अंग्रेजी दुनिया के 180 से अधिक देशों में आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है, हालांकि इसका प्रयोग और महत्व हर जगह अलग-अलग है. दुनिया में भाषाई विविधता के मामले में पापुआ न्यू गिनी का पहला स्थान है, जहां 840 भाषाएं बोली जाती हैं.
पूरी दुनिया पर अंग्रेजी का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है. 1 मार्च 2025 को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक ऐतिहासिक आदेश पर हस्ताक्षर कर अंग्रेजी को संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया. यह पहली बार है जब अमेरिका ने अपनी 250 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में संघीय स्तर पर अंग्रेजी को यह दर्जा दिया है. ट्रंप का यह कदम जहां अमेरिका में राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बताया जा रहा है, वहीं आलोचकों का कहना है कि यह गैर-अंग्रेजी बोलने वाले समुदायों को हाशिए पर धकेल सकता है.
दुनिया भर में अंग्रेजी को दूसरी भाषा के रूप में बोलने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. उदाहरण के लिए, भारत में 125 मिलियन से अधिक लोग अंग्रेजी बोलते हैं, जबकि चीन में यह संख्या 200 मिलियन से अधिक है.
अमेरिका में इससे पहले क्या थी स्थिति?
संयुक्त राज्य अमेरिका में अब तक कोई आधिकारिक भाषा नहीं थी. अंग्रेजी देश में सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा रही है, लेकिन यह कभी भी संघीय स्तर पर आधिकारिक रूप से घोषित नहीं की गई थी. 2019 के अमेरिकी जनगणना ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, देश में 330 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से लगभग 78% लोग घर पर केवल अंग्रेजी बोलते हैं. इसके बावजूद, स्पेनिश, चीनी, टैगलॉग और कई मूल अमेरिकी भाषाएं भी व्यापक तौर पर बोली जाती रही है.
दुनिया में अंग्रेजी का कितना राज?
1520 मिलियन (1.52 अरब) बोलने वालों के साथ अंग्रेजी वैश्विक स्तर पर पहले स्थान पर काबिज है. यह आंकड़ा इसके वैश्विक प्रभाव को दर्शाता है, जो अमेरिका, यूके, भारत जैसे देशों से लेकर शिक्षा और व्यापार तक फैला हुआ है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, अंग्रेजी न केवल मूल भाषा के रूप में, बल्कि दूसरी भाषा के रूप में भी सबसे आगे है.
दूसरे स्थान पर मंदारिन चीनी है, जिसे 1140 मिलियन (1.14 अरब) लोग बोलते हैं. यह भाषा चीन, ताइवान और सिंगापुर में प्रभुत्व रखती है, लेकिन वैश्विक पहुंच में यह अंग्रेजी से पीछे है. तीसरे नंबर पर हिंदी है, जिसके 609 मिलियन बोलने वाले हैं. भारत, नेपाल और प्रवासी समुदायों में मजबूत पकड़ के साथ हिंदी ने स्पेनिश को पीछे छोड़ दिया. स्पेनिश 560 मिलियन बोलने वालों के साथ चौथे स्थान पर है, जो स्पेन, लैटिन अमेरिका और अमेरिका में बोली जाती है.
पांचवें स्थान पर फ्रेंच है, जिसे 321 मिलियन लोग बोलते हैं. फ्रांस, अफ्रीका और कनाडा में इसका प्रभाव है, लेकिन यह अरबी से पीछे है, जो 422 मिलियन बोलने वालों के साथ छठे स्थान पर है. सातवें नंबर पर बंगाली (273 मिलियन) है, जो बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में लोकप्रिय है। इसके ठीक पीछे पुर्तगाली (264 मिलियन) आठवें और रूसी (255 मिलियन) नौवें स्थान पर हैं। दसवें स्थान पर उर्दू है, जिसे 232 मिलियन लोग बोलते हैं, मुख्य रूप से पाकिस्तान और भारत में.
दुनिया में कहां-कहां अंग्रेजी आधिकारिक भाषा है?
अंग्रेजी दुनिया के 180 से अधिक देशों में आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है, हालांकि इसका प्रयोग और महत्व हर जगह अलग-अलग है. कई देशों में इसे कामकाजी भाषा के तौर पर उपयोग में लाया जाता है. वहीं कुछ जगहों पर व्यापार के लिए.
कई छोटे राष्ट्र और क्षेत्र, जैसे जमैका, बहामास, और फिजी, भी अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, बहुभाषी देशों में अंग्रेजी अक्सर एकता और वैश्विक संपर्क का साधन बनती है.
भारत में अंग्रेजी की क्या है हालत?
