था कि क्या महाभारत को लिखने के लिए हिंदू लेखक नहीं हैं.
हालांकि, जब ये खबर राही मासूम रज़ा तक पहुंची तो उनका पारा चढ़ गया और उन्होंने तुरंत बीआर चोपड़ा को महाभारत की कहानी लिखने के लिए बोल दिया. राही मासूम रज़ा ने बीआर चोपड़ा से कहा था- मैं ही महाभारत लिखूंगा, क्योंकि मैं मां गंगा का बेटा हूं. राही ने ये बात ऐसे ही नहीं कही थी. इसके पीछे एक बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने कहा था कि उनकी तीन माएं थीं, नफीसा बेगम, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा, जो गंगौली में बहती थी.
1 सितंबर 1927 को गाजीपुर के गंगौली गांव में पैदा हुए राही मासूम रज़ा को लिखने का शौक तो था, लेकिन फिल्मी दुनिया से वे शुरुआती दिनों से ही प्रभावित थे. गाजीपुर से अलीगढ़ और फिर अलीगढ़ से उन्होंने बंबई (मुंबई) तक का सफर किया. सफलता की सीढ़ी चढ़ने के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा. हालांकि, जब सफलता ने दस्तक दी तो राही कहां रुकने वाले थे. उन्होंने 1979 में फिल्म ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ के लिए फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ संवाद पुरस्कार जीता. इसके बाद ‘मिली’, ‘कर्ज’, ‘लम्हे’ समेत करीब 300 फिल्मों के संवाद और कहानी लिखीं.
फिल्मों से लगाव के अलावा उन्होंने ‘छोटे आदमी की बड़ी कहानी’ लिखी थी, जो 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी पर आधारित है. साथ ही उन्होंने ‘आधा गांव’, ‘दिल एक सादा कागज़’, ‘ओस की बूंद’, ‘हिम्मत जौनपुरी’ जैसे उपन्यास लिखे थे. उन्होंने उर्दू में एक महाकाव्य भी लिखा था, जो बाद में हिंदी में ‘क्रांति कथा’ शीर्षक नाम से छपा. इसके अलावा उन्हें ‘टोपी शुक्ला’, ‘कटरा बी आर्ज़ू’, ‘मुहब्बत के सिवा’, ‘असंतोष के दिन’, ‘नीम का पेड़’ उनके अन्य उपन्यासों ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचाया.
राही मासूम रज़ा का लिखने का अंदाज हमेशा से ही जुदा रहा. उनकी लिखी ये शायरी “इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई, हम न सोए रात थक कर सो गई”, इस बात को बखूबी बयां करती है. राही मासूम रज़ा का निधन 15 मार्च 1992 को मुंबई में हुआ. उनके काम के लिए भारत सरकार ने पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया जा चुका है.
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