December 27, 2024
Explainer : चीन का बढ़ता परमाणु जखीरा क्यों बढ़ा रहा अमेरिका की टेंशन? समझें ड्रैगन का पूरा प्लान

Explainer : चीन का बढ़ता परमाणु जखीरा क्यों बढ़ा रहा अमेरिका की टेंशन? समझें ड्रैगन का पूरा प्लान​

बीते एक साल में चीन ने अपने जखीरे में 100 परमाणु हथियार और बढ़ा लिए हैं और 2024 के मध्य तक चीन के पास 600 परमाणु हथियार थे. जिनके 2030 तक बढ़कर 1000 हो जाने की आशंका है. चीन का बढ़ता परमाणु जखारी अमेरिका के लिए क्यों परेशानी का सबब है, यहां जानें.

बीते एक साल में चीन ने अपने जखीरे में 100 परमाणु हथियार और बढ़ा लिए हैं और 2024 के मध्य तक चीन के पास 600 परमाणु हथियार थे. जिनके 2030 तक बढ़कर 1000 हो जाने की आशंका है. चीन का बढ़ता परमाणु जखारी अमेरिका के लिए क्यों परेशानी का सबब है, यहां जानें.

हम एक ऐसे दौर में हैं जब दुनिया के कम से कम दो मोर्चों पर तो खुलकर युद्ध चल रहे हैं और कुछ मोर्चों पर युद्ध के कभी भी शुरू हो जाने का अंदेशा बना हुआ है. इन सभी में दुनिया की महाशक्तियां एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ी दिख रही हैं. ऐसे में दुनिया की तीन महाशक्तियों पर सबकी निगाह रहती है. अमेरिका, रूस और चीन जिनके आपसी हित इन सभी मोर्चों पर टकरा रहे हैं. इन हालात में अमेरिका के रक्षा मंत्रालय पेंटागन की एक रिपोर्ट बता रही है कि अमेरिका के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती रूस नहीं बल्कि चीन का विस्तारवादी रवैया है. पेंटागन की इस सालाना रिपोर्ट में चीन की फौजी ताक़त और उसकी फौज के आधुनिकीकरण का आकलन किया गया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक चीन एक व्यापक और तकनीकी तौर पर अत्याधुनिक परमाणु ताक़त बनने की ओर बढ़ रहा है. चीन के परमाणु हथियारों के जखीरे में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और वो नए नए लक्ष्यों को निशाना बनाने की अपनी क्षमता का विस्तार कर रहा है. चीन की फौजी ताक़त के आकलन से जुड़ी ये वार्षिक रिपोर्ट अमेरिकी संसद कांग्रेस में पेश की जाती है.

चीन ने 1 साल में अपने जखीरे में 100 परमाणु हथियार बढ़ाएं

इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि बीते एक साल में चीन ने अपने जखीरे में 100 परमाणु हथियार और बढ़ा लिए हैं और 2024 के मध्य तक चीन के पास 600 परमाणु हथियार थे. जिनके 2030 तक बढ़कर 1000 हो जाने की आशंका है. अमेरिका लगातार चीन से अपील करता रहा है कि वो अपने परमाणु कार्यक्रम को लेकर पारदर्शिता लाएं. साथ ही ये चेतावनी भी देता रहा है कि अमेरिका अपने सहयोगी देशों की रक्षा करने को तत्पर है और जवाब में उचित कदम उठाने से पीछे नहीं हटेगा. चीन के पड़ोस में ताइवान अमेरिका का एक ऐसा ही सहयोगी देश है, जिसे घेरने में चीन कोई कसर नहीं छोड़ रहा. बीते एक साल में उसने ताइवान के ख़िलाफ़ फौजी दबाव बढ़ा दिया है.