भारत में राजभाषा का मुद्दा विवादास्पद रहा है. संविधान के अनुच्छेद 343(1) के अनुसार, “संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी.” यह प्रावधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, जब भारत गणतंत्र बना. हालांकि, उसी अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि अगले 15 वर्षों तक (यानी 1965 तक) अंग्रेजी का प्रयोग संघ के सभी आधिकारिक कार्यों के लिए जारी रहेगा.
1963 में पारित आधिकारिक भाषा अधिनियम (Official Languages Act, 1963) ने इस व्यवस्था को और स्पष्ट किया. इसके अनुसार, 1965 के बाद भी अंग्रेजी को सह-आधिकारिक भाषा के रूप में प्रयोग करने की अनुमति दी गई, खासकर उन क्षेत्रों में जहां हिंदी व्यापक रूप से स्वीकार नहीं थी. इस अधिनियम की धारा 3(2) कहती है कि केंद्र सरकार के दस्तावेजों और संचार में हिंदी के साथ अंग्रेजी का प्रयोग किया जा सकता है. आज तक, संसद, न्यायालयों, और केंद्रीय प्रशासन में अंग्रेजी का व्यापक उपयोग होता है.
पापुआ न्यू गिनी में बोली जाती है सबसे अधिक भाषाएं
दुनिया में भाषाई विविधता के मामले में पापुआ न्यू गिनी का पहला स्थान है, जहां 840 भाषाएं बोली जाती हैं. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के आंकड़ों के अनुसार, यह छोटा सा द्वीपीय देश भाषाओं की संख्या में सबसे आगे है. इस सूची में इंडोनेशिया 711 भाषाओं के साथ दूसरे स्थान पर है. तीसरे नंबर पर नाइजीरिया है, जहां 517 भाषाएं बोली जाती हैं, जो अफ्रीका महाद्वीप में इसकी बहुभाषी पहचान को दर्शाता है.
भारत इस सूची में 456 भाषाओं के साथ चौथे स्थान पर है. देश की सांस्कृतिक और क्षेत्रीय समृद्धि इसे भाषाओं का गढ़ बनाती है, जिसमें हिंदी, बंगाली, तमिल जैसी प्रमुख भाषाएं शामिल हैं. पांचवें स्थान पर अमेरिका है, जहां 328 भाषाएं बोली जाती हैं. ऑस्ट्रेलिया 312 भाषाओं के साथ छठे स्थान पर है, जिसमें कई मूल निवासी बोलियां शामिल हैं.
सातवें नंबर पर चीन है, जहां 309 भाषाएं दर्ज की गई हैं. यह आंकड़ा इसके विशाल भूभाग और जातीय समूहों की विविधता को दिखाता है. मेक्सिको 292 भाषाओं के साथ आठवें स्थान पर है, जो अपनी स्वदेशी संस्कृति के लिए मशहूर है. सूची में नौवां स्थान ब्राजील का है, जहां 221 भाषाएं बोली जाती हैं, जो अमेजन के जंगलों से लेकर शहरी क्षेत्रों तक फैली हैं.
भारत में होते रहे हैं अंग्रेजी के विरोध
भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ा है, लेकिन इसके साथ ही इसके खिलाफ आंदोलन भी समय-समय पर होते रहे हैं. हाल ही में, कुछ क्षेत्रीय संगठनों और भाषाई समूहों ने अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व को “सांस्कृतिक गुलामी” करार देते हुए इसके प्रयोग को सीमित करने की मांग उठाई थी. दूसरी ओर,अंग्रेजी की स्वीकार्यता आज शिक्षा, रोजगार और वैश्विक मंच पर भारत की पहचान का आधार बन गई है.
भारत में अंग्रेजी के खिलाफ पहला बड़ा आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देखा गया. 1920 में शुरू हुए असहयोग आंदोलन में महात्मा गांधी ने अंग्रेजी शिक्षा और उसके प्रभुत्व को ब्रिटिश शासन का प्रतीक बताया था. उन्होंने हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने की वकालत की थी. स्वतंत्रता के बाद भी यह बहस जारी रही. 1960 के दशक में दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु में, हिंदी थोपे जाने के खिलाफ आंदोलन ने अंग्रेजी को एक तटस्थ विकल्प के रूप में स्थापित किया, लेकिन साथ ही भाषाई अस्मिता की लड़ाई को भी तेज किया.
यूनेस्को के अनुसार, भारत की 197 भाषाएं खतरे में हैं, और अंग्रेजी का बढ़ता प्रयोग इसे तेज कर सकता है. दूसरा, रोजगार और शिक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता ग्रामीण और छोटे शहरों के युवाओं के लिए अवसरों में असमानता पैदा करती है.
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