चीन ने करीब 60 साल पहले किया था परमाणु परीक्षण

क़रीब साठ साल पहले 16 अक्टूबर, 1964 को चीन ने अपने ज़िनजियांग प्रांत की लॉप नॉर टेस्टिंग साइट पर अपना पहला परमाणु परीक्षण किया. तब चीन की अर्थव्यवस्था उतनी मज़बूत नहीं थी .लेकिन चीन का ध्यान अपनी फौजी ताक़त के विस्तार पर बना रहा. बाद के दशकों में आर्थिक मोर्चे पर खुद को मज़बूत करता चीन सैन्य ताक़त भी बढ़ाता गया. तब से 2017 तक उपलब्ध जानकारी के मुताबिक चीन 23 atmospheric tests यानी खुले परमाणु परीक्षण और 22 भूमिगत परमाणु परीक्षण कर चुका है और इस सबकी बदौलत आज उसके पास छह सौ परमाणु हथियार हो चुके हैं. अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन ने ये आकलन पेश किया है. सवाल ये है कि चीन अपनी परमाणु ताक़त में ये विस्तार किन लक्ष्यों को ध्यान में रखकर कर रहा है. सामरिक विशेषज्ञ ब्रह्मचेल्लानी ने कहा कि चीन का जो मिलिट्री बिल्ड अप है. जहां पर अमेरिका है. चीन के निशाने पर सिर्फ़ ताइवान ही हो ये कहना मुश्किल है. हमेशा से ध्रुवों में बंटी दुनिया में महाशक्तियों के सामने दुश्मनों की कमी नहीं रही. यही वजह है कि परमाणु बम का आविष्कार और विकास होता चला गया. सामूहिक विनाश के इस हथियार का आविष्कार हुए अगले साल 70 साल पूरे हो जाएंगे.

अमेरिका ने 1945 में सबसे पहला परमाणु हथियार बनाया

बेहद गोपनीय मैनहटन प्रोजेक्ट के तहत छह साल की रिसर्च के बाद अमेरिका ने जुलाई 1945 में सबसे पहला परमाणु हथियार बनाया और उसका परीक्षण भी कर दिया. परमाणु हथियारों की विभीषिका क्या हो सकती है ये उसके अगले ही महीने सामने आ गया जब अगस्त 1945 में अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर दो बम गिराकर पूरी दुनिया को दहला दिया. उसके बाद से ही परमाणु हथियारों का विरोध दुनिया में तेज़ हो गया. लेकिन उनका विकास रुका नहीं. अमेरिका के साथ होड़ में लगे तत्कालीन सोवियत संघ ने चार साल बाद पहला परमाणु परीक्षण कर दिया. इसके बाद 1952 में ब्रिटेन, 1960 में फ्रांस, और 1964 में चीन ने परमाणु परीक्षण किए. भारत ने 1974 में पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण किया. फिर कई और छोटे-बड़े देश भी इस होड़ में शामिल हो गए.

70 साल में कितनी बदली परमाणु बम की दुनिया

Arms Control Association के आकलन के मुताबिक साल 2024 तक सबसे अधिक परमाणु हथियार अमेरिका के पास हैं, उनकी संख्या है 5748. इसके बाद दूसरे स्थान पर रूस आता है. जिसके पास 5580 परमाणु हथियार हैं. इन दोनों ही देशों के पास इतने परमाणु हथियार हैं कि वो पूरी पृथ्वी को कई बार नष्ट कर सकते हैं. परमाणु विकास के होड़ में चीन ब्रिटेन और फ्रांस के बाद आया. लेकिन आज तीसरे स्थान पर सबसे अधिक 600 परमाणु हथियार चीन के पास हैं. इसके बाद फ्रांस के पास 290, ब्रिटेन के पास 225 परमाणु हथियार है. इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत के पास 172 परमाणु हथियार हैं और पाकिस्तान भी पीछे नहीं है, उसने भी 170 परमाणु हथियार बना लिए हैं. इज़रायल के पास 90 और उत्तर कोरिया के पास 50 परमाणु हथियार बताए जाते हैं. यहां ख़ास बात ये है कि कई देशों ने अपने परमाणु हथियारों की सही संख्या सार्वजनिक नहीं की है. लेकिन दुनिया भर में थिंक टैंक इसके बावजूद एक अनुमान के आधार पर ये संख्याएं बताते आए हैं. कुल मिलाकर 12,200 परमाणु हथियार हैं जिसके 90% हथियार अकेले अमेरिका और रूस के पास हैं. इनमें से 9600 परमाणु हथियार सेनाओें के हाथ में हैं और बाकी को अलग समझौतों के तहत निष्क्रिय किया जा रहा है.

जब दुनिया ने देखी परमाणु बम से होने वाली बर्बादी

परमाणु बमों से हिरोशिमा और नागासाकी की बर्बादी का हाल पूरी दुनिया देख चुकी थी. और जब अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ आपसी होड़ में लगे हुए थे तो दुनिया का डर और बढ़ने लगा था कि कहीं दोनों महाशक्तियों के बीच कोई चिंगारी परमाणु युद्ध में न बदल जाए. दोनों ही महाशक्तियां अपने जखीरे में पारंपरिक हथियारों के अलावा परमाणु हथियारों को शामिल करने में तेज़ी से जुटी हुई थीं. किस तरह 1945 में पहला परमाणु बम बनने के बाद किस तेज़ी से दोनों देशों ने परमाणु बम बनाने शुरू किए. कुछ अन्य देश भी इसमें शामिल हो गए. हालात ये हो गए कि 1985 आते आते दुनिया में क़रीब 70 हज़ार परमाणु बम हो चुके थे जो दुनिया को न जाने कितनी बार ख़त्म कर सकते थे. लेकिन इसी के साथ साथ परमाणु निरस्त्रीकरण की आवाज़ भी तेज़ होती रही, जिसका नतीजा ये हुआ कि समय समय पर अमेरिका और सोवियत संघ समेत कई देशों ने हथियार नियंत्रण समझौतों पर हस्ताक्षर किए. जिन्होंने परमाणु हथियारों और उनके परीक्षणों को सीमित करने की दिशा में बड़ी भूमिका निभाई. 1968 में पहले परमाणु निरस्त्रीकरण समझौते यानी NPT पर दस्तख़त हुए, बीच में कई और संधियां होती रहीं जो अप्रैल, 2010 तक New START यानी The New Strategic Arms Reduction Treaty तक पहुंची. जिसमें अमेरिका और रूस ने अपने परमाणु जखीरों को सीमित करने का वादा किया.

आज की तारीख़ में अमेरिका के 1419 परमाणु हथियार और रूस के 1549 परमाणु हथियार उनके सैकड़ों बॉम्बर विमानों और मिसाइलों पर लगे हुए हैं. परमाणु हथियारों को गिराने की तकनीक अत्याधुनिक होती जा रही है. New Strategic Arms Reduction Treaty के मुताबिक कोई भी देश 1550 से ज़्यादा परमाणु हथियारों को तैनात नहीं कर सकता. इसके अलावा और भी कई नियम हैं. यूक्रेन के साथ युद्ध में पश्चिमी देशों की भागीदारी को देखते हुए रूस 21 फरवरी, 2023 को New START संधि से बाहर हो गया. भारत, इज़रायल और पाकिस्तान ने अपनी अपनी रणनीतिक मजबूरियों या फिर कहें सामरिक ज़िम्मेदारियों को बताते हुए परमाणु निरस्त्रीकरण संधि यानी NPT पर दस्तख़त नहीं किए. उत्तर कोरिया 2003 में NPT से बाहर निकल आया और उसके बाद से कई आधुनिक परमाणु परीक्षण कर चुका है.

पेंटागन की रिपोर्ट में चीन पर क्या खुलासा

अमेरिका के रक्षा मंत्रालय पेंटागन की रिपोर्ट में चीन के तेज़ी से बढ़ते परमाणु जखीरे के अलावा जो दूसरी ख़ास बात कही गई है वो ये है कि तेज़ी से अपनी सेनाओं का आधुनिकीकरण कर रहे चीन की इन कोशिशों में भ्रष्टाचार के कई मामलों से थोड़ी सुस्ती आई है. पेंटागन की इस रिपोर्ट के मुताबिक चीन ने जुलाई से दिसंबर 2023 के बीच अपने कम से कम 15 बड़े फौजी अधिकारियों और रक्षा उद्योग से जुड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार के आरोपों में उनके पदों से हटा दिया. चीन की सबसे ताक़तवर फौजी संस्था Central Military Commission में भ्रष्टाचार के कई आरोप सामने आए हैं. सेंट्रल मिलिटरी कमीशन चीन की सेना की सर्वोच्च संस्था है. जिसमें राष्ट्रपति शी चिनफिंग के नेतृत्व में छह बड़े राजनीतिक अफ़सर होते हैं. इनमें से ही एक Miao Hua को नवंबर के महीने में सस्पेंड कर दिया गया और उनके ख़िलाफ़ अनुशासन के घोर उल्लंघन के आरोप में जांच शुरू हो गई. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि चीन में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ किस बड़े पैमाने पर कार्रवाई हो रही है. इसी साल जून के महीने में चीन ने एलान किया था कि उसके पूर्व रक्षा मंत्री ली शांगफ़ू (Li Shangfu) और उनसे पहले के रक्षा मंत्री Wei Fenghe को भ्रष्टाचार के आरोप में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया.

चीन की मिलिट्री रॉकेट फोर्स से जुड़े कई अधिकारियों को भी हटाया गया है. ये चीन की सेना की वो शाखा है जो अत्याधुनिक पारंपरिक और परमाणु मिसाइलों से जुड़ी तैयारियों की निगरानी करता है. अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक सेना में भ्रष्टाचार के इन मामलों ने चीन को 2027 के अपने लक्ष्य को पाने से कुछ भटका दिया है. उसकी कुछ सैन्य परियोजनाओं में कुछ समय के लिए सुस्ती आ सकती है. इसकी वजह ये है कि एक बड़े अधिकारी को हटाने का असर नीचे तक भी जाता है औऱ कई और अधिकारी कार्रवाई के दायरे में आ जाते हैं. लेकिन चीन ने 2027 तक अपनी सेना के आधुनिकीकरण को मुकम्मल करने का लक्ष्य क्यों रखा है. पेंटागन की रिपोर्ट के मुताबिक चीन की नज़र पड़ोसी देश ताइवान पर है जिसे वो अपना ही इलाका मानता है. बीते पांच साल में चीन ने जिस तरह ताइवान के ख़िलाफ़ फौजी दबाव काफ़ी बढ़ा दिया है उसे देखते हुए कई जानकार ऐसा मान रहे हैं कि चीन का पहला लक्ष्य ताइवान है.

ताइवान पर चीन की नजर

पिछले ही हफ़्ते चीन की नौसेना और कोस्ट गार्ड के जहाज़ों का बड़ा बेड़ा ताइवान की समुद्री सीमा के आसपास पहुंच गया और ताइवान के अधिकारियों को लगा कि चीन उसकी घेराबंदी कर रहा है. ताइवान के अधिकारियों के मुताबिक चीन के क़रीब 90 जहाज़ों ने दो स्तर पर घेराबंदी कर ये दर्शाने की कोशिश की कि ये समुद्र चीन का है. अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के मुताबिक चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपनी सेना को आदेश दिया है कि वो 2027 तक ताइवान पर आक्रमण कर उसे चीन में मिलाने को तैयार रहे. इसे लेकर ताइवान का सहयोगी अमेरिका लगातार सतर्क है. एशिया प्रशांत इलाके में अमेरिका की फौजी मौजूदगी इसका सबूत है. अमेरिका की लगातार शिकायत रही है कि एशिया प्रशांत इलाके में उसके फौजी बंदोबस्त और सहयोगी देशों की सेनाओं के आसपास चीन अब भी ख़तरनाक तरीके से अपनी मौजूदगी दर्ज कराता रहा है. उसके लड़ाकू विमान कई बार उनके आसपास ख़तरनाक स्तर तक क़रीब आ जाते हैं. ताइवान के आसपास तो चीन की वायुसेना और नौसेना लगातार बड़ी मिलिट्री एक्सरसाइज़ करती रहती हैं और ताइवान का आरोप है कि उसके वायु क्षेत्र का भी उल्लंघन कर जाती हैं.

चीन और ताइवान के बीच कैसे हुई तनाव की शुरुआत

उधर चीन के विदेश मंत्रालय ने पेंटागन की ताज़ा रिपोर्ट को ग़ैर ज़िम्मेदार और पक्षपाती बताया है और इसे अपनी सैनिक दादागीरी को बनाए रखने का बहाना बताया है. ताइवान के रक्षा मंत्री का कहना है कि उनकी सेना ज़रूरत के हिसाब से अपनी योजनाओं पर काम कर रही है, ख़ुद को मज़बूत कर रही है ताकि चीन उसके ख़िलाफ़ खुल कर युद्ध में उतरने की हिमाकत न करे. चीन और ताइवान के बीच ये तनाव नया नहीं है. ये 65 साल पहले तब से ही है जब से ताइवान एक अलग देश बना. चीन और ताइवान का झगड़ा क्या है और चीन की बढ़ती ताक़त भारत के लिए कितनी चिंता की बात है. अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन की चीन से जुड़ी ताज़ा रिपोर्ट की जिसमें ये भी बताया गया है कि ताइवान चीन का पहला लक्ष्य है जिसे वो 2027 तक हासिल करने की कोशिश करेगा. लेकिन सवाल ये है कि ताइवान से चीन को तकलीफ़ क्या है.

कम्युनिस्ट चीन ताइवान को ख़ुद से अलग हुआ एक प्रांत मानता है. जबकि ताइवान ख़ुद को चीन के मेनलैंड से अलग एक लोकतांत्रिक देश मानता है जिसका अपना संविधान है. चीन के उत्तर पूर्वी छोर से क़रीब 150 किलोमीटर की दूरी पर ताइवान एक बड़ा द्वीप है जहां सदियों से कई स्थानीय मूल समाज रहते आए थे. 17वीं सदी में ये द्वीप चीनी साम्राज्य के पूरे कब्ज़े में आ गया. 1895 में जापान ने चीन पर हमला किया, चीन का चिंग साम्राज्य जापान से युद्ध हार गया और ताइवान जापान का उपनिवेश बन गया. 1945 में जापान जब दूसरे विश्व युद्ध में हार गया तो चीन ने ताइवान पर कब्ज़ा कर लिया. तब चीन में जनरल च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी सरकार थी. ये वो दौर था जब चीन में च्यांग काई शेक और माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच दशकों से दबदबे की लड़ाई चल रही थी.

1949 में माओ की कम्युनिस्ट पार्टी इस संघर्ष में जीत गई और च्यांग काई शेक और उनकी कुओमिंटांग पार्टी के लोग ताइवान भाग गए. इसके बाद दशकों तक उन्होंने ताइवान पर राज किया और उसे रिपब्लिक ऑफ चाइना नाम दिया जो आज भी ताइवान का आधिकारिक नाम है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ताइवान पर अपने दावे के लिए इतिहास की ओर इशारा करती है. ताइवान की सरकार भी उसी इतिहास की दुहाई देते हुए कहती है कि 1911 की क्रांति के बाद जो आधुनिक चीन बना ताइवान उसका हिस्सा नहीं था ना ही वो 1949 में माओ के नेतृत्व में बने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का हिस्सा था. लेकिन दुनिया पर चीन का दबाव देखिए कि सिर्फ़ 12 देश ताइवान को एक अलग देश के तौर पर मान्यता देते हैं. विडंबना ये है कि इसमें ताइवान का सबसे क़रीबी सहयोगी देश अमेरिका भी नहीं है.

चीन का जो मिलिट्री बिल्ड अप किसके लिए खतरा

अमेरिका ने 1979 में जिमी कार्टर के राष्ट्रपति काल में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना यानी आज के चीन को मान्यता दी थी और रिपब्लिक ऑफ चाइना जिसे हम ताइवान कहते हैं उसे एक अलग संप्रभु देश के तौर पर अमान्य कर दिया था…. अमेरिका ने वन चाइना पॉलिसी के तहत ये फ़ैसला किया था… बस अंतर ये था कि अमेरिका ने ताइवान पर चीन की संप्रभुता को कभी नहीं माना जबकि चीन की इस बात को मानता है कि ताइवान उसका हिस्सा है. बस ताइवान को लेकर अमेरिका के साथ चीन का ये रिश्ता इसी खींचतान के साथ आगे बढ़ता रहा है. एक और ख़ास बात ये है कि वन चाइना पॉलिसी के तहत भारत के भी ताइवान से राजनयिक संबंध नहीं हैं लेकिन अन्य स्तरों पर संबंध गहरे हैं. वैसे जानकार मानते हैं कि चीन की बढ़ती सैन्य ताक़त से भारत को भी सावधान रहना चाहिए. ब्रह्मचेल्लानी कहते हैं कि चीन का जो मिलिट्री बिल्ड अप है भारत के लिए बहुत ही ख़तरनाक है. चीन का नेक्स्ट टार्गेट बन जाएगा अरुणाचल प्रदेश . भारत समेत दुनिया के कई देशों के चीन के साथ रिश्ते उसकी विस्तारवादी नीतियों के कारण तनाव भरे हैं.

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